76वें कान फिल्म फेस्टिवल के मुख्य प्रतियोगिता खंड में दिखाई गई ट्यूनीशिया की महिला फिल्मकार कौथर बेन हनिया की फिल्म ‘फोर डाटर्स ‘ मुस्लिम अतिवादी संगठन इस्लामिक स्टेट (आईएसआईएस) के खिलाफ एक सशक्त सिनेमाई प्रतिरोध है। यह एक साहसिक डाक्यूमेंट्री है जो बताती हैं कि इस्लामिक स्टेट से सबसे ज्यादा नुकसान इस्लाम और मुसलमानों, खासकर मुस्लिम औरतों का हुआ है। उनकी क्रूरता, यौन शौषण और हिंसा की शिकार दुनिया भर की मुसलमान औरतें हीं हो रही। ऐसी औरतों को एक ओर जहां दिल दहलाने वाले शोषण से गुजरना पड़ता है, वहीं इस्लामिक स्टेट से किसी तरह आजाद होने या अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा छुड़ाए जाने पर बाकी जिंदगी जेलों में काटनी पड़ती है क्योंकि दुनिया भर में आतंकवादी संगठनों को लेकर ऐसे ही कानून ( जीरो टालरेंस) बनाए गए हैं।
ट्यूनीशिया के समुद्री शहर सौशे की एक तलाकशुदा औरत ओल्फा हमरानी ने अप्रैल 2016 में मीडिया में सरकार पर यह आरोप लगाकर तहलका मचा दिया था कि उसकी चार में से दो बेटियां गायब है और उन्हें ढूंढने में सरकार उसकी मदद नही कर रही है। उसने यह भी कहा था कि अरब स्प्रिंग (2010) के बाद मुस्लिम देशों में राजनेताओं द्वारा जिहादी मौलवियों – इमामों के प्रति नरमी बरते जाने से इस्लामिक स्टेट को मदद मिली है। बाद में पता चला कि ओल्फा हमरानी की दोनों बड़ी बेटियां रहमा और गुफरान ‘लव जिहाद ‘का शिकार होकर सीरिया और लीबिया में इस्लामिक स्टेट के लिए लड़ने चली गई है। इस्लामी क्रान्ति के बाद मुस्लिम लड़कियों पर हिजाब और बुर्का पहनने का दबाव बढ़ा। एक दिन शहर के चौराहे पर रहमा और गुफरान पर कुछ जिहादी लड़के हिजाब फेंकते हैं और यहीं से रेडिकलाइजेशन बुनियाद पड़ती है। ओल्फा की हंसती खेलती लड़कियां कहती हैं कि हिजाब और बुर्का सारी सुंदरता को ढक देता है।
दिसंबर 2021 में इन दोनों को लीबिया की फौजों ने मुक्त तो कराया पर फरवरी 2023 में गुफरान को 16 साल जेल की सजा हुई और रहमा की इस बीच मौत हो गई।
ओल्फा हमरानी अपनी दो बची हुई बेटियों- ईया और तायसीर के साथ लीबिया की जेल में बंद अपनी बेटी गुफरान से मिलने की अनुमति के इंतजार में हैं। कौथर बेन हनिया ने ‘ फोर डाटर्स’ में एक नये तरह का सिनेमा रचा है। उन्होंने वास्तविक चरित्रों के साथ अभिनेताओं से काम कराया है। हम देखते हैं कि ट्यूनीशिया का समाज इतना आधुनिक और खुले विचारों वाला है। ओल्फा की चारों बेटियों की दिनचर्या में वास्तविक सुंदरता और आजादी है। इस्लामी रेडिकलाइजेशन के बाद सबकुछ बदल जाता है। हिजाब बुर्का के पहले और बाद के जीवन को इन लड़कियों की निगाह से देखते हुए हम कई बार भावुक हो उठते हैं। रहमा और गुफरान की भूमिकाएं इचराक मतार और नूर करोई ने निभाई है जबकि बाकी दो बेटियां ईया और तायसीर ने अपनी अपनी भूमिकाएं खुद निभाई है। ओल्फा की भूमिका हेंद साबरी ने और खुद ओल्फा ने की है। कई दृश्यों में यह देखना मजेदार है कि ओल्फा अपनी भूमिका निभा रही हेंद साबरी की गलतियों को ठीक करती चलती है। चार बहनों और उनकी मां के बीच के चौतरफे भावनात्मक रिश्तों की सिंफनी में पूरी फिल्म हमारे समय का एक अनदेखा कोलाज रचती है। इसमें कलाकार और वास्तविक चरित्र इस सच्ची कहानी को दोबारा अभिनित करते हैं। फिल्म में अलग से कोई राजनीतिक टिप्पणी नहीं है, पर इन पांच औरतों के मानवीय दुःखों के माध्यम से निर्देशक ने वह सबकुछ कह दिया है जिसे स्वीकार करने से मुस्लिम देशों के राजनेता और शासक बचते नजर आ रहे हैं। इसके बावजूद कि इस्लामी आतंकवाद सबसे पहले उन्हें ही खत्म करेगा। यहां हम बेल्जियम के आदिल अल अरबी और बिलाल फल्लाह की सच्ची घटनाओं पर आधारित फिल्म ‘ रेबेल।’ को याद कर सकते हैं।यह एक हृदयविदारक साहसिक फिल्म है जो आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट ( आइएसआइएस) के पूरे प्रपंच को परत दर परत बेपर्दा करती है।
फिल्म यह भी बताती है कि औरतें प्रेम करती है और मर्द अक्सर धोखा देते हैं।
प्रतियोगिता खंड में चीन के वैंग बिंग की लंबी डाक्यूमेंट्री ‘ यूथ’ (स्प्रिंग) भी अपने राजनीतिक कथ्य की वजह से चर्चा में है। शंघाई से 150 किलोमीटर दूर हूझू प्रांत के वुझिंग जिले के औद्योगिक शहर झिली में टेक्सटाइल मजदूरों के बीच एक साल की शूटिंग में यह फिल्म बनी है। छह सौ घंटों की फुटेज से साढ़े तीन घंटे का पहला भाग सामने आया है। इन फैक्ट्री मजदूरों में अधिकांश युवा लड़के लड़कियां हैं जो बेहतर जीवन की तलाश में सुदूर चीनी गांवों से आए हैं और दिन रात काम कर रहे हैं। उनके रहने, खाने-पीने और काम करने की स्थितियां भयावह है। बस एक सपना उन्हें जीवित रखे हुए हैं कि एक दिन उनका अपना घर होगा और वे अपना परिवार बसा सकेंगे। कैमरा उनकी उबाऊ दिनचर्या को बार बार दोहराते हुए अलग प्रभाव छोड़ता है। डोरमेट्री और फैक्ट्री के चारों ओर कूड़े, कीचड़ और अंधेरे के ढेर के बीच जैसे जैसे ठेकेदार काम का टारगेट बढ़ाता जाता है वैसे वैसे बेहतर जीवन जीने का सपना उनके हाथ से फिसलता जाता है। बीस से तीस साल के ये नौजवान मजदूर बूढ़े होने लगते हैं। कैमरा हर समय उनके आपसी रिश्तों में आ रहे बदलावों को दर्ज कर रहा है- उनकी छोटी छोटी खुशियां, उनके बीच की ईर्ष्या और प्रतिद्वंद्विता, प्यार और गुस्सा और बढ़ती निराशा। फिल्म बताती है कि जिन युवा कामगारों की मिहनत के बल पर आज चीन मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में सबसे आगे हैं, उनके बेहतर जीवन की कोई योजना उसके पास नहीं है। एक पूरी नौजवान पीढ़ी को चीन ने मशीन की तरह दिन रात काम की भट्टी में झोंक दिया है।
-भारत एक्सप्रेस
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