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कांशीराम की जयंती पर मायावती ने दिया चुनावी संदेश, पढ़ें वो 5 बड़ी बातें, जो बसपा संस्थापक को बनाती हैं अमर

बसपा सुप्रीमो मायावती ने कहा कि बीएसपी को अब हो रहे लोकसभा चुनाव में अच्छा रिजल्ट दिलाना उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

कांशीराम को श्रद्धांजलि अर्पित करतीं मायावती (फाइल फोटो-सोशल मीडिया)

Kanshi Ram Birth Anniversary: शुक्रवार यानी 15 जनवरी को देश भर में बसपा नेता कांशीराम की जयंती मनाई जा रही है. इस खास मौके पर सुबह ही बसपा सुप्रीमो मायावती ने उनको याद किया और आने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर पार्टी कार्यकर्ताओं को चुनावी संदेश भी दिया है. तो वहीं इस मौके पर कांशीराम के बारे में सोशल मीडिया पर जमकर वो तथ्य वायरल हो रहे हैं, जिसने कांशीराम को दलित नेता की उपाधि प्रदान की.

मायावती ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर कांशीराम को लेकर कुछ पोस्ट शेयर की है, जिसमें लिखा है, “परमपूज्य बाबा साहेब डा. भीमराव अम्बेडकर के परिनिर्वाण के बाद लम्बे समय तक तिरस्कृत व बिखरे पड़े उनके आत्म-सम्मान व स्वाभिमान कारवाँ को देश की राजनीति में नई मजबूती व बुलन्दी देने का युगपरिवर्तनीय कार्य करने वाले मान्यवर श्री कांशीराम जी को 90वें जन्मदिन पर अपार श्रद्धा-सुमन.” मायावती ने आगे कहा है, “बामसेफ, डीएस4 व बहुजन समाज पार्टी की स्थापना कर उसके अनवरत संघर्ष के जरिए यूपी में सत्ता की मास्टर चाबी प्राप्त करके “बहुजन समाज” हेतु “सामाजिक परिवर्तन व आर्थिक तरक्की” का जो मिशनरी लक्ष्य उन्होंने प्राप्त किया वह ऐतिहासिक एवं अतुलनीय, जिसके लिए वे बहुजन नायक बने व अमर हो गए.” बसपा सुप्रीमो ने आगे कहा कि उनकी विरासत, संघर्ष व कारवां को पूरे तन, मन, धन के सहयोग से आगे बढ़ाने का संकल्प जारी रखते हुए बीएसपी को अब यहां हो रहे लोकसभा आमचुनाव में अच्छा रिजल्ट दिलाना उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी, जो समतामूलक समाज की स्थापना व महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी आदि के विरुद्ध भी योगदान होगा. तो आइए जानें कांशीराम से जुड़ी 5 बड़ी बातें-

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दलितों के जीवन में किया बदलाव

दलितों के उद्धार के लिए सबसे पहले बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव आंबेडकर का नाम एक चिंतक और बुद्धिजीवी के रूप में लिया जाता है. हालांकि कांशीराम को उनकी तरह चिंतक-बुद्धिजीवी तो नहीं माना जाता लेकिन बसपा की स्थापना कर उन्होंने भारतीय समाज और राजनीति में दलितों के लिए एक बड़ा बदलाव लाने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. और बाब साहेब के विचारों को आगे बढ़ाया. बाबा साहेब ने जहां संविधान के जरिए दलितों के जीवन में बदलाव का खाका तैयार किया था, वहां कांशीराम ने इसे राजनीति के धरातल पर उतारा और इसका श्रेय उन्हें हमेशा दिया जाता रहेगा.

दलितों के उठाए मु्द्दे

उनका जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के एक दलित परिवार में हुआ था. ग्रेजुएशन (बीएससी) तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उनको क्लास वन अधिकारी की नौकरी मिल गई थी. सरकारी नौकरी के दौरान ही वह दलितों के हितों के बारे में काम करने लगे थे. सरकारी सेवा में दलित कर्मचारियों के लिए अपनी संस्था होती थी. इससे जुड़कर कांशीराम ने दलितों के कई बड़े मुद्दे उठाए थे और आंबेडकर जयंती के दिन छुट्टी घोषित करने की मांग को लेकर बड़ा आंदोलन किया था.

साइकिल रैली से दिखाई थी दलितों की ताकत

कांशीराम ने वर्ष 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति की स्थापना की थी. इस संगठन को डीएस4 भी कहा जाता है. इस संगठन के जरिए वह दलितों की ताकत बने. साल 1982 में ‘द चमचा एज’ लिखकर उन सभी दलित नेताओं की उन्होंने आलोचना की थी, जो कांग्रेस जैसी किसी परंपरागत मुख्यधारा की पार्टी के लिए काम कर रहे थे. दलितों के लिए उनका संघर्ष लगातार जारी रहा और फिर साल 1983 में डीएस4 के तहत एक साइकिल रैली का आयोजन किया और इसके माध्यम से दलित एकता की ताकत दिखाई. जानकारी मिलती है कि इस विशाल रैली में तीन लाख से अधिक लोग जुड़े थे.

इसलिए राजनीतिक दल बनाने की सोची

साल 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की थी. उन्होंने तब कहा था कि बाबा साहेब आंबेडकर पुस्तकें इकट्ठा किया करते थे और मैं लोगों को एकत्रित करता हूं. राजनीतिक दल बनाने का उनका एकमात्र उद्देश्य दलितों को एक अलग स्थान दिलाना था. यही बड़ी वजह भी रही कि उन्होंने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी खड़ी की. बता दें कि जब उन्होंने बसपा की स्थापना की, तब तक वह पूरी तरह से एक दलित सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सामने आ चुके थे.

उत्तर भारत की राजनीति में थे गैर ब्राह्मणवाद चेहरा

कांशीराम ने बसपा के जरिए राजनीति में दलित समाज को एक नई दिशा दी और इस तरह से काम किया कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी अलग छाप छोड़ी. इस तरह से वह उत्तर भारत की राजनीति में गैर-ब्राह्मणवाद शब्द को प्रचलन में लेकर आए. अपनी पार्टी के जरिए ही कांशीराम ने संदेश दिया था कि गिड़गिड़ाना नहीं है, अपने अधिकारों के लिए लड़ना होगा. मृत्यु से करीब तीन साल पहले ही उन्होंने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली थी. 9 अक्तूबर 2006 को दिल्ली में उनका निधन हुआ था.

-भारत एक्सप्रेस



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