प्रियंका गांधी और राहुल गांधी (फोटो- @INCindia)
UP Politics: उत्तर प्रदेश में चुनाव दर चुनाव कांग्रेस कमजोर होती दिखाई पड़ रही है. पिछले लोकसभा चुनाव से लेकर विधानसभा और अब निकाय चुनाव का सफर तय कर चुके यूपी में कांग्रेस दिन पर दिन कमजोर होती दिखाई दे रही है. अब तो राजनीतिक हलकों में भी कांग्रेस की यूपी में कमजोर होती पकड़ पर चर्चा होने लगी है. प्रदेश में कांग्रेस की इस दुर्दशा को कांग्रेस के अंदर चल रही अंतरकलह और बिखरे प्रबंधन को बताया जा रहा है.
बीते विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी दल भाजपा की नीतियों के विरोध को हथकंडा बनाकर कांग्रेस कुछ हमलावर तो दिखी थी और जाति आधारित राजनीति के बल पर इस चुनाव में कई सीटें जीतने की दावा किया था लेकिन दावे सभी हवा हो गए थे तो वहीं निकाय चुनाव में भी जीत को लेकर बड़े दावे किए गए थे, लेकिन यहां कांग्रेस की हाल ऐसा हुआ कि कहीं खाता ही नहीं खुला तो कहीं जमानत ही जब्त हो गई. वहीं इस बार भी कांग्रेस महापौर की कुर्सी तक पहुंचने से चूक गई. फिलहाल इन सबकी वजह पार्टी के अंदर चल रही गुटबाजी और सशक्त मार्ग दर्शन की कमी को बताया जा रहा है.
जानकारों की माने तो पिछले लोकसभा व विधानसभा चुनावों के बाद अब निकाय चुनाव में जो हाल कांग्रेस का हुआ है, इसका असर आने वाले लोकसभा चुनाव-2024 में भी देखने को मिल सकता है और तब न जाने कांग्रेस का जनाधार और कितना कमजोर हो चुका होगा. विधानसभा चुनाव में यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी ने एक बार खूब भीड़ जुटा कर सारे राजनीतिक दलों को चिंता में जरूर डाल दिया था, लेकिन जब रिजल्ट सामने आया तो कांग्रेस जीरो पर ही खड़ी दिखाई दी. इस पर कांग्रेस के लिए अब मंथन करने का समय है.
विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद ही कांग्रेस ने अपना प्रदेश अध्यक्ष बदल दिया था और लल्लू को हटाकर बृजलाल खाबरी को आठ अक्टूबर, 2022 को जिम्मेदारी सौंपी थी, लेकिन निकाय चुनाव में उनका नेतृत्व भी कमाल नहीं दिखा सका. उनके साथ ही पार्टी ने प्रदेश को छह प्रांतों में बांटकर पहली बार प्रांतीय अध्यक्ष के रूप में नया प्रयोग भी किया था और जातीय समीकरणों के आधार पर अपने नेताओं को नई जिम्मेदारी सौंपी थी लेकिन सब ढाक के तीन पात ही साबित हुए.
इस तरह बांटी गई थी जिम्मेदारी
पूर्व मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पश्चिमी प्रांत, नकुल दुबे को अवध, अनिल यादव को बृज, वीरेन्द्र चौधरी को पूर्वांचल, योगेश दीक्षित को बुंदेलखंड व अजय राय को प्रयाग प्रांत का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था. इन सभी के लिए नगर निकाय चुनाव पहली परीक्षा थी और उनकी पारी की ये शुरूआत थी. जहां दूसरे दलों के लिए लोकसभा चुनाव-2024 से पहले निकाय चुनाव को भले ही सेमीफाइनल माना जा रहा हो लेकिन कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष व प्रांतीय अध्यक्षों के लिए अपना लोहा मनवाने के लिए यह पहला मौका था, जिसे उन्होंने गवां दिया है.
माना जा रहा है कि टिकटों के बंटवारे के दौरान ही जो अंतरकलह सामने आई थी, तभी मान लिया गया था कि निकाय चुनाव में पार्टी का क्या हाल होने वाला है. प्रदेश मुख्यालय में 15 अप्रैल को लखनऊ नगर निगम में कांग्रेस के 95 पार्षद उम्मीदवारों की प्रसारित सूची को लेकर भी विवाह सामने आया था. तमाम असंतुष्ट दावेदार पार्टी मुख्यालय पहुंच गए थे और इसका तीखा विरोध किया था. टिकटों के आवंटन को लेकर पदाधिकारियों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे और वायरल सूची की जांच तक हो गई थी.
मुख्यालय के साथ ही अन्य जिलों में भी आपसी मतभेद कांग्रेस में देखने को मिले. उम्मीदवारों के चयन को लेकर पार्टी में कलह जारी रही और नतीजा सबके सामने है तो वहीं मथुरा-वृंदावन में महापौर पद के लिए दो उम्मीदवारों की दावेदारी ने भी कांग्रेस की लुटिया डुबोई. पार्टी के सिंबल पर नामांकन करने वाले प्रदेश महामंत्री श्याम सुंदर उपाध्याय उर्फ बिट्टू की 18 अप्रैल को छह वर्षों के लिए पार्टी की सदस्यता समाप्त कर दी गई. क्योंकि इस सीट पर पार्टी ने दूसरे दल से आए पूर्व विधायक राज कुमार रावत को उम्मीदवार बनाया था.
आंकड़ों में देखें कमजोर होती कांग्रेस की तस्वीर
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी की उत्तर प्रदेश में दुर्दाशा की यह कहानी पुरानी है. 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के सभी 399 प्रत्याशियों को कुल मिलाकर 21,51,234 वोट मिले थे, जो कि कुल पड़े मतों का 2.33 प्रतिशत था. इससे पूर्व वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 114 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिन्हें कुल 54,16,540 वोट मिले थे. कांग्रेस के हिस्से 6.25 प्रतिशत वोट आए थे. तब कांग्रेस गठबंधन के साथ चुनाव मैदान में थी और फिर 2022 में अकेले दम किस्मत आजमाई थी. वोटों के प्रतिशत का अंतर उसकी घटती ताकत को खुद बयां करता है. वहीं 2017 के निकाय चुनाव में कांग्रेस को 10 प्रतिशत मत मिले थे और वह भाजपा, सपा व बसपा से काफी पीछे रही थी.
2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को दो सीटें मिली थीं और पार्टी का वोट प्रतिशत 7.53 रहा था. 2019 लोकसभा में कांग्रेस के हाथ एक जीत ही लगी थी. यह भी साफ है कि हर चुनाव में कांग्रेस अपने खोए जनाधार काे लौटाने की कोई कारगर जुगत लगाने में नाकाम रही है.
-भारत एक्सप्रेस