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मध्यप्रदेश का महारथी कौन?

Madhya pradesh election : 2018 के मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव में हार के बाद 2020 में कथित ऑपरेशन लोटस के तहत भले ही शिवराज सिंह चौहान ने सत्ता हासिल कर ली हो, लेकिन इस बार उनकी राह आसान नहीं दिख रही है। एक तो पिछले विधानसभा चुनाव में हार और दूसरे शिवराज सिंह चौहान की धुमिल होती छवि से बीजेपी काफी सतर्क नजर आ रही है।

इसी साल हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार के बाद शिवराज सिंह का एक बयान खूब सुर्खियों में रहा था। उन्होंने बीजेपी नेताओं से कहा था कि यहां शिवराज है, कर्नाटक-फर्नाटक की बात भूल जाओ। हालांकि, चुनाव नजदीक आने के बाद बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने जिस तरह से फैसले लिए हैं, उससे शिवराज के भविष्य पर सस्पेंस बढ़ गया है।

मध्य प्रदेश के उम्मीदवारों की सूची ने बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व की मंशा को और मजबूत कर दिया है। पार्टी ने मुख्यमंत्री पद के तीन बड़े दावेदार नरेंद्र सिंह तोमर, कैलाश विजयवर्गीय और प्रह्लाद पटेल को विधानसभा के चुनाव में उम्मीदवार बना दिया है, लेकिन मौजूदा मुख्यमंत्री शिवराज के टिकट की घोषणा अब तक नहीं हुई है।

पार्टी के इस कदम से शिवराज सिंह चौहान को लेकर लोगों के मन में भी सवाल उठ रहे हैं, कि क्या अब शिवराज सिंह चौहान को बीजेपी किनारे लगाना चाहती है या फिर केंद्र में कोई जिम्मेदारी देकर राज्य से बाहर रखना चाहती है।

हालांकि 2005 में शिवराज सिंह चौहान के लिए मुख्यमंत्री बनने की राह इतनी आसान नहीं थी। राज्य में भारी उठा-पटक के बाद शिवराज सिंह चौहान के सिर मध्य प्रदेश का ताज सजा। ये बीजेपी के तत्कालीन कद्दावर नेता प्रमोद महाजन के वीटो लगाने के बाद संभव हुआ। लेकिन उमा भारती और बाबूलाल गौर के बाद मुख्यमंत्री बने शिवराज के सामने सत्ता की तमाम चुनौतियां मौजूद थी। हालांकि शिवराज सिंह चौहान ने उन चुनौतियों का सामना किया और राज्य में बीजेपी की राजनीति की दिशा ही बदल दी।

शिवराज सिंह के तीन साल के शासन का फायदा बीजेपी को 2008 के चुनावों में मिला। पार्टी ने राज्य में बहुमत के साथ वापसी की। हालांकि सीटों की संख्या में कमी आई, लेकिन शिवराज के नेतृत्व की पार्टी में तारीफ हुई और वो फिर सत्ता में काबिज हुए। इसके बाद शिवराज सिंह का दखल दिल्ली और नागपुर तक बढ़ा। मध्य प्रदेश को बीजेपी खासकर संघ की राजनीतिक प्रयोगशाला माना जाता है। राज्य में पहली बार जनसंघ ने 1977 में सरकार बनाई थी।

राज्य की सत्ता पर काबिज शिवराज सिंह चौहान ने संघ में अपनी पैठ का खूब फायदा उठाया। वो पार्टी में अपने कद के नेताओं को दिल्ली भेजने में कामयाब रहे। शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में राज्य में बीजेपी की पकड़ मजबूत हुई। पार्टी 2013 में 165 सीटें जीत कर सत्ता पर काबिज हुई।

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की कद बढ़ता गया। इसकी वजह से पहले प्रभात झा, फिर नरेंद्र सिंह तोमर और बाद में कैलाश विजयवर्गीय को केंद्र का रूख करना पड़ा और ये तीनों कद्दावर नेता दिल्ली की राजनीति करने लगे। हालांकि 2018 के चुनाव में शिवराज सिंह चौहान को सत्ता विरोधी लहर का समाना करना पड़ा। बीजेपी 109 सीटों पर सिमट गई। बाद में जोड़-तोड़ के साथ 2020 में शिवराज एक बार फिर मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे। लेकिन बीते तीन साल में शिवराज की लोकप्रियता में कमी आई है। लोगों का मानना है कि उन्हें इस विधानसभा चुनाव में सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है।

ऐसे में बीजेपी फूंक-फूंक कर कदम रखती नजर आ रही है। नरेंद्र सिंह तोमर और कैलाश विजयवर्गीय जैसे शिवराज के नेताओं की राज्य की राजनीति में वापसी हो चुकी है। ऐसे शिवराज सिंह चौहान के भविष्य को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। इन अटकलों को जयपुर में पीएम नरेंद्र मोदी के बयान और भोपाल में गृह मंत्री अमित शाह के बयानों से बल भी मिल रहा है। पीएम मोदी ने कहा था कि संगठन से बड़ा कोई नेता नहीं है। हम सबकी पहचान और शान सिर्फ और सिर्फ कमल का फूल है। कमल फूल को ही कार्यकर्ता लोगों के बीच लेकर जाएं। तो वहीं अमित शाह ने कहा था कि अभी शिवराज सिंह चौहान पार्टी के मुख्यमंत्री हैं। आगे क्या होगा? यह पार्टी तय करेगी।

अब ऐसे में शिवराज सिंह चौहान को लेकर अटलबाजी का दौर चल रहा है और विधानसभा चुनाव के नतीजे आने तक बरकरार रहेगा। ऐसे माना यह जा रहा है कि चुनाव से पहले की गुटबाजी को रोकने के लिए बीजेपी कन्फ्यूजन बनाए रखना चाहती है। बीजेपी की ये रणनीति उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे राज्यों में सफल भी रही है।

बीजेपी के लिए मध्यप्रदेश का चुनाव काफी संवेदनशील माना जा रहा है। वजह ये है कि विधानसभा चुनावों के तुरंत बाद लोकसभा का चुनाव होना है। बीजेपी में राज्य के कई बड़े नेता हैं. जो अपने-अपने इलाके में काफी मजबूत हैं। कांग्रेस भी पहले की तुलना में काफी मजबूत स्थिति में है। इसलिए बीजेपी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर कोई रिस्क लेने नहीं चाहती है।

— भारत एक्सप्रेस

प्रशांत पांडेय, संपादक, भारत एक्सप्रेस

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