महाराष्ट्र में फिर खेला हो गया है। एनसीपी नेता अजित पवार बड़ा सियासी उलटफेर करते हुए एनडीए के खेमे में चले गए हैं और फिलहाल महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ा रहे हैं। वैसे उनका लक्ष्य महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनना है। अजित पवार के साथ गए अन्य एनसीपी विधायकों में से आठ को महाराष्ट्र सराकर में मंत्री पद मिल गया है। इस घटनाक्रम के बाद अब चाचा शरद पवार और भतीजे अजित पवार के बीच एनसीपी पर कब्जे की जंग तेज हो गई है। मंगलवार को शरद पवार और अजित पवार गुट ने अलग-अलग बैठकें बुला कर शक्ति प्रदर्शन किया जिसमें अजित गुट भारी पड़ता दिखा है। अब शरद पवार के सामने पार्टी, सिंबल और विधायकों को साधने की चुनौती है जिस पर अजित गुट लगातार अपना दावा मजबूत करता दिख रहा है।
किरदार बदल दिए जाएं तो इस बार जुलाई में जो कुछ एनसीपी के साथ हो रहा है, ठीक वही सब पिछले साल जून में शिवसेना के साथ हो चुका है। तब शरद पवार की भूमिका में उद्धव ठाकरे थे और एकनाथ शिंदे ने अजित पवार वाला कारनामा किया था। इस तरह इतिहास ने इस बार एक साल में ही खुद को दोहरा दिया है। वैसे इतिहास के लिए कहा भी जाता है कि वो खुद को दोहराना पसंद करता है। महाराष्ट्र की राजनीति अब शायद देश में इसकी सबसे बड़ी मिसाल बन गई है। एनसीपी से अजित पवार के अलग होने और शिंदे सरकार में शामिल होने के फैसले ने साल 1978 में महाराष्ट्र में वसंतदादा पाटिल सरकार के खिलाफ शरद पवार के विद्रोह की याद दिला दी है। तब शरद पवार ने कांग्रेस को विभाजित कर महाराष्ट्र में वसंतदादा पाटिल की सरकार गिरा दी थी। वसंतदादा पाटिल के खिलाफ शरद पवार 40 विधायकों के साथ सरकार से बाहर निकले थे। संयोग देखिए कि आज शिंदे सरकार में शामिल होने के लिए अजित पवार भी लगभग उतने ही विधायकों के समर्थन का दावा कर रहे हैं। किसने सोचा था कि समय का चक्र इतना निर्मम भी होगा कि 45 साल पहले शरद पवार ने कांग्रेस को जो दर्द दिया था, एक दिन उनका भतीजा ही वही दर्द उन्हें वापस लौटाएगा। कौन सोच सकता था कि महज 38 वर्ष की युवा उम्र में महाराष्ट्र जैसे बड़े और महत्वपूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री बने शरद पवार को वो दिन भी देखना पड़ेगा जब बढ़ती उम्र का हवाला देकर उन्हें उस पार्टी के मुखिया की कुर्सी से ही बेदखल कर दिया जाएगा जिसे उन्होंने अपने खून-पसीने से सींचकर महाराष्ट्र की राजनीति में इतना प्रासंगिक बनाया है।
नतीजतन, महाराष्ट्र के मराठा सरदार के सामने अब 82 साल की उम्र में पार्टी के साथ-साथ अपना राजनीतिक वजूद बचाने की भी चुनौती है। अजित पवार खेमे की ओर से कहा जा रहा है कि शरद पवार को ये सलाह दी गई थी कि वे भले ही अपनी बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दें, लेकिन महाराष्ट्र का नेतृत्व अजित पवार को सौंपा जाना चाहिए। संभव है कि सीनियर पवार ने ये बात मान ली होती तो न जूनियर पवार को ये सब कुछ करने की जरूरत पड़ती, न एनसीपी पर ये आफत आती। लेकिन वो शरद पवार ही क्या जो दबाव की राजनीति के सामने झुक जाएं। ये जानते हुए भी कि अजित पवार एक दिन उनका साथ छोड़कर अपनी राह पर आगे बढ़ेंगे, शरद पवार ने वही किया जो उनकी जमीनी राजनीति को ठीक लगा। इस मुश्किल समय और उम्र के इस दौर में भी वो एनसीपी को दोबारा अपने पैरों पर खड़ा करने का दम भर रहे हैं। ये कलेजा शरद पवार के पास ही हो सकता है। नंबर गेम में वे भले ही पिछड़ रहे हों लेकिन एनसीपी कार्यकर्ताओं से लेकर समर्थकों का भरोसा उनसे डिगा नहीं है। सुप्रिया सुले समेत उनके साथ खड़े पार्टी के विधायकों को पूरा यकीन है कि साहेब जब महाराष्ट्र के दौरे पर निकलकर जनता के बीच जाएंगे तो ये खेल एक बार फिर पलटी मारेगा। वैसे इस दावे को खारिज नहीं किया जा सकता। महाराष्ट्र के हालिया दौरे पर मैंने खुद अनुभव किया कि एनसीपी कार्यालयों में शरद पवार की तस्वीर केवल रस्मी तौर पर ही दीवारों पर नहीं लटकी होती है, बल्कि वो साहेब के प्रति असीम स्नेह और उनकी कभी हार न मानने वाली इच्छाशक्ति पर अटूट भरोसे की सहज अभिव्यक्ति है।
वैसे महाराष्ट्र के इस सियासी अखाड़े के दूसरी तरफ भी एक ऐसा शख्स है जिसकी अपने दल के प्रति निष्ठा और उस पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का भरोसा असंदिग्ध है – देवेंद्र फडणवीस। यहां उनका जिक्र इसलिए जरूरी है कि इस खेल में वही चाणक्य की भूमिका में हैं और महत्वपूर्ण बात यह है कि बड़ी खामोशी भरे राजनीतिक चातुर्य से उन्होंने महाराष्ट्र की सियासत में ऐसा उलटफेर कर दिया है जिसकी गूंज अगले साल आम चुनाव में सुनाई देगी। ये आकलन शायद गलत नहीं होगा कि देवेंद्र फडणवीस ने साल 2024 की लड़ाई में सत्ता पर पार्टी की चढ़ाई की राह में खड़े हो रहे एक बड़े संकट का समाधान कर दिया है। वो भी पार्टी की लक्ष्य सिद्धि में अपने उस हक को किनारे रखकर जिसके वो बिना संदेह योग्य उत्तराधिकारी हैं। महाराष्ट्र में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है और सरकार में है। इसके बावजूद पार्टी के हित में देवेंद्र फडणवीस ने पहले एकनाथ शिंदे के अधीन उप-मुख्यमंत्री पद को स्वीकार किया और अब इस पद को वह उन्हीं अजित पवार के साथ भी साझा करने को तैयार हो गए हैं जिन्होंने एक वक्त उनके मुख्यमंत्री बनने पर उनके मातहत उप-मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। राजनीति के मौजूदा दौर में एक युवा जननेता की अपने पार्टी के लिए त्याग और तपस्या की ऐसी मिसाल दुर्लभ है।
ये बलिदान इसलिए भी अहम है क्योंकि इसके पीछे बीजेपी के भविष्य को और बुलंद करने का भाव है। अजित पवार के साथ प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे दिग्गजों ने भी एनडीए का हाथ थामा है। चंद दिनों पहले तक इनकी गिनती शरद पवार के सबसे विश्वस्त सलाहकारों में होती थी। प्रफुल्ल पटेल तो पटना में विपक्षी एकता की बैठक में भी शामिल हुए थे। माना जा रहा है कि इस पाला बदल की एक बड़ी वजह ईडी और अपने खिलाफ चल रहे मामलों में सजा का डर है। लेकिन ये केवल आधा सच है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में बीजेपी को भी अजित पवार और उनके गुट की जरूरत है। बीजेपी की इस समय बिहार और कर्नाटक के साथ ही महाराष्ट्र में भी पहले जैसी मजबूत नहीं दिख रही है। 2019 में एनडीए ने बिहार की 40 में से 39 सीटें जीती थीं। लेकिन तब जेडीयू और एलजेपी भी उसके साथ थी। आज जेडीयू पाला बदल चुकी है। कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में अपेक्षा से बुरी हार के बाद बीजेपी के लिए वहां भी 28 में से 25 सीटें जीतने के करिश्मे को दोहराना आसान नहीं दिख रहा है। साल 2019 में महाराष्ट्र में बीजेपी ने शिवसेना के साथ 48 में से 41 लोकसभा सीटें जीती थीं। दो गुटों में बंट चुकी शिवसेना का एक गुट फिलहाल बीजेपी के साथ है। अब एनसीपी का भी यही हाल है। लेकिन जनादेश किसके साथ है, इसकी आजमाइश तो लोकसभा चुनाव में ही होगी।
देश के बाकी हिस्सों की बात करें तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में बीजेपी के पास अपनी सीटें बढ़ाने की गुंजाइश कम लग रही है। पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में भी उसके सामने यही संकट है और दक्षिण भारत से वैसे भी ज्यादा उम्मीद करना बेमानी है। इस सबके बीच महाराष्ट्र से बीजेपी के लिए लगातार अच्छे संकेत नहीं आ रहे थे। ऐसा अनुमान जताया जा रहा था कि महाविकास अघाड़ी 34 सीटें जीत सकती है। इसका मतलब बीजेपी और शिवसेना-शिंदे गुट को केवल 14 सीटें मिलती दिख रहीं थी। एनसीपी के एक मजबूत धड़े के साथ आने से बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व अब यकीनन राहत की सांस ले रहा होगा। हालांकि ये देखने वाली बात होगी कि महाराष्ट्र सरकार में नए मेहमानों को एडजस्ट करने में शिंदे गुट कितनी और कब तक दरियादिली दिखा पाएगा।
लेकिन इस समय बीजेपी की प्राथमिकताएं दूसरी हैं। एनसीपी के साथ आने से बीजेपी का वो नैरेटिव भी मजबूत हुआ है जिसके तहत चुनाव से पहले ज्यादा-से-ज्यादा सहयोगी जुटा कर पार्टी अपने कुनबे के लगातार सीमित होते जाने के विपक्ष के आरोपों की धार भी कुंद कर सकती है। आने वाले दिनों में बिहार में चिराग पासवान की एलजेपी (राम विलास), जीतन राम मांझी की हम, मुकेश सहनी की वीआआईपी, उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर की सुभासपा, पंजाब में अकाली दल और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी का भी एनडीए में शामिल होना तय माना जा रहा है।
पूरी कवायद हर सीट पर विपक्ष के साझा उम्मीदवार को उतारने की रणनीति की काट और कुछ सीटों के अंतर से बहुमत से चूकने की स्थिति में सरकार बनाने की परेशानी से निपटने की तैयारी है। इसलिए खेला भले ही महाराष्ट्र में हुआ है, असली खेल तो 2024 का है।
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