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मिर्जापुर: हिंसा का सामान्यीकरण

जब हम हिंसा के दृश्यों को लगातार देखते हैं तो उनको हम एक सामान्य घटना मानने लग जाते हैं. ऐसी वेब सीरीज युवाओं में यह भाव भी भरते हैं कि पुलिस हमारी मुट्ठी में है और कुछ नहीं होगा?

मिर्जापुर सीजन 3 का पोस्टर.

संजीव राय


मानव सभ्यता के विकास में सहयोग और सह-अस्तित्व की प्रमुख भूमिका रही है, लेकिन हिंसक तत्वों का प्रसंग भी इतिहास का हिस्सा है. इन दिनों वेब सीरीज मिर्जापुर का सीजन-3 चर्चा में हैं. इसके तीसरे सीज़न का आना ही, इसकी लोकप्रियता का एक सूचकांक है, लेकिन इस सीरीज की कहानी थोड़ा सच और बहुत कुछ मनगढंत है जो एक भ्रांति पैदा करती है.

ऐसा लगता है कि मिर्जापुर जिले में अपराध के अलावा कुछ नहीं है और अपराधी ऐसे हैं कि पुलिस के आईजी स्तर के अधिकारी को भी उनके मातहत यह कहते हैं, ‘उसके पास ही मिलने जाना होगा, वह यहां नहीं आएगा!’ आश्चर्यजनक रूप से वह बड़े अधिकारी, उस अपराधी से मिलने जाते हैं और वहां से मुख्यमंत्री से बात भी करवाते हैं.

अपराध का नेटवर्क

जैसा कि नाम है, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर जिला इस सीरीज के केंद्र में है. वहां से माफिया के अपराध का नेटवर्क जौनपुर, आजमगढ़ के साथ पूरे प्रदेश में निर्बाध रूप से फैला हुआ दिखाया जाता है. हथियारों का कारखाना चल रहा है. हथियार लेकर अपराधी कहीं भी आराम से चले जाते हैं. यही नहीं अपराधी सरगना पुराने जमाने की रियासतों की तर्ज पर बैठक कर माफियाओं का बादशाह तय करते हैं.

उनके रास्ते में कोई पुलिस, कोई कानून खास बाधक नहीं बनते हैं. इस सीरीज में एक वकील का अपराधी बेटा अपने पिता से मिलने के लिए जेल की गाड़ी को बीच रास्ते रोक देता है और जब वह पुलिस को निर्देश देता है कि गाड़ी अब आगे जा सकती है, तभी गाड़ी आगे जाती है.

अपराध, हिंसा और समाज

मिर्जापुर के शूटर जब आजमगढ़ पहुंचते हैं तो वहां का एक अपराधी डेमो देता है! उस दृश्य में गली में दिनदहाड़े एक व्यक्ति को गंड़ासे से काटा जाता है. दो-तीन वार में उसकी गर्दन धड़ से अलग हो जाती है और वहां कुछ लोग देख रहे होते हैं, लेकिन कोई रोकने-टोकने वाला नहीं होता है.

अपराधियों के सामने पुलिस की कोई विशेष भूमिका नहीं दिखती है. एक प्रमुख महिला चरित्र, जो सबसे बड़े माफिया के घर की मालकिन और उसकी पत्नी है, उसके साथ घर के नौकर से लेकर ससुर तक शारीरिक संबंध बनाते हैं. छिनरई, सेक्स, अपराध, राजनीति से भरपूर यह सीरीज गाली-गलौच की भाषा का तड़का लगाता है और यह स्थापित करने की कोशिश करता है कि अपराध और हिंसा समाज में हैसियत बनाने के लिए एक अनिवार्यता है!

पुलिस हमारी मुट्ठी में

दरअसल, जब हम हिंसा के दृश्यों को लगातार देखते हैं तो उनको हम एक सामान्य घटना मानने लग जाते हैं. ऐसी वेब सीरीज युवाओं में यह भाव भी भरते हैं कि पुलिस हमारी मुट्ठी में है और कुछ नहीं होगा? ऐसे गाने भी लोकप्रिय हुए, ‘आंटी पुलिस बुला लेगी तो यार मेरा कर लेगा हैंडल’!

आक्रामकता देखते-देखते हमें अच्छा लगने लगता है और इसकी चाहत बढ़ने लगती है. स्कूल के शिक्षकों के लिए आज युवाओं को नियंत्रित करना बड़ी चुनौती है, जबकि शिक्षकों के साथ मारपीट से लेकर चाकू मारने की घटनाएं घट चुकी हों. स्कूल के चार छात्रों ने मेरठ की अपनी ही स्कूल शिक्षक का वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाला था. ये छात्र चेतावनी के बाद भी महिला शिक्षक को परेशान कर रहे थे.

मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि आक्रामक व्यवहार, ताकत और वर्चस्व हासिल करने के लिए एक उत्प्रेरक का काम करता है. हमारे बचपन से मिर्जापुर अपनी कजरी ‘मिर्ज़ापुर कइला गुलज़ार हो’, ‘कचौड़ी गली सून कइला बलमू’ और चीनी मिट्टी के बर्तन तथा बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौने बनाने के लिए जाना जाता रहा है.

मिर्जापुर-भदोही में पीतल और कालीन का काम भी होता है, लेकिन मिर्जापुर कभी अपराधियों की राजधानी के रूप में नहीं जाना जाता रहा! साहित्य में रुचि वाले लोग जानते हैं कि यह जिला आचार्य रामचंद्र शुक्ल, बेचैन शर्मा उग्र जैसे सृजनकारों का भी है.

वहां सिर्फ अपराधी नहीं रहते

1990 के दशक में मुंबई की कई फिल्मों में अपराधी का संबंध आजमगढ़ से दिखाया जाता था. 20 साल पहले गोवा के एक शिक्षित व्यक्ति को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मैं आजमगढ़ से हूं! उन्होंने पूछ लिया कि ‘इतने अपराधियों के बीच वहां लोग रहते कैसे हैं?’

1980 के दशक से पूर्वांचल के गोरखपुर, आजमगढ़, गाजीपुर, जौनपुर, बनारस, इलाहाबाद जैसे शहर अपराध को लेकर चर्चा में रहे हैं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं हुआ कि वहां सिर्फ अपराधी ही रहते हैं! औद्योगिक इकाइयां नहीं होने से बहुत से लोग रोजगार के लिए लोग मुंबई, दिल्ली, सऊदी अरब, बैंकॉक जाते हैं और अर्थव्यवस्था में योगदान देते हैं.

आजमगढ़ की पह​चान

असलियत में आजमगढ़ बनारसी साड़ी के साथ, राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह हरिऔध, श्याम नारायन पांडेय, कैफ़ी आज़मी जैसे साहित्यकारों की जगह है और संगीत के लिए प्रसिद्ध गांव हरिहरपुर भी मौजूद है जिसके परिवार की रगों में संगीत बसा है.

पूर्व पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय ने इसी जिले के जोकहरा गांव में सामुदायिक पुस्तकालय और सृजन केंद्र स्थापित किया है. जैसे आजमगढ़ में दुर्वाशा ऋषि का आश्रम रहा वैसे ही जौनपुर में यमदग्नि ऋषि का आश्रम था. 12वीं से 15वीं शताब्दी में जौनपुर, अरबी-फारसी शिक्षा का बड़ा केंद्र था. सूर साम्राज्य के संस्थापक शेरशाह सूरी की शिक्षा दीक्षा जौनपुर में हुई थी.

झूठ और तर्कहीनता की फसल

समाज से राज्य का उद्भव और कानून व्यवस्था का विकास बहुमत के नागरिकों द्वारा एक सभ्य और शांतिप्रिय जीवन जीने की मूल इच्छा का परिणाम है. समाज और राज्य में हिंसक और वर्जित कार्य करने वाले अपराधी को दंड और पीड़ित व्यक्ति को न्याय की व्यवस्था के साथ जीवन जीने का अधिकार सभी राज्यों की बुनियादी व्यवस्था में शामिल है. लेकिन सूचना और वेब सीरीज की बाढ़ में झूठ और तर्कहीनता की फसल खूब लहलहा रही है.

आज तार्किक सोच विकसित करना, स्कूल शिक्षकों की बड़ी चुनौती है, क्योंकि छात्रों की निर्भरता शिक्षकों पर नहीं है और ‘ज्ञान’ लेने के कई आधुनिक संसाधन उनके पास उपलब्ध हैं.

गाली न्यायोचित हो गई!

आपको याद होगा कि ‘चोली के पीछे क्या है’ जैसा गाना कुछ दिन के बाद सामान्य लगने लगा था और तब से हम कहां आ गए? युद्ध की शब्दावली, क्रिकेट-संगीत की भाषा में कब आ गई, पता ही नहीं चला! हिंसा की भाषा विज्ञापन में आ गई, क्रिकेट की जंग और संगीत का महायुद्ध होने लगा!

हास्य के नाम पर गाली न्यायोचित हो गई! क्या ऐसा है कि अब मिर्जापुर जैसी वेब सीरीज और एनिमल जैसी फिल्में नया संदर्भ गढ़ रही हैं. जहां नई पीढ़ी के बच्चों के लिए गाली-गलौच की भाषा सामान्य लगने लगी है! क्या उनके पास 20-30 बर्ष पहले के दूरदर्शन के जमाने की भाषा अपनाने का कोई संदर्भ नहीं है? तो अब मान लिया जाए कि वेब सीरीज बदलते समाज को ही दिखा रहा है और आक्रामकता एक सहज व्यवहार के रूप में स्थापित हो रही है? अगर ऐसा है तो फिर पूर्वांचल की ही पृष्ठभूमि वाली कम बजट बिना गाली गलौच वाली वेब सीरीज ‘पंचायत’ की लोकप्रियता का राज क्या है!

-भारत एक्सप्रेस

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