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राजयोगी ब्रह्माकुमार ओमप्रकाश ‘भाईजी’ की 9वीं पुण्यतिथि पर मीडिया सेमिनार का आयोजन, भारत एक्सप्रेस के सीएमडी उपेन्द्र राय ने की शिरकत

इंदौर के एक आयोजन में मैंने बोला था कि प्रेस शब्द पैदा कहां से हुआ था? अस्तित्व में कब आया ये शब्द?

Upendra Rai

उपेन्द्र राय, सीएमडी, भारत एक्सप्रेस

राजयोगी ब्रह्माकुमार ओमप्रकाश ‘भाईजी’ की 9वीं पुण्यतिथि के मौके पर आज (24 दिसंबर) इंदौर में मीडिया सेमिनार का आयोजन किया गया. मुख्य अतिथि के तौर पर कार्यक्रम में भारत एक्सप्रेस के सीएमडी एवं एडिटर-इन-चीफ उपेन्द्र राय शामिल हुए.

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“ब्रह्माकुमारीज से मेरा जुड़ाव 2005 से है”

दीप प्रज्ज्वलन के बाद सीएमडी उपेन्द्र राय ने मीडिया सेमिनार को संबोधित किया. इस दौरान उन्होंने बताया कि ब्रह्माकुमारीज से उनका जुड़ाव साल 2005 से है, जब मुंबई के अंधेरी स्थित ब्रह्मकुमारीज द्वारा संचालित बीएसईएस एमजी हॉस्पिटल में उनकी पहली संतान (बेटी) का जन्म हुआ था, वहीं पर उनकी मुलाकात ब्रह्माकुमारीज से हुई थी. सीएमडी उपेन्द्र राय ने आगे कहा, “माउंट आबू में मेरी पहली बार मुलाकात हेमा दीदी से हुई थी, और वहां मैंने कितना अच्छा बोला, मुझे नहीं पता, क्योंकि यह तो दूसरे ही निर्णय करते हैं,तभी हमें पता चलता है. लेकिन हां,मैं यह जरूर कहूंगा, जो हमें हमेशा याद दिलाता है,कि जब मैं सहारा मीडिया का ग्रुप सीईओ बना, तब मेरी उम्र 27 वर्ष थी, तब से लेकर 2024 तक, हर वर्ष, मुझे Annual Conference के लिए मुझे आमंत्रण मिलता रहा, लेकिन माउंट आबू जाने का सौभाग्य 4 अक्टूबर, 2024 को मिला.”

‘स्वच्छ एवं स्वस्थ समाज के लिए आध्यात्मिक सशक्तीकरण- मीडिया की भूमिका है विषय पर अपने विचार रखते हुए सीएमडी उपेन्द्र राय ने कहा, ” इस विषय के केंद्र बिंदु में आध्यात्म है. अक्सर हम हमारे देश भारत में यह भूल हम करते हैं, जो धर्म और आध्यात्म की गंगा जो भारत की धरा पर बही, वह इतनी असीमित थी, कि उसका लाभ पूरी दुनिया ने पाया, लेकिन सबसे ज्यादा भटकाव जो आया, वह इसी भारत देश में देखने को मिला. ये भटकाव इसलिए है, क्योंकि हम अक्सर धर्म और आध्यात्म को अलग-अलग करके नहीं देख पाते हैं, तीन शब्द हैं, धर्म, धार्मिकता और आध्यात्म. ये तीनों शब्द अपने आप में पूर्ण हैं, लेकिन बहुत अलग-अलग हैं. मगर हमें लगता है कि धर्म और आध्यात्म एक ही शब्द है. ”

उन्होंने आगे कहा, देश में कई धर्म हैं, अगर ईसाई धर्म को ही देखा जाए, तो इसमें कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट है, यहूदी धर्म है, इस्लाम धर्म है, बौद्ध धर्म है. बौद्ध धर्म हमारे देश से ज्यादा अन्य देशों में है, एशिया महाद्वीप के कई देशों , चीन, इंडोनेशिया, श्रीलंका, भूटान में बौद्ध धर्म है. ये वह देश हैं जो अगर भारत के चरणों में शीश झुकाते हैं, और भारत की त्वरा में जो नकम हमें देखने को मिलता है, वह भगवान बुद्ध की वजह से है. यह एक तरह की जीवनचर्या को पालन करने वाले यम-नियम , व्रत और इन तमाम तरह की चीजों को मानने वाले पूजा पद्धति से जुड़ी हुई चीजें हैं,जो हम जानते हैं. लेकिन मैं उन्हीं बातों को कहूंगा,जो मैं जानता हूं. आध्यात्म ऐसा शब्द है, और ऐसी जरूरत है हमारे जीवन के लिए जो मानव मात्र के लिए बेहद जरूरी है. इस पृथ्वी पर 800 करोड़ लोग रहते हैं, मेरा मानना है कि आध्यात्म उन सभी 800 करोड़ लोगों की जरूरत है, जिसका किसी भी धर्म से लेना-देना नहीं है. अगर हम कोई भी धर्म मानते हैं, चाहे वो सनातन हो, बौद्ध हो, इस्लाम हो, जैन हो, हालांकि सनातन धर्म की जो लंबाई और गहराई है, इस पृथ्वी पर जितने भी धर्म है, उन सबसे कहीं ज्यादा है.

इसके अलावा दुनिया के बाकी जितने भी धर्म हैं, वह स्वर्ग और नरक की सीढ़ी पर जाकर रुक जाते हैं, लेकिन सनातन धर्म एक ऐसा धर्म है, जो मोक्ष की बात करता है. इस बात को आपको जानकार आश्चर्य होगा कि दुनिया के किसी भी धर्म में मोक्ष शब्द नहीं है. मोक्ष की बात आगे चल कर महावीर और बौद्ध भी करते हैं. बाकी दुनिया के जितने धर्म हैं, जैसे ईसाई धर्म करीब ढाई हजार साल पुराना है, इस्लाम धर्म करीब 1400 साल पुराना है, सिख धर्म 500 साल पुराना है, लेकिन हमारा सनातन धर्म 11 हजार साल पुराना है. बौद्ध और जैन धर्म मोक्ष की बात इसलिए कर पाए, क्योंकि इन धर्मों को सनातन धर्म का करीब 7 हजार साल का पुराना अनुभव मिला. जिसमें हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म हैं. इसलिए इन धर्मों में मोक्ष की बात हो पाई.बाकी अन्य धर्मों को समय की लंबाई और गहराई मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिल पाई. इसलिए इस्लाम में जो भटकाव है, वह जन्नत की हूरों तक ही आकर रुक जाता है. उसके आगे वह भी बात नहीं करते हैं, लेकिन इसके विरक्त, आध्यात्म एक जीवन पद्धति है.

जैसे हमारे जीवन के संतुलन का जो आधार है (जैसे किसी पदार्थ को तोड़ा जाए, तो तीन कण मिलते हैं, इलेक्ट्रॉन,प्रोटॉन और न्यूट्रॉन). जैसे हमारे हिंदू धर्म में ब्रह्मा, विष्णु और महेश, जैसे हमारे गुणों में तमो गुण, रजो गुण और सतो गुण, तो अगर इन तीनों की बात की जाए, तो जो एक है, वह विध्वसंक है, जिन्हें हम शंकर के रूप में जानते हैं. एक सृजनकर्ता हैं, जिन्हें हम ब्रह्मा के रूप में जानते हैं, और एक दोनों के बीच संतुलन साधने वाले हैं, जिन्हें हम विष्णु के रूप में जानते हैं. अगर इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन के लेवल पर बात की जाए, तो जिस तरह से इलेक्ट्रॉन संतुलन बनाता है, सस्टेन करता है, जो अदृश्य है, दिखता नहीं है, अभी तक दुनिया में ऐसा कोई भी तरीका या खोज नहीं हो पाई है कि इलेक्ट्रॉन को कैसे देखा जाए? प्रोटॉन सृजन का काम करता है.

न्यूट्रॉन जिस तरह से Destroyer का काम करता है, लेकिन उनके बीच में जैसे एक पिरामिड बना दिया जाए, और इलेक्ट्रॉन को सबसे ऊपर रखा जाए तो वह अन्य दोनों को साधने का काम करता है, लेकिन ऐसा क्या है कि अगर संतुलन न सधे तो चीजें दूसरी दिशा में चली जाती हैं. उदाहरण के तौर पर, अगर आप एक कार से जा रहे हैं, अलग-अलग जगहों पर स्पीड लिमिट दी गई है, जैसे आप हाइवे पर जा रहे हैं तो 120 तक स्पीड चलते हैं, लेकिन ड्राइवर के हाथ में एक्सेलरेटर भी है और ब्रेक भी है. एक्सेलरेटर दबा कर वह स्पीड को बढ़ा लेता है, और ब्रेक को दबा करके वह स्पीड को कम कर लेता है. लेकिन गाड़ी को संतुलित रखने का काम ड्राइवर का है, अगर भरे शहर में स्पीड 30 किलोमीटर रखने के पीछे वजह है कि अगर गाड़ी कम स्पीड में चल रही होगी, तो उसे कंट्रोल करना आसान होगा. तो कोई ऐसा है जो हमारे मन को, हमारे विचारों को नियंत्रित करता है, कंट्रोल करता है. इसलिए कहा जाता है कि हमारी प्रज्ञा है, हमारा विसडम है, जो हमें कंट्रोल करता है.

जैसे ब्रह्मा,विष्णु और महेश के बीच में विष्णु संतुलन साधते हैं, जैसे हम अपनी बुद्धि के द्वारा खुद को बचाने का काम करते हैं. लेकिन अब एक और नई बहस शुरू हो गई है. जैसे चार्वाक का दर्शन कहता है कि आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है.महात्मा बुद्ध ने भी ईश्वर और आत्मा को ज्यादा तरजीह नहीं दी. उन्होंने कहा कि जागृत अप दीपो भव:. मतलब अपना दीया खुद बनो और आपका जागरण ही,आरपको ईश्वर बना देता है. हर किसी इंसान के अंदर ईश्वर बनने की क्षमता है, लेकिन हम मूर्छा में जीते हैं, इसलिए उस रास्ते पर हम जा ही नहीं पाते हैं. वह यात्रा हम शुरू ही नहीं कर पाते हैं.”

उन्होंने कहा, बात आध्यात्मिक सशक्तीकरण की हो रही है, तो आध्यात्मिक सशक्तीकरण हमारे जागृत अवस्था से आएगा. हमारे संतुलन साधने से आएगा. हमारे अंदर थोड़ा जो इलेक्ट्रॉन का गुण है, या जो थोड़ा विष्णु का गुण है, कहते हैं कि परमात्मा को पाने के लिए स्वयं को भी थोड़ा परमात्मा बनना पड़ता है. जैसे दूध को दही बनाने के लिए पहले उसमें थोड़ा दही मिलाना पड़ता है. फिर वह गर्म दूध दही बन जाता है, तो अगर हम अपने जीवन में कोई यात्रा शुरू करना चाहते हैं, तो हमें थोड़ा जागृत अवस्था में रहकर आगे बढ़ने की बेहद जरूरत है. अगरहम ऐसा नहीं कर पाते हैं, तो निश्चित ही अपना पूरा जीवन मूर्छा में गुजार देते हैं. आध्यात्मिकता से स्वच्छ और स्वस्थ समाज की रचना कैसे होती है?इसपर भी बात करेंगे, अब एक नई बहस ये चल पड़ी है कि हमारे दिमाग को कौन क्षमता देता है कि हम सोचें, सवाल हल करें. कन हमें बताता है कि हमें क्या करना चाहिए, और कैसे करना चाहिए?

तो नई बहस इसलिए शुरू हुई है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए जो नए-नए रोबोट्स बन रहे हैं, वह हमारे-आप जैसे लोगों से ज्यादा तेजी के साथ गणित के सवालों को हल कर देते हैं. फिर उनको सोचने की शक्ति कौन देता है? वह कैसे सोचते हैं? इसलिए एक नई बहस ये चल पड़ी है कि आदमी इस काम के लिए ऐसा क्यों सोचता है कि कोई विशेष शक्ति है, जो हममें सोच पैदा कर रही है. तो उस विशेष शक्ति से हजारों गुना ज्यादा तेजी से रोबोट सोच ले रहा है. अभी मैं पुणे लिटरेचर फेस्टिवल में गया था, वहां पर मीडिया और AI के ऊपर मुझे बात करना था, तो मैंने वहां पर एआई के कुछ उदाहरण दिए, ली शिडोल, विश्व चैंपियन थे शतरंज के.

रोबोट ने 10 बार हराया

उन्हें जब AI रोबोट से शतरंज खिलवाया गया, तो रोबोट ने उन्हें कुछ ही देर में हरा दिया. उन्हें करीब 10 बार उस रोबोट ने हराया. तब वहां पर मौजूद सभी लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि जो आदमी वर्षों तक विश्व चैंपियन रहा, एक मशीन उसको हरा गई. जब उसी मशीन से पूछा गया कि कैसे हरा दिया, तो उसने पूरी ईमानदारी से बताया कि ली शिडोल ने जह पहली बार शतरंज खेला था, तो उनका डिजिटल फुटप्रिंट इनका इंटरनेट की दुनिया में मौजूद था, उसे देखा, इसके साथ ही इन्होंने जितनी बार जीवन में खेला, उन सब खेलों को मैंने देख लिया. बाद में मैंने इनके तरीके को पड़ लिया कि यह खेलते कैसे हैं. मैंने अपनी स्पीड इनसे ज्यादा तेज कर दी, इसलिए एक नई बहस शुरू हो गई कि चार्वाक जैसे ऋषि और बुद्ध पृथ्वी पर सदेह उतरे, ईश्वर ने कहा, तुम अपने ईश्वर भी हो, तुम अपने शत्रु भी हो, तुम्हारे अंदर सारी संभावनाएं मौजूद हैं. यह तुम्हारे जागने और सोचने पर निर्भर करता है. अब मशीन द्वारा बनाई गई मशीन, इंसानों से अच्छा परफॉर्म कर रही है.

एलन मस्क ने सेक्रेटरी को नौकरी से हटाया

वहां पर मैंने एक और उदाहरण दिया था कि काफी लंबे समय से एलन मस्क की सेक्रेटरी रही महिला ने जब शादी करने के लिए दो दिन की छुट्टी मांगी तो उन्होंने कहा कि दो दिन क्यों, तुम सात दिन की छुट्टी ले लो. सात दिन बाद जब वह शादी करके वापस लौटी तो एलन मस्क ने कहा कि जो मेरी रोबोट सेक्रेटरी है आलिया, उसने सात दिनों में इतना कमाल किया कि मुझे सात दिनों में तुम्हारी अंक बार भी जरूरत नहीं पड़ी. इसलिए तुम 10 गुना Compansation ले लो और नौकरी छोड़ दो. इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि चीजें बदल रही हैं, इसस बदलते समय में चुनौतियां और ज्यादा बढ़ रही हैं. हां, ये जरूर है कि विज्ञान अभी इस बात के लिए सक्षम नहीं हो पाया है कि जो खाना हम खाते हैं, वह किस मैकेनिज्म के तहत खून बनकर रगो में दौड़ने लगता है. एन्जाइम और प्लाज्मा बनकर दौड़ने लगता है.

अभी तक रोबोट भी नहीं पता लगा पाया कि क्यों दुनिया के 800 करोड़ लोगों में से किसी एक का भी बायोमीट्रिक मैच नहीं करता है. तो शायद कुछ ऐसी बातें हैं भी, जो मुझे लगता है कि वैज्ञानिक अभी उन रहस्यों को डिकोड करने में सक्षम नहीं पाए हैं, लेकिन एक धारणा ने हिंदुस्तान का बहुत नुकसान किया, इतना नुकसान कि हिरोशिमा और नागासाकी पर गिरा बम भी उतना नुकसान नहीं हुआ होगा. या फिर महाभारत के युद्ध में भी इतना नुकसान नहीं हुआ. औऱ वह यह धारणा है कि हम कभी बहुत बड़े वैज्ञानिक समाज थे, लेकिन समय के साथ हम इतने अवैज्ञानिक होते चले गए, इतने मूढ़ होते चले गए कि हमने धर्म, धार्मिकता और आध्यात्मिकता, इन तीनों को मैं बहुत बड़ा मानता हूं, मैं वैज्ञानिक विचार को इन तीनों के सामने बहुत छोटा मानता हूं.हमने इन विचारों को तो छोड़ ही दिया,हमने वैज्ञानिक विचारों को भी छोड़ दिया. हमने वैज्ञानिकता को भी अपनाना छोड़ दिया, और हम लगातार तीन हजार सालों की गुलामी के कारण बहुत गहरी मानसिक गुलामी में घिरते चले गए. जो समाज बहुत ज्यादा सताया गया हो, दबाया गया हो, वहां पर धर्म, आध्यात्म, कला और संस्कृति, जो विकसित होती है, वह भी खो जाती है. जैसे हमारे समाज में खो गई.

भारत की तुलना किसी से नहीं हो सकती

बुद्ध और महावीर के वक्त आक्रांताओं का आक्रमण शुरू हुआ, और चंद्रगुप्त मौर्य, आचार्य चाणक्य से आप जोड़ लीजिए, सिकंदर से लेकर मोहम्मद बिन कासिम से लेकर, खिलजी से लेकर और गोरीऔऱ अंग्रेजों तक. अभी हमारी आजादी को सिर्फ 75 साल ही हुए हैं. लेकिन हम अपनी अतीत की विरासत को देखते हैं, तो हिंदुस्तान की विरासत में ऋषियों-मुनियों की वो परंपरा रही है, जिसकी तुलना विश्व की कोई धारा, कोई चमक या कोई आधुनिकता नहीं कर सकती है. अल्लामा इकबाल ने लिखा है कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा. वो कभी था,वो हस्ती कभी थी, अब वो हस्ती है नहीं, अब कुछ बचा नहीं है, उस तरह का. हम आज भी विश्व गुरु बनने की बात कर रहे हैं, यह बहुत अच्छी बात है और मैं इसको हर मंच से बोलता हूं कि इसका स्वागत होना चाहिए. लेकिन हमें विश्व गुरु बनने की बात क्यों करनी पड़ रही है. क्योंकि हम नहीं है, क्योंकि जो हम नहीं होते हैं, उसी की तरफ दौड़ते हैं. जो हमें नहीं मिलता है, वही हमें गहरे में आकर्षित करता है. जो हमें मिलता है, उसका आकर्षण पल भर में खो जाता है. शायद इसीलिए यह कहावत बनी कि दूर के ढोल सुहावने होते हैं.

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सिर्फ कबीर को मानता हूं- उपेन्द्र राय

इन बातों की जो मैं पृष्ठभूमि तैयार कर रहा हूं, उस लाइन का कहना यही है कि एक धारणा ने हिंदुस्तान का बहुत नुकसान किया है. वह धारणा ये थी कि रुपया-पैसा, पद-प्रतिष्ठा, संसार, यह सब मोह-माया है. मोह-माया कहने के लिए थोड़ा-बहुत होना भी जरूरी है. अगर 10 रुपये हो तब पता चलना चाहिए कि उसकी क्या व्यर्थता है और क्या सार्थकता है. इस पूरे धरा पर मैं एक ही आदमी को मानता हूं, जिस आदमी ने कोई कुल नहीं पाया, कोई खानदान नहीं पाया, मां नहीं पाई, बाप नहीं पाया, जमीन नहीं पाई, कोई पद नहीं पाया, लेकिन परम पद पा लिया, वो हैं कबीर. जो सड़क किनारे रामानंद को मिले. लेकिन बाकी और कोई ऐसा नहीं था, जिसके जीवन में ऐसा कुछ था. हमारे यहां के अधिकतर महापुरुष राजा-ममैं हाराजाओं के बच्चे थे, उन्होंने समझा और बुद्ध ने राजमहल छोड़ दिया. महावीर उस समय के सबसे अमीर आदमी के लड़के थे, अंबानी-अडानी से दस गुना ज्यादा अमीर थे, महावीर के पिता.

इन लोगों ने हमारे संसार से नाता तोड़ा, पशु-पक्षियों से नाता जोड़ा. उन्हें समझ में आ गया कि इस संसार में रहने वाले लोग बहुत क्षुद्र और व्यर्थतम हैं. हालांकि मैं मानता हूं कि ये मनुष्यता का बड़ा गहरा से गहरा अपमान है. लेकिन बुद्ध और महावीर ने ये साबित किया अपने जप-तप और उपलब्धियों से कि जहां वो रहते थे, वहां वो रहकर पाया नहीं जा सकता था. लेकिन यशोधरा और बुद्ध का संवाद भी एक अर्थों में बड़ा कीमती है. यशोधरा ने बुद्ध से दो-तीन सवाल पूछे. और शयद पहली बार बुद्ध मौन रहे, पूरे जीवन में. यशोधरा ने उनसे पूछा कि आप हमको और राहुल को सोते हुए छोड़कर चले गए. आपको मुझपर इतना भरोसा नहीं था कि आप संकल्प लेक मानवता के कल्याण के लिए जा रहे थे, तो मैं आपका रास्ता रोकती? क्या आपको पता नहीं है कि क्षत्राणी हूं और क्षत्राणियां अपने पतियों को तिलक लगाकर युद्ध में भेजती हैं. आपके जाते वक्त मुझे पता था कि शायद आप युद्ध में नहीं जा रहे हैं, मानवता के कल्याण के लिए ज्ञान प्राप्त करने के लिए जा रहे हैं. क्या इतना भी भरोसा मुझ पर नहीं था.

इस सवाल का जवाब बुद्ध नहीं दे पाए थे. उन्होंने दूसरा सवाल पूछा- अब तो आप सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बन गए हैं. अनेक सम्राट आपके चरणों में अपना मुकुट उतार कर रख चुके हैं. तो मुझे एक बात बता दीजिए कि जो आपने जंगल में जाकर 12 साल तक कठिन तपस्या करके प्राप्त किया,क्या वह महल या फिर बाजार में रहकर नहीं पाया जा सकता था. बुद्ध ने इसका उत्तर दिया. क्योंकि अगर इसका उत्तर नहीं देते तो शायद अन्याय होता. बुद्ध ने कहा कि बिल्कुल पाया जा सकता था. क्योंकि पाने के लिए महल और बाजार बाधा नहीं बन सकती है. पहले सवाल का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि शायद मुझे जलना ही था, तपाना ही था, मुझे ऐसा करना ही था क्योंकि शायद उस वक्त की मेरी यही समझ थी. इसलिए मुझे ये यात्रा करनी पड़ी. यह भी जरूर है कि जो मैंने जंगलों में रहकर पाया, वह महलों में रहकर भी पाया जा सकता है. जैसे कबीर ने संसार में रहकर ज्ञान पाया. संत एकनाथ ने भी संसार में रहकर अपनी दिनचर्या करते हुए ज्ञान पाया. गुरु रामदास ने भी ऐसे ही ज्ञान पाया.

हमारे यहां सप्तऋषियों की परंपरा है, सभी ऋषि गृहस्थ जीवन वाले थे. तो स्वस्थ और स्वच्छ समाज के लिए आध्यात्मिक सशक्तिकरण इसलिए जरूरी है क्योंकि जीवन में संतुलन सिर्फ आध्यात्म ही दे सकता है. और आध्यात्म के कारण जो संतुलन आता है, फिर वह समाज, जो कभी हम रामराज्य की बात करते हैं, शायद वैसा समाज इस पृथ्वी पर पहले था, लेकिन बाद में वो कला वो कीमिया, सारी चीजें खो गईं. लेकिन अगर हमें उन चीजों की याद आ रही है, तो यह बड़ी गहरी संभावना पनप रही है, कि शायद हमें उन बातों की दिशा में एक कदम उठाने की जरूरत है . अगर कोई याद आए तो समझिए, रास्ता वहीं से शुरू हो जाता है. जैसे कहा जाता है कि अच्छा क्या है बुरा क्या है? तो गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई.

CMD Upendra Rai

उसी तरह से भगवान गणेश की परीक्षा लेते हुए शंकर जी ने उनसे पूछा कि पाप और पुण्य की व्याख्या करो. तो भगवान गणेश ने कहा कि परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नहीं है और बेवजह किसी को तकलीफ देने से बड़ा कोई पाप नहीं है. कुल मिलाकर हमारे ऋषियों ने समाज के पथ-प्रदर्शकों ने सबकुछ बना के दिया, एकदम रेडीमेड. लेकिन हम इतने स्वार्थी और आलसी है कि कुछ करना नहीं चाहते हैं. खोजने वालों ने सबकुछ बनाकर दे दिया है, जैसे परीक्षा के लिए मां-बाप किताब दे देते हैं या फिर हम खरीद लाते हैं, फिर भी परीक्षा में फेल हो जाते हैं, या फिर थर्ड डिवीजन का नंबर लेकर आते हैं. ठीक वैसे ही, इसकी कोई परीक्षा नहीं होती है, इसी को दूसरे शब्दों में शायद इंसानियत कहते हैं. दूसरे शब्दों में आध्यात्म कहा जाता है. या यूं कहें कि परोपकार कहा जाता है. या फिर आपका कोई ऐसा काम, जो दूसरे के जीवन में खुशी उतारे, आपके किए किसी काम से किसी के चेहरे पर मुस्कान आ जाए, आपके किए किसी की समस्या हल हो जाए, आपके किसी किए काम से आपका दुश्मन भी खुश हो जाए, और आकर आपको गले लगा ले, उसी को असली आध्यात्मिकता और असली धर्म यही है. अपने 28 साल के सार्वजनिक जीवन में इतनी बात समझी है.जब 1997 में मैं ग्रेजुएशन में था, मैं तब से काम कर रहा हूं, लोगों के बीच में हूं.

प्रेस शब्द कब आया?

सीएमडी उपेन्द्र राय ने बताया कि अब बात आती है कि मीडिया की भूमिका, तो पहले यह समझ लेना चाहिए कि विधायिका,न्यायपालिका और कार्यपालिका पहले से थीं. दुनिया के अन्य देशों, अमेरिका-ब्रिटेन में थे. इंदौर के एक आयोजन में मैंने बोला था कि प्रेस शब्द पैदा कहां से हुआ था? अस्तित्व में कब आया ये शब्द? ये चौथा खंभा लोकतंत्र का. यह 1787 में आया, जब ब्रिटेन के पार्लियामेंटेरियन और विचारक एडमंड बर्ग ने अपने एक भाषण में कहा कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका के ऊपर आंख रखने के लिए एक आंख होनी चाहिए, वो होनी चाहिए प्रेस. तब ब्रिटेन का राज पूरी दुनिया में था. जब ये बात ब्रिटेन के पार्लियामेंट से उठी तो पूरी दुनिया में फैल गई. और लोकतंत्र का चौथा खंभा बना लिया.

इसके बाद प्रेस शब्द अस्तित्व में आया. जिसके बाद से अब तक ये चीजें हमारे जेहन में हैं, लेकिन एक बात आपको बताना चाहूंगा कि भले ही मैं एक मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़ा हूं, एक चैनल को मैं संचालित कर रहा हूं. लेकिन मैं बहुत साफ शब्दों में कहना चाहूंगा कि आने वाले दिनों में डिजिटल मीडिया का ही भविष्य है. सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया जो समाज के निर्माण में योगदान देता है, वह बहुत अभूतपूर्व है.

कुछ उदाहरण दे रहा हूं- मई 2023 में मणिपुर की उस घटना को मेनस्ट्रीम मीडिया ने नहीं दिखाया, जिसमें दो बहनों को नग्न करके घुमाया गया था. फिर किसी ने फेसबुक पर इस वीडियो को पोस्ट किया और पूरे देश में फैल गई. संसद से लेकर सड़क तक, सुप्रीम कोर्ट तक. जो उस छोटे से क्लिप ने जागरण पैदा किया, वह बड़ा अद्भुत था, कमाल का था, और उससे परिवर्तन देखने को मिला.

खबर से युद्ध जैसा संकट पैदा हो गया

दूसरा उदाहरण- पत्रकारिता के क्षेत्र में पुलित्जर पुरस्कार दिया जाता है, उस वक्त, जब पुलित्जर अपना अखबार निकालते थे, तो उनके सामने एक उनका कंपटीटर भी अखबार निकालता था. ये लोग जर्नलिज्म के लिए जो कहानियां छपीं, अमेरिका और क्यूबा में युद्ध जैसा संकट पैदा हो गया. पुलित्जर के प्रतिद्वंद्वी ने एक खबर छाप दी, कि क्यूबा के एक जहाज पर स्पेन ने हमला करके उसे डुबा दिया है. जबकि जहाज किसी और कारण से डूबा था, लेकिन उस अखबार ने खबर को ट्विस्ट के साथ छाप दिया.

तीसरा उदाहरण- जब वियतनाम और अमेरिका के बीच युद्ध चल रहा था, तब वाशिंगटन पोस्ट ने और वियतनाम के अखबारों ने एक कोआर्डिनेटेड फोटो छापी, जिसमें एक छोटी बच्ची थी, जिसके आधे कपड़े जले हुए थे, और चीखते हुए स़क पर दौड़ रही थी, वहीं वाशिंगटन पोस्ट ने छापा कि युद्ध की विभीषिका, यह लड़ाई कब रुकेगी. इस एक फोटो ने अमेरिका के लोगों में ऐसी चेतना पैदा कर दी कि अमेरिकी लोग ही अपनी सरकार के खिलाफ हो गए, जिसके बाद अमेरिका को यह लड़ाई रोकनी पड़ी.

इसलिए इन तीनों उदाहरणों से मैं कहना चाहूंगा कि मेनस्ट्रीम मीडिया एक मिशन के साथ शुरू हुआ, जब नवजीवन, यंग इंडिया, इंडियन ओपिनियन, हरिजन अखबार का प्रकाशन शुरू हुआ, एक मिशन था, आजादी प्राप्त करना का. आज मेनस्ट्रीम मीडिया की जो भूमिका है, डिजिटल मीडिया की भूमिका मैं उससे ऊपर रखता हूं, आज यहां पर हर आदमी के हाथ में सोशल मीडिया ने एक ताकत दी है. सीधे अपनी बात दुनिया तक पहुंचा सकते हैं. मेनस्ट्रीम मीडिया अपने दायित्व को निभाने में फेल हो रहा है. इसलिए मैं मानता हूं कि सोशल मीडिया अपना दायित्व बहुत अच्छे से निभा रहा है. ये एक जनजागरण है, अभियान लेकर आया है. हम कहीं भी बैठकर किसी भी रूप में अपनी बात को सीधे, पूरी दुनिया के सामने रख सकते हैं. उसके लिए हमें किसी से पूछने की जरूरत नहीं है.

“मेनस्ट्रीम मीडिया को अपना स्वरूप बदलना पड़ेगा”

मेरा विजन है कि आने वाले दिनों में जितने भी ये बड़े-बड़े न्यूजरूम है, डिजिटल मीडिया के लिए प्रोडक्शन हाउस का काम करेंगे. आगे आने वाले समय में मेनस्ट्रीम मीडिया को अपना स्वरूप बदलना पड़ेगा. सोशल मीडिया की तरह सकारात्मक और कंस्ट्रक्टिव योगदान अगर मेनस्ट्रीम मीडिया ने नहीं दिया तो मुझे लगता है कि मेनस्ट्रीम मीडिया को सोशल मीडिया स्ट्रीम में मर्ज हो जाना पड़ेगा. स्वस्थ समाज और समाज की रक्षा के लिए उन शक्तियों पर जो समाज के ऊपर नियंत्रण रखते हैं,उनपर भी आंख रखने के लिए मीडिया की बड़ी गहरी भूमिका है. मीडिया एक कम्यूनिकेटर है, जो आपके बीच, सरकार के बीच और तमाम संस्थाओं के बीच सशक्त तरीके से रखता है. मीडिया की भूमिका हमेशा से थी, आज भी और आगे भी रहेगी.लेकिन तकनीक जब-जब आती है, तब आदमी को अपना रूप-प्रारूप बदलना पड़ता है. आज चैटजीपीटी और AI का जमाना है. चैटजीपीटी से एक आदमी सौ आदमी के बराबर काम कर सकता है. एक तरफ 75 करोड़ लोगों की नौकरी जा रही है, लेकिन अच्छी बात ये है कि AI आने से 97 करोड़ लोगों को नौकरी मिल रही है.

-भारत एक्सप्रेस



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