प्रशांत किशोर. (फाइल फोटो: IANS)
बिहार की राजनीति में काफी समय से एक विकल्प की तलाश हो रही थी… जिसे पहले रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर ने नई पार्टी की आगाज के साथ कर दी है. इसके लिए प्रशांत किशोर करीब दो साल से बिहार की जमीन पर उतर कर लोगों के बीच एक सामंजस्य बिठाने की कवायद में जुटे थे. अब अपनी नई पार्टी जन सुराज पार्टी की घोषणा कर बिहार को एक विकल्प देने की कोशिश की है, लेकिन क्या ये बिहार की जनता को सही में कोई विकल्प दे पाएंगे? क्या बिहार में रोजगार के अवसर मिलेंगे? क्या अपराध और अपराधियों पर लगाम लगा पाएंगे?
नीतीश कुमार की छवि
आज के दौर में आरजेडी, जेडीयू, बीजेपी और कांग्रेस ये चार पार्टियां पहले से ही बिहार में या तो अपने वजूद को बचाने या फिर वजूद को स्थापित करने में जुटी हैं. नीतीश कुमार हमेशा मौके की ताक में रहते हैं. वो पिछले 19 साल से कभी बीजेपी, तो कभी आरजेडी की बैशाखी के सहारे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं. ऐसे में जनता के बीच उनकी छवि धूमिल हुई है.
बदलाव की बयार
बिहार की राजनीति को समझने के लिए चलते हैं अब से 35 साल पहले. बात 1989 की, तब केंद्र से लेकर बिहार तक बदलाव की बयार बह रही थी. विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल का उदय हो चुका था. चंद्रशेखर, मुलायम सिंह यादव, चौधरी देवीलाल, चौधरी अजीत सिंह समेत तमाम दिग्गज नेता एक मंच पर थे. 1989 के आम चुनाव में जनता दल ने कांग्रेस को काफी हद तक शिकस्त दी. केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ और जनता दल के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने.
1990 के विधानसभा चुनाव
अब चलते हैं बिहार… आम चुनाव के कुछ ही महीने बाद 1990 में बिहार विधानसभा चुनाव हुए. कांग्रेस के प्रति लोगों में गुस्सा था. राज्य में अपराध, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा था. नतीजा ये हुआ कि सत्ता विरोधी लहर कांग्रेस पर भारी पड़ी और राज्य में भी कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया. बिहार में जनता दल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. राज्य में जनता दल की सरकार बनी और मुख्यमंत्री की गद्दी पर आसीन हुए लालू प्रसाद यादव.
बिहार ने जंगलराज देखा
जेपी आंदोलन से राजनीति में आए लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय के मसीहा बनकर उभरे, लेकिन बिहार भ्रष्टाचार से लेकर अपराध और बेरोजगारी के मामले में सुर्खियों में रहा. अगले 15 वर्ष बिहार ने जंगलराज देखा. लोगों में भय और असुरक्षा की भावना ने जड़ें जमा लीं. जहां जनता कांग्रेस के कुशासन से आजाद होकर बेहतर शासन और सुरक्षित बिहार का सपना संजोए थी, वहीं लालू प्रसाद के राज ने उन्हें कुव्यवस्था के दलदल में ढकेल दिया. लालू सरकार के दौर में बिहार से सबसे ज्यादा पलायन दूसरे राज्यों समेत खाड़ी देशों में होने लगा.
नए नायक की तलाश
ऐसे में एक बार फिर बिहार की जनता इस दलदल से निकलने को बेताब दिख रही थी. अपनी हिफाजत और रोजगार के लिए एक नए नायक की तलाश में नजरें बिछाए बैठी थी. इस दौरान 2005 में बिहार विधानसभा के चुनाव हुए. इस चुनाव में जेडीयू और बीजेपी ने गठबंधन में चुनाव लड़ा. इस गठबंधन को बहुमत तो नहीं मिला, लेकिन संख्या बल के लिहाज से सबसे बड़ा गठबंधन बना. नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार में सरकार बनी, लेकिन ये सरकार ज्यादा दिन नहीं चल पाई. बिहार को मध्यावधि चुनाव देखना पड़ा.
सुशासन बाबू की पहचान
कुछ ही महीने बाद हुए मध्यावधि चुनाव में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन ने बहुमत हासिल किया और एक बार फिर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की गद्दी पर बैठे. 2005 में जब नीतीश कुमार सत्ता में आए, तो उन्होंने सुशासन बाबू के रूप में अपनी पहचान बनाई, लेकिन जब वो आरजेडी के साथ मिलकर सत्तानशीं हुए, तो फिर बिहार में सुशासन का अंत होने लगा. अपराधी सिर उठाने लगे और बिहार में अपराध का बोल-बाला होने लगा.
असुरक्षा और भय का माहौल
हालांकि बाद में आरजेडी और तेजस्वी यादव से नीतीश का मोह भंग हुआ और वो एक बार फिर बीजेपी के पाले में आ गिरे. बिहार के मुख्यमंत्री की गद्दी पर नीतीश कुमार बैठ तो गए, लेकिन 2005 से 2010 के बीच की अपनी सुशासन बाबू वाली छवि को वापस नहीं पा सके. राज्य में में अपराधियों का वर्चस्व बढ़ने लगा. बेरोजगारी ज्यों की त्यों बरकरार है. आज फिर बिहार में असुरक्षा और भय का माहौल कायम है. तो वहीं नीतीश की शराबबंदी की नीति से भले ही कुछ लोग खुश हों, लेकिन शराब की उपलब्धता आज भी बिहार में कम नहीं है.
शराब की फ्री होम डिलीवरी
नीतीश की शराबबंदी नीति से एक ओर जहां राज्य को राजस्व का भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर शराब तस्करों की बाढ़ सी आ गई. बिहार के सरकारी आंकड़े में भले ही शराबबंदी हो, लेकिन जहां भी चाहिए शराब की फ्री होम डिलीवरी हो रही है. सरकारी आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक आज बिहार में शराब की खपत जब शराब मिलती थी, उससे कई गुना है. जो तस्करी से लेकर अपराध तक को बढ़ावा दे रही है.
उम्मीद की नई किरण
अब ऐसे में बिहार के युवाओं की निगाहें प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी की ओर उठना लाजमी है. आज की बिहार की ज्यादातर युवा आबादी 21वीं सदी के पहले दो दशक की है, जो लालू प्रसाद यादव के जंगल राज की कहानी सुनकर बड़ी हुई है. इस आबादी ने सुशासन बाबू के राज की झलक देखी है. लेकिन आज के नीतीश राज और लालू राज में कोई ज्यादा फर्क नहीं दिखता. इस लिहाज से देखा जाए, तो प्रशांत किशोर आज के युवा बिहार के लिए उम्मीद की एक नई किरण लेकर सामने आए हैं.
शराबबंदी खत्म करने की बात
प्रशांत किशोर कह रहे हैं कि वो बिहार में शराबबंदी को खत्म कर देंगे. उससे मिलने वाले राजस्व को शिक्षा पर खर्च करेंगे. भय और भ्रष्टाचार मुक्त बिहार का भी नारा दे रहे हैं. शिक्षा और रोजगार की बात कर प्रशांत किशोर 2000 के दशक में पैदा हुई पीढ़ी को काफी हद तक आकर्षित कर सकते हैं. करीब ढाई दशक के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरा बिहार उन पर भरोसा करे, तो उन्हें सफलता मिल सकती है. हालांकि उन्हें भ्रष्टाचार, भय और बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर बेहद संजीदा ढंग से काम करने की जरूरत होगी, क्योंकि आजादी के बाद से लगातार ठगी जा रही बिहार की जनता उन पर भरोसा नहीं कर पाएगी.
राजनीतिक महत्वाकांक्षा
प्रशांत किशोर की राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी कम नहीं रही है. राजनीतिक गलियारे में उनकी पहुंच बड़े-बड़े नेताओं तक रही है. समय-समय पर प्रशांत किशोर देश की तमाम पार्टियों के रणनीतिकार रहे हैं. सबसे बड़ी बात तो ये है कि प्रशांत किशोर नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू से भी जुड़े रहे हैं. प्रशांत जेडीयू में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रह चुके हैं, उस समय पार्टी में उनकी हैसियत नंबर दो की थी. उन्हें नीतीश कुमार के उत्तराधिकारी के रूप में भी देखा जा रहा था. और तो और जेडीयू और आरजेडी के बीच समझौता कराने और बिहार में तेजस्वी यादव के समर्थन से नीतीश कुमार की सरकार बनवाने में उनकी अहम भूमिका रही थी.
राजनीति में उतरने का फैसला
नीतीश कुमार से अनबन के बाद प्रशांत किशोर ने जेडीयू छोड़ दिया. उसके बाद वो कांग्रेस के साथ पिंगे बढ़ाते दिखे. राहुल गांधी और सोनिया गांधी से उनकी कई मुलाकातें भी हुईँ, लेकिन जब बात नहीं बनी, तो प्रशांत किशोर ने अलग रास्ता अख्तियार कर लिया.
उन्होंने अपने दम पर राजनीति में उतरने का फैसला किया और जन सुराज यात्रा निकाल कर बिहार के लोगों से जुड़ने की कोशिश में जुट गए. हालांकि जन सुराज पार्टी की स्थापना कर अब भी प्रशांत किशोर किंग मेकर की ही भूमिका में निभाना चाहते हैं. उन्होंने पार्टी के चेहरे के रूप में मनोज भारती को कार्यकारी अध्यक्ष बना कर सामने कर दिया है. ऐसे में जनता के सामने एक सवाल जरूर उठ रहा है कि सभी राजनीतिक दलों से करीबी रिश्ता रखने वाले प्रशांत किशोर अपनी राजनीतिक पारी को किस ढंग से खेलेंगे और बिहार की जनता के लिए क्या मिसाल पेश करेंगे?
-भारत एक्सप्रेस