एक बड़ी पुरानी कहावत है। जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदता है, वो एक दिन खुद उसमें गिर जाता है। चीन का हाल इन दिनों कुछ ऐसा ही लग रहा है। दो साल पहले दुनिया को दिया हुआ कोरोना महामारी का उसका तोहफा अब रिटर्न गिफ्ट बन कर उसका ही सिरदर्द बढ़ा रहा है। कोरोना के बढ़ते मामलों पर रोक लगाने के लिए सरकार की जीरो-कोविड पॉलिसी आम जनता के निशाने पर है। लोग गुस्से में हैं और लंबे लॉकडाउन और क्वारंटीन से तंग आ चुके हैं। बीते महीने के आखिरी सप्ताह में ही कोविड से जुड़े प्रतिबंधों की वजह से चीन की सड़कों पर कई बड़े प्रदर्शन हुए हैं। पहले झेंगझोऊ शहर में दुनिया की सबसे बड़ी आईफोन फैक्ट्री फॉक्सकॉन में संक्रमण फैलने की चर्चाओं के बीच हिंसक प्रदर्शन हुए। उसके बाद शिनजियांग क्षेत्र में कथित तौर पर क्वारंटीन की गई एक गगनचुंबी इमारत में ताला लगे होने की अफवाह के बीच आग लगने से 10 लोगों की मौत पर सड़कों पर खुलेआम विरोध दिखा। ऐसा माना गया कि सरकार की कोविड नीति के कारण बचाव कार्य में बाधा आने से मारे गए लोगों को बचाया नहीं जा सका। ऐसी कई घटनाओं में आम चीनी गुस्से में उबलता दिखा है। इस समय चीन के कम-से-कम एक दर्जन शहरों में जनता सड़कों पर उतरी हुई है। नाराज जनता जगह-जगह लोहे की बैरिकेडिंग तोड़ रही है, कोविड टेस्ट कराने से मना कर रही है और लॉकडाउन की पाबंदियों का विरोध कर रही है।
सख्त पाबंदियों के बीच रहने की अभ्यस्त हो चुकी चीनी जनता के ये बागी तेवर भले ही हैरान करने वाले हों लेकिन दुनिया के किसी भी दूसरे देश के लिहाज से ये अप्रत्याशित नहीं हैं। पिछले दो वर्षों से चीन में संक्रमित होने पर लोगों को जबरन क्वारंटाइन किया जा रहा था। कई-कई मामलों में तो पूरी-की-पूरी बिल्डिंग को हफ्तों-महीनों तक बंद कर दिया जाता था। जमीनी हकीकत को नजरंदाज कर संक्रमण और मौत को लगातार कम करके दिखाया जा रहा था। ऐसे में चीनी नेताओं की अमेरिका में कोरोना से हुई 10 लाख से अधिक मौत का हवाला देकर देश के नागरिकों को संयम बरतने की सलाह ने भी यकीनन जले पर नमक छिड़का होगा।
बार-बार के लॉकडाउन के कारण कारखानों और श्रमिकों के साथ-साथ चीन की अर्थव्यवस्था भी दबाव में है। साल की तीसरी तिमाही में भले ही इसमें एक साल पहले की तुलना में 3.9 फीसद की बढ़ोतरी हुई हो, लेकिन पिछली तिमाही के मुकाबले ये वृद्धि केवल 0.4 फीसद की ही है जो चीन की अपनी अपेक्षाओं के लिहाज से काफी निराशाजनक है। आशंका ये भी है कि अगर आने वाले दिनों में जीरो कोविड नीति में ढील नहीं दी जाती है तो अर्थव्यवस्था चौपट भी हो सकती है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष भी है। अर्थव्यवस्था की चिंता करते हुए चीन की कैबिनेट ने नवंबर के दूसरे सप्ताह में कोविड नियमों को थोड़ा शिथिल किया था, लेकिन ये दांव बुरी तरह से उल्टा पड़ गया। एक ही दिन में संक्रमण के मामलों ने 40 हजार से ज्यादा का नया रिकॉर्ड बना दिया।
ऐसे में लगता है कि चीन अब फंस गया है। एक तरफ कुआं है, तो दूसरी तरफ खाई। जीरो कोविड नीति पर आगे बढ़ने का मतलब लोगों के गुस्से को और भड़काना और अर्थव्यवस्था को और बड़े खतरे में डालना होगा। वहीं, रणनीति बदलने का अर्थ होगा अपनी गलती मानना जो देश के सुप्रीमो के तौर पर राष्ट्रपति शी जिनपिंग की स्थिति को कमजोर कर सकता है। जाहिर तौर पर जिनपिंग एक तानाशाह के तौर पर सबसे कठिन विकल्पों का सामना कर रहे हैं – चाहे रणनीति बदलकर अपनी विफलता स्वीकार करना हो या एक विफल नीति के साथ बने रहना। वैसे भी गुस्सा इतना ज्यादा है कि जिनपिंग से कुर्सी छोड़ने की मांग अब सार्वजनिक तौर पर हो रही है। इस संकेत को समझने की जरूरत है। जिनपिंग का विरोध केवल कोविड लॉकडाउन तक सीमित नहीं है। मुझे तो इसमें चीन के एक पार्टी सिस्टम और जोड़-तोड़ कर आजीवन राष्ट्रपति बने जिनपिंग से आजादी की अभिलाषा भी दिखती है। चीन में दशकों से 1989 में थियानमेन चौराहे पर लोकतंत्र समर्थकों पर हुई गोलीबारी पर चर्चा वर्जित रही है, लेकिन इस बार के विरोध में वो बंदिश भी टूट गई है। इससे पता चलता है कि हालात इस बार वाकई खराब हैं। चीन की मुश्किल ये है कि उसे बातचीत के रास्ते समस्या सुलझाने की आदत नहीं है। वहां सरकार अपनी बात मनवाने का एक ही तरीका अमल में लाती रही है और वो रास्ता है दमन का। शंघाई में तो पुलिस ने हद पार करते हुए भीड़ को नियंत्रित करने के लिए काली मिर्च तक स्प्रे कर दी। ये जानना इसलिए जरूरी है कि जहां दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में अब लोगों के लिए जीवन आसान हो रहा है, वहीं चीन की जनता को अपनी सरकार की हठधर्मिता के कारण किस नर्क से गुजरना पड़ रहा है।
हमारा दूसरा पड़ोसी पाकिस्तान दूसरी वजहों से गंभीर संकट में है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर ज्यादा बात करने लायक कुछ बचा नहीं है। आंतरिक राजनीति का हाल ये है कि वहां प्रधानमंत्री भले ही शाहबाज शरीफ हों, लेकिन सरकार बनाने-बिगाड़ने का खेल पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और सेना के बीच चल रहा है। आर्थिक और सियासी संकट से घिरे पाकिस्तान के सामने जल्द ही एक नई मुसीबत आने वाली है। आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने वहां सीजफायर का समझौता तोड़कर युद्ध का ऐलान कर दिया है। यानी आतंक को पनाह देने वाला पाकिस्तान अब खुद बारूद के ढेर पर बैठा है। टीटीपी ने युद्धविराम ऐसे समय में समाप्त किया है जब पाकिस्तान में जनरल असीम मुनीर अहमद ने नए सेना प्रमुख के तौर पर कुर्सी संभाली है। जो लोग असीम मुनीर अहमद को नहीं जानते हैं उनके लिए इतना भर जानना काफी होगा कि जब पुलवामा में हमला हुआ था तब यही ‘महोदय’ आईएसआई के मुखिया हुआ करते थे। वैसे सेनाध्यक्ष पद पर मुनीर की नियुक्ति से इमरान खान के लिए प्रतिकूल स्थितियां बन गई हैं। अमेरिकी थिंक टैंक अटलांटिक काउंसिल ने पाकिस्तान के हालिया घटनाक्रम के बाद वहां तनाव बढ़ने और समाज के अधिक ध्रुवीकृत होने की आशंका जताई है। एक तरह से यह गृहयुद्ध की चेतावनी ही है।
पड़ोस में मची ऐसी अफरातफरी के बीच भारत को भी सतर्क रहने की जरूरत है। इतिहास बताता है कि अशांत चीन और अराजक पाकिस्तान भारत को मुश्किल में डालने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। जहां दुनिया को कोरोना बांटने वाला चीन अपनी नाकामियों से चीनी नागरिकों का ध्यान हटाने के लिए भारत पर ‘कोविड-अटैक’ की हिमाकत कर सकता है, वहीं घरेलू चुनौतियों से घिरा पाकिस्तान एक बार फिर कश्मीर को अपनी ढाल बना सकता है। चीन की सैन्य शक्ति पर पेंटागन की वार्षिक रिपोर्ट पर भी गौर करने की जरूरत है। इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि चीन लद्दाख में विवादित सीमा के पास बुनियादी ढांचे का विकास जारी रखे हुए है और अपने परमाणु शस्त्रागार को बढ़ाने के अलावा पाकिस्तान जैसे मित्र राष्ट्रों के लिए अपनी विदेशी सैन्य रसद उपस्थिति का विस्तार करने की योजना पर काम कर रहा है। पूर्वी लद्दाख में तनाव के बीच चीन ने इस सप्ताह हिंद महासागर क्षेत्र के 19 देशों के साथ बैठक भी की है और ऐसी अपुष्ट खबरें हैं कि इस बैठक के लिए भारत को न्योता भी नहीं दिया। चीन की चालबाजी और पाकिस्तान का पाखंड कोई नई बात नहीं है लेकिन संदर्भ नया है इसलिए उसका सामना करने की तैयारियों को भी नई धार देने की जरूरत है।
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