मेवाड़ के महान योद्धाराणा सांगा, जिनका मूल नाम संग्राम सिंह था, भारतीय इतिहास के सबसे बहादुर योद्धाओं में गिने जाते हैं. अपने जीवनकाल में उन्होंने असंख्य युद्ध लड़े और कई जीत हासिल कीं. एक आंख और एक हाथ खोने के बावजूद उनकी वीरता और युद्ध कौशल में कोई कमी नहीं आई. 1508 में वे मेवाड़ के शासक बने और इस साम्राज्य को महान ऊंचाइयों तक पहुंचाया. उनकी गिनती उन योद्धाओं में होती है जिन्होंने अदम्य साहस और रणनीतिक कुशलता का परिचय दिया.
राणा सांगा का सबसे बड़ा संघर्ष 1527 में बाबर के साथ खानवा की लड़ाई में हुआ. इससे पहले, 1526 में पानीपत की पहली लड़ाई में बाबर ने दिल्ली सल्तनत के शासक इब्राहिम लोदी को पराजित कर भारत में मुगल शासन की नींव रखी. लेकिन उत्तर भारत में राजपूत शक्ति को समाप्त करना बाबर के लिए एक बड़ी चुनौती थी.
बयाना में राजपूत सेना ने बाबर की टुकड़ी को हराकर शुरुआती बढ़त हासिल की, लेकिन खानवा के निर्णायक युद्ध में बाबर की तैमूरी सेना और उसकी युद्ध रणनीति ने राणा सांगा की सेना को परास्त कर दिया. यह युद्ध भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ, क्योंकि इसके बाद मुगलों का प्रभाव पूरे उत्तर भारत में बढ़ने लगा.
सपा सांसद रामजी लाल सुमन के हालिया बयान ने इस मुद्दे को फिर से सुर्खियों में ला दिया कि क्या राणा सांगा ने बाबर को भारत बुलाया था. ऐतिहासिक तथ्यों की बात करें तो इस विषय पर अलग-अलग राय मिलती हैं. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बाबर ने खुद ही राणा सांगा से संपर्क किया था, जबकि कुछ का दावा है कि राणा सांगा ने बाबर को आमंत्रित किया था ताकि वे मिलकर इब्राहिम लोदी को हरा सकें.
बाबरनामा में उल्लेख है कि राणा सांगा ने बाबर को निमंत्रण भेजा था, लेकिन यह संदर्भ पानीपत की लड़ाई के बाद का है, जब बाबर ने खुद को दिल्ली का शासक घोषित कर दिया था. इस कारण यह कहना मुश्किल है कि बाबर को भारत बुलाने में राणा सांगा की कोई भूमिका थी या नहीं.
राणा सांगा की सैन्य शक्ति अद्वितीय थी. उनके अधीन अस्सी हजार घुड़सवारों की सेना थी, जिसमें सात राजा, नौ राव और 104 सरदार शामिल थे. उनकी सेना ने कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों जैसे ग्वालियर, अजमेर, सीकरी, कालपी, चंदेरी, बूंदी, गागरौन और रामपुरा तक अपना प्रभुत्व स्थापित किया.
उन्होंने मालवा और गुजरात की संयुक्त सेनाओं को कई बार पराजित किया. गागरोन, हटोली और धौलपुर की लड़ाइयों में उन्होंने अपने पराक्रम का परिचय दिया और अपनी भूमि का विस्तार किया. दिल्ली सल्तनत को चुनौती देने की उनकी महत्वाकांक्षा ही खानवा के युद्ध का कारण बनी.
खानवा की लड़ाई के दौरान राणा सांगा गंभीर रूप से घायल हो गए. बाबर की सेना ने तोपों और बंदूकों का इस्तेमाल किया, जो भारतीय युद्ध नीति के लिए एक नया अनुभव था. बाबर की ‘गज़ी’ की उपाधि और युद्ध में बारूद के व्यापक इस्तेमाल ने राजपूत सेना को भारी नुकसान पहुंचाया. इस हार के बाद भी राणा सांगा ने हार नहीं मानी और फिर से युद्ध के लिए सेना एकत्र करने लगे.
लेकिन उनके ही सरदारों ने उनके इस निर्णय का विरोध किया. कुछ इतिहासकारों के अनुसार, उनके कुछ सहयोगियों ने उन्हें जहर दे दिया, जिससे उनकी 30 जनवरी 1528 को मृत्यु हो गई. राणा सांगा की मृत्यु के साथ ही उत्तरी भारत में मुगलों का प्रभुत्व स्थापित हो गया.
राणा सांगा को उनकी वीरता और त्याग के लिए हमेशा याद किया जाता है. उन्होंने अपने जीवन में अनेकों बाधाओं का सामना किया, लेकिन कभी हार नहीं मानी. उनकी सेना और रणनीतिक कुशलता ने राजपूत शक्ति को बुलंद किया.
हालांकि, खानवा की हार के बाद राजपूत शक्ति कमजोर पड़ गई, लेकिन उनकी बहादुरी ने उन्हें अमर बना दिया. आज भी राजस्थान और भारत में उन्हें एक महान योद्धा के रूप में सम्मानित किया जाता है. उनकी कहानी हर भारतीय के लिए प्रेरणा स्रोत बनी हुई है.
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