भारतीय ज्ञान परंपरा और शिक्षा प्रणाली जीवन के भौतिक, आध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों पर केन्द्रित है। शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को विषय संबन्धित ज्ञान में पारंगत करना मात्र नहीं है अपितु उनकी नैसर्गिक प्रतिभा को सही दिशा देना है। हमारी शिक्षा प्रणाली ने सदैव छात्रों के शारीरिक, मानसिक और आध्यत्मिक विकास पर ज़ोर दिया है परंतु हाल ही में राजस्थान के कोटा शहर में इंजीनियरिंग और मेडिकल की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्रों की आत्महत्या के लगातार बढ़ते मामलों ने झकझोर कर रख दिया है तथा हमारे आज के शिक्षित और 21 वीं सदी के समाज को एक बार फिर से कटघरे में खड़ा कर दिया है, जिसके अंतर्गत अभिभावक, शिक्षक गण, शिक्षण संस्थान और ऐसी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराने वाले कोचिंग भी शामिल है।
भारत विश्व में सबसे अधिक युवा शक्ति वाला देश बनकर उभरा है। ऐसे में यह अत्यंत पीड़ादायक है की हमारे युवाओं के मन इतने अस्थिर हो चुके हैं और उनकी मनोदशा इतनी जीर्ण हो चुकी है की वे आज आत्महत्या को सबसे सुगम मार्ग समझने की भूल कर रहे हैं। प्राचीन काल से ही समूचा विश्व भारत की ज्ञान परंपरा से आलोकित होता आया है परंतु आज 21 वीं सदी के भारत में इतने समृद्ध ज्ञान और परंपरा की विरासत के बावजूद स्वयं हमारे लिए एक चुनौती खड़ी हो गयी है। प्रश्न यह उठता है की हम किस प्रकार की शिक्षा अपनी भावी पीढ़ी को दे रहे हैं और हम किस लक्ष्य की पूर्ति हेतु उन्हें तैयार कर रहे हैं।
विगत कुछ वर्षों में इंजीनियरिंग और मेडिकल संबंधी विषयों के प्रति लोगों का आकर्षण खूब बढ़ा है। या यूं कहें की विज्ञान विषयों के अध्ययन करने वाले छात्रों को हम प्रबुद्ध मान लेते हैं और अब ये आम धारणा बन चुकी है की इंजीनियरिंग और मेडिकल के इतर जो भी छात्र कुछ कर रहे हैं वो या तो अपने जीवन में कुछ करना नहीं चाहते या वे प्रतिभावान नहीं है। ये हमारे समाज की विडम्बना है की जिस प्रकार फर्राटेदार अङ्ग्रेज़ी बोलने वाले व्यक्ति को हम मान लेते हैं की अमुक व्यक्ति अत्यंत प्रबुद्ध और प्रतिभाशाली है, उसी प्रकार विज्ञान विषयों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक दृष्टिकोण के धनी होते हैं, तार्किक होते हैं और समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। इस प्रकार की मानसिकता किसी भी रूप से परिपक्व प्रतीत नहीं होती।
प्रतिवर्ष हजारों लाखों छात्र बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करके अपनी आँखों में हजारों ख़्वाब सजाए पूर्ण मनोबल से तैयारी में जुट जाते हैं। कड़ी मेहनत के उपरांत कुछ छात्र अपनी पसंद के कोर्स में प्रवेश भी प्राप्त करते हैं परंतु जो छात्र किसी कारण वश सफल नहीं हो सके उन पर अभिभावकों द्वारा तरह तरह से प्रताड़ित किए जाने की घटनाएँ आम होती जा रही हैं। इंजीनियरिंग और मेडिकल में प्रवेश प्राप्त करना बच्चों से ज्यादा उनके माता पिता के लिए एक महत्वपूर्ण प्राथमिकता बन गयी है। विडम्बना ये है की मात्र ऐसी परीक्षाओं को एक बड़ी उपलब्धि के रूप में लेना शुरू कर दिया हैऔर आडंबर के रूप में अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक बना लिया है। इस पर तुर्रा ये की अपने बच्चों को माता पिता असफल होने पर तरह तरह की दलीलें देते हैं जैसे हमने तुम्हारी पढ़ाई के लिए लाखों खर्च कर दिये और तुमसे एक परीक्षा पास नहीं हो सकी।
ज़रा गौर करें तो हम समझ सकेंगे की इस प्रकार के प्रकरणों में बच्चों की क्या गलती है। माता पिता ताउम्र अपने बच्चे के मानसिक स्तर, उनकी अभिरूचि, उनके अकादमिक रुझान को समझने में पूरी तरह से असफल हो जाते हैं। पहले दसवीं कक्षा तक अपने बच्चों को बोर्ड की परीक्षाओं में अच्छे अंक लाने के लिए मानसिक दबाव बनाते रहते हैं। फिर जैसे तैसे अंक आने पर केवल और केवल विज्ञान परक विषयों में ही ग्यारहवीं कक्षा में प्रवेश लेने के लिए बाध्य करते हैं और साथ ही किसी महंगे कोचिंग सस्थान में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए झोंक देते हैं। क्या माता पिता अपने बच्चों की रूचि को जानना जरूरी नहीं समझ रहे, क्या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा की हवस इतनी हावी हो जा रही है जो आज बच्चों को आत्महत्या जैसा कदम उठाने को मजबूर कर रही है। मात्र 16-18 वर्ष की कम आयु के बच्चों पर इतना मानसिक दबाव बनाना उचित है।
मनोवैज्ञानिक ऐसे कई अध्ययनों के उपरांत इन निष्कर्षो को साबित कर चुके हैं की अपनी रूचि के अनुसार किए गए कार्यों से भविष्य की योजनाएं बनाना सुगम हो जाता है। हाँ, माता-पिता और शिक्षकों के सही मार्ग दर्शन में ये छात्र न जाने किन किन पड़ावों को पार कर जाएँ और अपने जीवन में उपलब्धियों को हासिल कर लें। क्यों फिर हम इनकी मुक्त उड़ान में बाधा डाल रहे हैं। अभिभावक और शिक्षकों को बच्चों से लगातार बात करके उन्हें उचित परामर्श देना चाहिए की वे किस दिशा में मेहनत करें क्योंकि कड़ी मेहनत का कोई विकल्प नहीं है। उन्हें निरंतर प्रयासरत रहने के लिए प्रेरित करना माता पिता और शिक्षकों का नैतिक कर्तव्य है। आज भारत सरकार के अंतर्गत शिक्षा मंत्रालय द्वारा ऐसे बहुत से प्रयास किए जा रहे हैं जो बच्चों के भीतर परीक्षा को लेकर पनपने वाले डर से उन्हें मुक्त कर सके। उन्हें एक सजग, सहज, स्वस्थ नागरिक के रूप में तैयार करने के लिए पाठ्यक्रमों का लगातार स्तरोन्नयन किया जा रहा है।
रोजगार मेले और कैंपों के माध्यम से भविष्य में मौजूद संभावनाओं से अवगत कराने के लिए बड़े बड़े आयोजन किए जा रहे हैं। स्वयं माननीय प्रधान मंत्री जी संचार के विभिन्न माध्यमों और मन की बात के जरिये बार बार देश के विभिन्न हिस्सों में छात्रों से संपर्क स्थापित कर रहे हैं। परंतु ये सभी प्रयास विफल हैं यदि सफलता का वास्तविक अर्थ माता पिता नहीं समझेंगे की जीवन रूपी साधन परम धन है और सफलता का पैमाना आत्म संतोष है। कड़ी मेहनत, लगन और प्रयास के माध्यम से अन्य क्षेत्रों में भी स्वयं को स्थापित किया जा सकता है। माता पिता और शिक्षकों द्वारा नव युवाओं के साथ परस्पर संवाद शायद हमें किसी और छात्र की आत्म हत्या की खबर को सुनने से बचा ले।
डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, संपादक,
राज्य सभा सचिवालय
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