जलियांवाला बाग नरसंहार
13 अप्रैल, 1919 की शाम को 36 वर्षीय हरि राम रॉलेट एक्ट के खिलाफ एक ‘शांतिपूर्ण बैठक’ में भाग लेने के लिए अपने घर से निकले. उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि वे जल्द ही लौट आएंगे. उनकी पत्नी रतन कौर ने बैसाखी के अवसर पर स्पेशल खीर बनाई थी और पूरे परिवार ने एक साथ जश्न मनाया था. पेश से वकील हरि राम घर लौट आए और उन्होंने अपना वादा निभाया. लेकिन उनके कपड़े खून से लथपथ थे और उनकी आंखें दर्द से छलक रही थीं. उनको दो गोलियां लगी थीं और जल्द ही उनकी मौत हो गई. इसके बाद घर में बनी स्पेशल खीर वैसी की वैसी ही रह गई.
रतन कौर ने अचानक खुद को अकेला पाया, दो और चार साल के अपने दो बच्चों की देखभाल के लिए वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या करें. इसके बाद उन्होंने और उनके परिवार ने कभी बैसाखी नहीं मनाई. उनके जैसे सैकड़ों परिवार शोक और सदमे में रह गए थे. भले ही वे खुद घायल नहीं हुए थे, लेकिन वे जीवन भर के लिए जख्मी हो गए थे.
डॉ मनी राम ने अपने 13 साल के बेटे मदन मोहन को खो दिया, जो रोज की तरह ही अपने दोस्तों के साथ बाहर गया था. मदन मोहन के सिर में गोली लगी थी और मौके पर ही उसकी मौत हो गई. मनी राम कहते हैं, “मैं बहुत देर तक उसको इधर-उधर ढूंढा लेकिन लाशों के ढेर के बीच उसे तलाश पाना आसान नहीं था. मदन मोहन उन सैकड़ों लोगों और बच्चों में से एक था जो जनरल डायर के इस शर्मनाक कृत्य के कारण मारे गए थे.
लाला गुरंदिता को पैर में गोलियां लगी थीं. जलियांवाला बाग नरसंहार का दर्द बयां करते हुए उनकी आंखें नम हो जाती हैं. वह खासतौर पर तीन साल की उम्र के एक बच्चे के साथ बारह साल के बच्चे को याद करते हैं, उनकी बाहें एक-दूसरे को कसकर जकड़ी हुई थीं और दोनों बेजान पड़े हुए थे.
-भारत एक्सप्रेस