Manipur Violence (फाइल फोटो)
Manipur Violence: मणिपुर में लगातार 11 दिनों तक हिंसा चलती रही. सरकारी आंकड़ों में 71 लोगों की जानें गईं. 45 हजार के करीब लोग बेघर हुए. 1700 लोगों के घरों को दंगाइयों ने स्वाहा कर दिया. फर्ज कीजिए यह हालात अगर यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब या भारत के उत्तर या पश्चिम में पैदा हुए होते तो क्या आलम होता. जाहिर तौर पर खबरों में हिंसा और पलायन करते लोगों की तस्वीरें आपको झंकझोरती रहतीं और आप सोशल मीडिया पर तस्वीरें हैशटैक के साथ साझा कर दुख-दर्द बयां करते-फिरते. ऐसा अगर नहीं भी करते तो जरूर किसी का पक्ष लेकर तेजाबी डिबेट का हिस्सा बनते.
वर्तमान हालात में कई तरह के सवाल उठ रहे हैं जो भारत की आम जनता से लेकर, राजनीति, हुक्मरानों और मीडिया तक के गिरेबान पकड़कर चीख रहे हैं. लेकिन, जवाब के नाम पर सिर्फ सन्नाटा और इग्नोरेंस है. क्या नॉर्थ-ईस्ट होने की यही सजा है कि भारत के बाकी हिस्से इसे सिर्फ भौगोलिक तौर पर तो अपना मानें? संवेदनशीलता तभी जागे जब यहां के लफड़े बड़े पैमाने पर हितों के टकराव को जन्म दे? इस भौगोलिक क्षेत्र के प्रति राष्ट्रीय राजनीति की उदासीनता भी हैरान करने वाली हैं. राजनीतिक गतिविधियां ऐसी हैं कि खामोशी ओढ़े रखने में ही शायद भलाई समझ रही हैं. वर्ना इसी मुल्क में हमने भागलपुर दंगा, 1984 सिख विरोधी दंगा, गुजरात दंगा, मुजफ्फरनगर दंगा समेत कई छोटे-मोटे सांप्रदायिक झड़पों के बारे में आए दिन तोहमतें, लानत-मलानतें, प्रदर्शन, नारेबाजी, शिकवे-गिले करते रहते हैं. रह-रहकर इन दंगों के शोले भड़क उठते हैं और देश का राजनीतिक पारा चढ़ जाता है.
लेकिन, मणिपुर की क्या मजबूरी है? इतने बड़े पैमाने पर त्रासदी और राष्ट्रीय सियासत में कोई बेचैनी तक नहीं…? अजीब लगता है की कि सब शांति-शांति है का अभिनय किया जा रहा है.
मणिपुर की लोकल राजनीति में उथल-पुथल
मणिपुर में कुकी और मैतेई समुदायों के बीच 3 मई को हिंसा भड़की थी. बड़े पैमाने पर आगजनी, मार-काट और लूटपाट हुईं. अब तस्वीरें पलायन की हैं और क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक गोलबंदी का नया रंग-रूप देखने को मिल रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक गलियां कर्नाटक और यूपी निकाय चुनाव के चर्चाओं से भले ही भरी हैं, लेकिन मणिपुर की लोकल पॉलिटिक्स एक नया शक्ल इख्तियार करती नजर आ रही है.
लोकल स्तर पर राजनीति यहां पर एक विकट स्थिति को अड्रेस करने में जुटी हैं. सियासी ‘अस्थिरता’ का खाका तैयार हो रहा है. कुकी समुदाय का मानना है कि मैतेई के पक्ष में यहां की सरकार का झुकाव है. लिहाजा, उनकी सुनवाई नहीं हो रही. इसके विरोध में कुछ विधायकों ने खेमेबंदी शुरू कर दी है. 12 मई को 10 कुकी विधायकों ने BJP सरकार पर हिंसा भड़काने का आरोप लगा डाला और अलग राज्य की डिमांड कर डाली. गौरतलब है कि इस मांग को रखने वालों में 8 विधायक BJP के हैं.
हजारों लोगों का पलायन, हजारों दर्द
दंगा प्रभावित इलाकों से कई ऐसी खबरें आ रही हैं, जिन्हें सुनकर रोंगटे खड़े हो जाएं. हिंसा की तस्वीरें देखकर घृणित राजनीति का खूंखार चेहरा साफ-साफ दिखाई दे रहा है. खौफ के साये में जी रहे लोग अपना सबकुछ छोड़ जरूरी सामान के साथ पलायन कर रहे हैं. सेना और असम राइफल्स के जवान पीड़ितों को सुरक्षित क्षेत्रों में ले जा रहे हैं. अपने ही मुल्क और प्रदेश में हिजरत की ये तस्वीरें रूला देने वाली हैं.
सोशल मीडिया और कुछ चुनिंदा मीडिया संस्थानों की ओर से जो रिपोर्टिंग हो रही हैं, उनमें कुछ कहानियां बेचैन करने वाली हैं. मसलन, लीमोखोंग की स्कूल प्रिंसिपल की कहानी भी काफी चर्चा में हैं. इन बहादुर महिला प्रिंसिपल ने अपने स्कूल के बच्चों की रक्षा के लिए खुद तलवार लेकर डंट गईं. इंफाल से करीब 20 किलोमीटर दूर इस स्कूल पर भी दंगाईयों ने धावा बोला. प्रिंसिपल बच्चों को लेकर जंगलों में छिपी रहीं. चूंकि इनका स्कूल बोर्डिंग स्कूल है और इसमें सभी समुदायों के 90 बच्चे आवासीय सुविधा के तहत पढ़ाई कर रहे थे. दंगा भड़कने के बाद स्कूल के पास भी फायरिंग शुरू हो गई. लेकिन, वक्त रहते प्रिंसिपल बच्चों को पास के जंगल में ले गईं और रात भर वहीं रहीं. बाद में सेना की सुरक्षा में इन्हें छात्रों समेत वापस लाया गया. उसी दौरान आर्मी के जवानों ने बच्चों को उनके घर तक सुरक्षित पहुंचा भी दिया.
पूरे बवाल का बैकग्राउंड
सारा बवाल समुदायों के आपसी टकराव और सरकारी सुविधाओं को लेकर है. इनमें आरक्षण और कैटेगरी की मारा-मारी काफी ज्यादा है. मणिपुर में कुल आबादी करीब 30 लाख के आस-पास है. वैसे तो यहां पर कुल 33 जनजातियां हैं. लेकिन, मुख्य रूप से कुकी, मैतेई और नगा समुदाय भारी संख्या में है. पहाड़ों पर कुकी और नगा की संख्या ज्यादा है, जबकि घाटी में मैतेई की संख्या काफी है. आजादी से पहले यहां पर मैतेई समुदाय के लोगों की ही राजशाही रही और शासन-प्रशासन में इनका दबदबा रहा, जो आज भी जारी है.
दरअसल, इस पूरे विवाद का केंद्र हाईकोर्ट का एक निर्देश है. 19 अप्रैल को हाईकोर्ट ने मणिपुर की सरकार को कहा कि वो मैतेई समुदाय को एसटी कैटगरी में शामिल करने पर विचार करे. मेतई समुदाय लंबे समय से खुद को शेड्यूल ट्राइब का दर्जा हासिल करने की मांग करता रहा है. लेकिन, इसका सबसे ज्यादा विरोध कुकी और नगा समुदाय की तरफ से होता है. खास कर कुकी समुदाय का तर्क रहा है कि शासन और प्रशासन में मैतेई समुदाय की संख्या ज्यादा है. प्रदेश में बनने वाले मुख्यमंत्रियों में संख्या मैतेई लोगों की ही ज्यादा रहती हैं. विधानसभा में भी इनकी संख्या बल मजबूत है. लिहाजा, ST स्टेटस मिलने के बाद उनके बचे-खुचे हक पर भी मैतेई का कब्जा हो जाएगा.
बहरहाल, हाईकोर्ट के निर्देश के बाद नगा और कुकी समुदायों की बैठकें होने लगीं और वर्तमान सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा. चुराचांदपुरा जिले में एक विरोध रैली के दौरान हिंसा भड़की जो पूरे मणिपुर में फैल गई. चूंकि, मैतेई जातियां इंफाल घाटी में काफी ज्यादा हैं. इनकी प्रदेश में कुल आबादी 53% है, जबकि पहाड़ी जिलों में अपना दबदबा रखने वाला कुकी समुदाय (पहले से ST का दर्जा) 30 फीसदी के आसपास है. कुकी और नगा में ज्यादातर लोग क्रिश्चियन हैं, वहीं इंफाल वैली में रहने वाला ज्यादातर मैतेई समुदाय हिंदू है. मणिपुर की विधानसभा में मैतेई समुदाय के विधायकों की संख्या 40 है, तो वहीं कुकी समुदाय के विधायकों की संख्या 20 है.
जहां जो समुदाय भारी, उसने वहां मचाई तबाही
दंगा प्रभावित जिलों की बात करें तो सबसे ज्यादा तबाही तेंगनुपाल, चुराचांदपुर, विष्णुपुर, इंफाल वेस्ट और इंफाल ईस्ट में देखी गई है. आम तौर पर कुकी और नगा समुदाय 12 पहाड़ी जिलों में बहुसंख्यक है और यहां मैतेई समुदाय को निशाना बनाया गया है. जबकि, मैतेई आबादी घाटी के चार जिलों इंफाल वेस्ट, इंफाल ईस्ट, विष्णुपुर और थौबल में बहुसंख्यक है. ऐसे में इन जिलों में कुकी और नगा जनजातियां निशाने पर रही हैं. कुकी बहुल इलाकों में अक्सर मैतेई विरोधी स्लोगन और मैतेई बहुल इलाकों में कुकी विरोधी नारे दिख जाएंगे.
इस पूरी त्रासदी में कई लूप-होल्स रहे हैं और अभी भी स्थिति सामान्य नहीं है. कई जगहों पर कर्फ्यू में ढील दी गई है. लेकिन तनाव बकरार है. कुल मिलाकर मणिपुर की हिंसा एक संकेत है. क्योंकि, नॉर्थ-ईस्ट में जातीय हिंसा की एक लंबी फेहरिस्त है.
-भारत एक्सप्रेस
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