जोशीमठ संकट (घरों और अन्य इमारतों में दरारें)
हिमालय की जिंदगी काफी हद तक दो सीमाओं से परिभाषित की जा सकती है – एक तरफ कल्पनाओं से भी आगे जाकर मन हर लेने वाली मनमोहक सुंदरता और दूसरी तरफ बड़ी से बड़ी आशंका को पीछे छोड़ देने वाली भयंकर जानलेवा आपदा। मंदिरों का शहर जोशीमठ इन दिनों इस दूसरी वाली सीमा के कगार पर खड़ा दिख रहा है। जोशीमठ में जमीन तेजी से धंस रही है जिसके कारण मकान-दुकान, होटल और फुटपाथ, यहां तक कि यहां का ऐतिहासिक रोप-वे भी दरारों के दायरे में है और यह दायरा हर गुजरते दिन के साथ चौड़ा होता जा रहा है। अक्टूबर, 2021 में यहां कुछ घरों में पहली बार ये दरारें दिखाई दी थीं। केवल सवा साल में आज जोशीमठ के सभी नौ वार्डों में सात सौ से ज्यादा घरों के फर्श, छत और दीवारों में बड़ी या छोटी दरारें आ गई हैं। कई घरों में बीम तक उखड़ गए हैं। इसे देखते हुए प्रभावित परिवारों को अस्थायी रूप से सुरक्षित ठिकाना और मुआवजा जरूर दे दिया गया है लेकिन इसकी पर्याप्तता को लेकर खुद शासन-प्रशासन ही आश्वस्त नहीं है और इस पर आए दिन नई-नई सफाई दी जा रही है।
जोशीमठ में जिस खतरे को दशकों पहले भांप लिया गया था, उस पर अब जाकर देश भर में बहस हो रही है और कुछ सार्थक करने की बात सुनाई दे रही है। इसरो की सैटेलाइट तस्वीरें दिखा रही हैं कि केवल 12 दिनों में जोशीमठ 5.4 सेमी धंस गया है। अप्रैल और नवंबर 2022 के बीच भूमि का धंसना धीमा था लेकिन इस साल 27 दिसंबर, 2022 से 8 जनवरी के बीच जमीन धंसने की तीव्रता अचानक से बढ़ी। आखिर इसकी वजह क्या है? पर्यावरण विशेषज्ञ एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना को इसका जिम्मेदार बता रहे हैं। वर्ष 2009 में परियोजना की सुरंग में टनल बोरिंग मशीन फंसने से पानी का रिसाव हुआ। पानी के दबाव से चट्टानों में नई दरार बनी और पुरानी दरारें चौड़ी हो गईं। इसके कारण सुरंग के अंदर से बाहर की ओर भी पानी का रिसाव हुआ। फरवरी, 2021 के रैणी हादसे ने हालात और बिगाड़ दिए। सुरंग में मलबे समेत बेहिसाब पानी घुसने से चट्टानों में नई दरारें बनीं और पुरानी दरारें और चौड़ी हो गईं। विशेषज्ञ सुरंग निर्माण में नियंत्रित विस्फोट के दावों को भी खोखला बता रहे हैं।
संभव है कि तपोवन परियोजना का निर्माण जोशीमठ पर मंडरा रहे संकट के लिए जिम्मेदार हो लेकिन तब भी यह वजह तात्कालिक ही दिखती है। अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का ये सिलसिला दरअसल दशकों पुराना है। जोशीमठ का मसला अज्ञानता, उदासीनता और खराब नीतियों का एक ऐसा मेल है जिसमें अल्पकालिक मुनाफे के लालच में पहाड़ों की नाजुक जमीन और पारिस्थितिकी की मर्यादा का अविश्वसनीय रूप से उल्लंघन हुआ है। वो भी तब जब विशेषज्ञों ने संभावित खतरों के बारे में बार-बार चेताया लेकिन इन चेतावनियों पर कार्रवाई करने में सरकारों की विफलता ने आज संकट को उस भंवर के सामने ला खड़ा किया है जिसने अब जोशीमठ को बुरी तरह जकड़ लिया है।
इसके शुरुआती संकेत 1976 में ही मिलने शुरू हो गए थे जब गढ़वाल के तत्कालीन आयुक्त महेश चंद्र मिश्रा के नेतृत्व में हुए एक सरकारी अध्ययन ने चेतावनी दी थी कि जोशीमठ किसी बस्ती के लिए उपयुक्त नहीं है क्योंकि एक तो यह मोरेन यानी ग्लेशियर से आए मलबे पर बसा है। दूसरा पर्याप्त जल निकासी सुविधाओं की कमी के कारण वहां लगातार भूस्खलन हो रहा था। इस अध्ययन में समूचे क्षेत्र में भारी निर्माण कार्य पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश थी। फिर साल 2001 में एनआरएसए सहित देश के लगभग 12 प्रमुख वैज्ञानिक संगठनों ने भी जीआईएस तकनीक से तैयार अपनी जोनेशन मैपिंग रिपोर्ट में इस बारे में चेताया। मिश्रा कमेटी और एनआरएसए की रिपोर्ट में जोशीमठ जैसे शहरों और उनके निवासियों को बचाने के लिए अपनाए जाने वाले सुरक्षा उपायों के बारे में पर्याप्त सुझाव हैं लेकिन लगता नहीं कि इन पर ध्यान दिया गया।
पिछले 20 वर्षों में जोशीमठ पर दो दर्जन से अधिक अध्ययन किए गए हैं और हर रिपोर्ट में मानव गतिविधि को लेकर अलर्ट मिलता है। लगभग हर रिपोर्ट में बहुमंजिला इमारतों, बड़ी बिजली परियोजनाओं और सुरंगों के निर्माण और भारी मशीनों के उपयोग पर तत्काल प्रतिबंध लगाने का सुझाव मिलता है। इसके साथ ही जोशीमठ में दशकों से खेती के लिए जमीन के नीचे से बहुत सारा पानी बाहर निकाला गया है, जिससे रेत और पत्थर नाजुक हो गए हैं और मिट्टी लगातार अपनी जगह छोड़ रही है। जोशीमठ बद्रीनाथ धाम और हेमकुंड साहिब जैसे तीर्थ स्थलों का प्रवेश द्वार भी है। इसलिए जोशीमठ की आबादी भले केवल 23 हजार की हो लेकिन यहां सैकड़ों हजार तीर्थयात्रियों और पर्यटकों की लगातार आवाजाही बनी रहती है जिनके लिए एक बड़े बाजार समेत होटल, रिजॉर्ट्स, भोजनालयों की भरमार हो गई है। इससे जोशीमठ में एक तरह का जनसंख्या विस्फोट हो गया है। कनेक्टिविटी में सुधार के लिए पक्की सड़कों का जाल और बुनियादी ढांचे का चौतरफा निर्माण भले ही पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के लिए सुविधाजनक हो लेकिन जोशीमठ की सेहत के लिए तो नुकसानदेह ही है।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग का एक नया वीडियो बताता है कि खतरा केवल जोशीमठ तक ही नहीं सिमटा है बल्कि पूरी घाटी में फैल चुका है। जोशीमठ से 82 किलोमीटर दूर कर्णप्रयाग में सड़कों और घरों की दीवारों में दशकों पुरानी दरारें बड़ी होने लगी हैं। टिहरी जिले में बांध प्रभावित भिलंगना और भागीरथी क्षेत्र के 16 गांवों के साथ-साथ ऋषिकेश-गंगोत्री हाईवे पर बनी सुरंग के ऊपर भू-धंसाव से मठियाण गांव के कई मकानों में दरारें पड़ने से वो रहने लायक नहीं रहे। रूद्रप्रयाग जिले में गुप्तकाशी के पास सेमी भैसारी गांव पूरी तरह भू-धंसाव की चपेट में है। ये हालात लंबे समय से हैं लेकिन लगता है हर जगह जोशीमठ जैसे हालात बनने का इंतजार हो रहा है।
वेद-शास्त्रों में पर्वत, नदी एवं वन को भू-धन कहा गया है जो पृथ्वी के संतुलन को बनाए रखते हैं। लेकिन दुनिया में हर जगह प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट हो रही है और जहां-जहां ऐसा हो रहा है वहां प्रकृति का प्रकोप भी अलग-अलग रूप में सामने आ रहा है। यूएस जियोलॉजिकल सर्वे के अनुसार जमीन का धंसना अब एक ग्लोबल समस्या बन गया है। अमेरिका में ही 45 राज्यों में 17 हजार वर्ग मील से अधिक क्षेत्र इससे सीधे-सीधे प्रभावित हैं। भूकंप, मिट्टी के कटाव जैसी प्राकृतिक घटनाओं के साथ ही जमीन से पानी, तेल, प्राकृतिक गैस, खनिज जैसे संसाधन निकालने की अंधी दौड़ इसकी बड़ी वजह है। दुनिया भर में 80% से अधिक भू-धंसाव भू-जल के अत्यधिक दोहन के कारण होता है। भू-धंसाव की गंभीरता इतनी अधिक है कि साल 2040 तक दुनिया का आठ फीसद हिस्सा और 21 फीसद प्रमुख शहरों में रहने वाले लगभग 1.2 अरब लोग इससे प्रभावित होंगे। एशिया में इसका ज्यादा खतरा अनुमानित है जहां बड़ी आबादी भू-धंसाव से प्रभावित हो सकती है। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता आज दुनिया के किसी भी अन्य शहर की तुलना में तेजी से धंस रही है। मुंबई के हालात भी कम विस्फोटक नहीं हैं।
सवाल उठता है कि विकास के नाम पर हम जो विध्वंस कर रहे हैं, क्या ये त्रासदी वाकई उसी का परिणाम हैं? अगर ये निर्विवाद सच्चाई है तो विकास की कीमत क्या होनी चाहिए? हमारे लालच की सीमा क्या हो सकती है? तीर्थस्थलों के कायाकल्प में कुछ बुरा नहीं लेकिन इसके लिए स्थानीय पारिस्थितिकी को दांव पर लगाना कितना उचित है? क्यों न विकास ऐसा हो जो पर्यावरण के अनुकूल हो? क्यों न ऐसे प्रयास हों कि विकास और विनाश नहीं, बल्कि विकास और विश्वास साथ-साथ चलें।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमारे यहां पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील स्थल पर भी निर्माण कार्य विज्ञानी नहीं, बल्कि ठेकेदार ही कराते हैं जिनके लिए अपना समय बचाना पर्यावरण बचाने से ज्यादा ‘कीमती’ होता है। बदले में हमें मिलते हैं जोशीमठ जैसे उदाहरण जहां नुकसान की भरपाई असंभव हो जाती है। यह भी ध्यान रखना होगा कि एक के बाद एक अध्ययन तब तक मदद नहीं करेंगे जब तक कि सरकारें उनकी सिफारिशों पर कार्रवाई शुरू नहीं कर देतीं। इसलिए अब किसी नए अध्ययन की नहीं, बल्कि कड़ी कार्रवाई की जरूरत है ताकि जोशीमठ किसी हादसे का नहीं, बल्कि एक बड़े बदलाव का उदाहरण बने।