पीएम नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा
रूस-यूक्रेन युद्ध में एक साल की मियाद पार हो जाने के बावजूद संघर्ष के खात्मे को लेकर दुनिया किसी एक राय पर पहुंचने के बजाय खेमों में ज्यादा बंटती जा रही है। एक नया सर्वेक्षण बताता है कि अमेरिका समेत समूचे यूरोप ने रूस को अपना साझा दुश्मन मान लिया है और इन देशों में यूक्रेन को युद्ध जीतने में मदद करने पर सर्वसम्मति है, भले ही इसके लिए युद्ध को कितना भी लंबा क्यों न खींचना पड़े। इस सर्वेक्षण का एक बड़ा संदेश ये दिख रहा है कि दुनिया एक बार फिर शीत युद्ध के दौर में पहुंच रही है और इस बार दो धुरी वाली दुनिया में अमेरिका के मुकाबले रूस नहीं बल्कि चीन खड़ा है। इस थ्योरी में काफी हद तक सच्चाई भी है जिसके कारण अब यूक्रेन से जुड़े हर घटनाक्रम को इसी चश्मे से देखा जा रहा है। वो चाहे रूस विरोधी खेमे से जुड़े जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की औचक यूक्रेन यात्रा हो या चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का मॉस्को का पूर्व निर्धारित दौरा या फिर रूस का साथ देते हुए भी अमेरिका की अगुवाई वाले रूस-विरोधी खेमे से गर्मजोशी वाले रिश्ते बनाए रखने वाली भारत की संतुलित रणनीति।
जापानी प्रधानमंत्री के हाल के दौरे पर भारत इस रणनीति पर और आगे बढ़ा है। भारत और जापान के संबंध पारंपरिक रूप से मजबूत रहे हैं और यूक्रेन पर अलहदा राय रखने के बावजूद दोनों देश लगातार एक दूसरे के करीब आते जा रहे हैं। जाहिर है चीन से साझा खतरा इसकी एक बड़ी वजह है। जापान कई मौकों पर साफ कर चुका है कि शांत और सुरक्षित हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए भारत अपरिहार्य है। इस क्षेत्र की शांति, समृद्धि और स्थिरता भारत के लिए भी जरूरी है। चीन ने जिस तरह अपनी बेल्ट एंड रोड पहल को बढ़ावा देते हुए यहां अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाई है, वो समूचे दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशिया के लिए खतरे की घंटी है। भारत दौरे पर जापान के प्रधानमंत्री किशिदा ने जिस तरह इस क्षेत्र के तमाम देशों की मदद के लिए उद्योग से लेकर आपदा की रोकथाम में अरबों डॉलर के निवेश वाली योजना का ऐलान किया वो खुले और मुक्त इंडो-पैसिफिक की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
आखिर चीन को लेकर जापान इतना बैचेन क्यों है? दरअसल चीन अमेरिका के लिए भी एक खतरा है, लेकिन वहां भौगोलिक सीमाओं के अतिक्रमण की वैसी चुनौती नहीं है जो जापान के साथ है। जापान को अंदेशा है कि आज जो यूक्रेन में हुआ है, वो कल ताइवान में भी हो सकता है। ये एक तरह से चीन का जापान के दरवाजे पर ही जाकर खड़े हो जाने जैसा होगा। पिछले साल अगस्त में जब चीन ने ताइवान के चारों ओर बड़े पैमाने पर सैन्य अभ्यास किया था, तो उसकी कुछ बैलिस्टिक मिसाइलें जापान के योनागुनी द्वीप तक पहुंच भी गई थीं। वो तो गनीमत रही कि दोनों ओर से संयम बरतने के कारण स्थिति विस्फोटक होने से बच गई। ताइवान पर चीन के कब्जे का मतलब होगा जापान के दक्षिण-पश्चिमी द्वीप समूहों में अनिश्चितता का पैर पसारना। इससे न केवल सेनकाकू द्वीपों के आसपास दबाव बढ़ेगा बल्कि जापान के महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्गों पर भी चीन की तलवार लटकने की आशंका है। इसलिए दिवंगत प्रधानमंत्री शिंजो आबे के कार्यकाल से ही जापान की मान्यता रही है कि ताइवान पर कोई भी चीनी खतरा जापान के लिए इमरजेंसी होगी।
इसका एक कनेक्शन अगले पांच साल में भारत में 5 ट्रिलियन येन यानी करीब 3.2 लाख करोड़ रुपए का निवेश करने के जापान के हालिया ऐलान से भी जुड़ता है। सच तो ये है कि भारत में जापान की ओर से इतना भारी-भरकम निवेश प्रधानमंत्री मोदी के करीबी दोस्त रहे शिंजो आबे के कार्यकाल में भी कभी नहीं हुआ। दरअसल जापान जानता है कि ताइवान पर चीन के आक्रमण की स्थिति में भारत ही वो अकेला सामर्थ्यवान देश है जो उसकी ऐसी ढाल बन सकता है जिसे चीन भी नजरंदाज नहीं कर सकता।
पिछले दिसंबर में तवांग में चीन की सेना के मुकाबले केवल एक-तिहाई बल होने के बावजूद भारतीय सैनिकों ने उसे पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था। भारत की उत्तरी सीमाएं ही अकेला ऐसा मोर्चा नहीं है जहां चीन हमले कर रहा है। हमारे अधिकतर पड़ोसी देशों को अपनी महत्वाकांक्षी बेल्ट-एंड-रोड योजना के ऋण जाल में फंसाकर और उन्हें अपने रहमो-करम पर लाकर चीन लगातार दक्षिण एशिया में भारत के प्रभुत्व को कम करने की साजिशें करता रहता है।
ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारत को जी-20 की अध्यक्षता मिलना एक महत्वपूर्ण मोड़ कहा जा सकता है। इस नई जिम्मेदारी की जिस तरह शुरुआत हुई है, उससे भारत एक बार फिर दुनिया के लिए आशा की उम्मीद बनकर सामने आया है। खुद जापान इस वर्ष दुनिया की सबसे विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले समूह जी-7 की अध्यक्षता कर रहा है। ऐसे में एक टीम की तरह भारत और जापान के लिए चीन के मंसूबों पर पानी फेरने का यह सुनहरा अवसर है।
चीन की चालबाजी का एक गौर करने वाला पक्ष ये भी है कि ‘सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’ की तर्ज पर वो अब अपनी छवि सुधारने की जुगत भी लगा रहा है। हाल ही में यूक्रेन के मामले में, चीन ने खुद को एक शांति दूत के रूप में स्थापित करने का दांव चला है। चीन ने दावा किया है कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अपने मॉस्को दौरे पर रूस के राष्ट्रपति पुतिन को यूक्रेन संकट हल करने और शांति की पहल करने के लिए 12-सूत्री योजना पेश की है। हालांकि पुतिन ने भी संकट के समाधान में रचनात्मक भूमिका निभाने के लिए चीन की तत्परता पर स्वागत वाला बयान देकर एक तरह से चीन के दावे पर मुहर ही लगाई है। इतना ही नहीं, संघर्ष की शुरुआत के बाद से पहली बार जिनपिंग ने यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की से बात करने की मंशा भी जताई है। लब्बोलुआब यह समझ आता है कि एक तरफ सऊदी अरब और ईरान के बीच ‘दोस्ती’ करवाने में मिली सफलता के बाद मॉस्को मिशन के माध्यम से चीन दुनिया को ये जताना चाहता है कि वो एक जिम्मेदार शक्ति है और लगातार शांति और स्थिरता को बढ़ावा देने की मांग कर रहा है लेकिन हकीकत यही है कि परदे के पीछे वो कुछ बड़ा करने की तैयारी में है।
ये बड़ा क्या हो सकता है? क्या दुनिया को यूक्रेन में उलझा कर चीन ताइवान की राह पकड़ने वाला है? दरअसल इस शंका की वजह यह है कि भारत जहां एक ओर युद्ध की जगह बुद्ध की बात कर रहा है, वहीं चीन एक ही समय में युद्ध और बुद्ध दोनों की बात कर रहा है। जिनपिंग के राज में चीन ने अपने सैन्य बजट को बढ़ाकर 225 बिलियन अमेरिकी डॉलर कर दिया है, जो भारत के 73 बिलियन अमेरिकी डॉलर, ऑस्ट्रेलिया के 48.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर और जापान के 51 बिलियन अमेरिकी डॉलर के संयुक्त बजट से भी ज्यादा है। माना जा रहा है कि बढ़ा हुआ ये सैन्य बजट ताइवान, सेनकाकू और तिब्बत पर ही खर्च होने वाला है। इससे चीन की मंशा भी स्पष्ट हो जाती है। सेनकाकू या पड़ोसी ताइवान पर कोई संकट जापान को प्रभावित करेगा, तो तिब्बत में कोई नया सैन्य जमावड़ा भारत का सिरदर्द बढ़ाएगा। ऐसे में जापानी प्रधानमंत्री किशिदा की भारत यात्रा को दोस्ती के एक ऐसे नए अध्याय की शुरुआत कहा जा सकता है जिसे आने वाले समय में इम्तिहान के कई दौर से गुजरना होगा।
-भारत एक्सप्रेस