लोकतंत्र में चुनाव को सिर्फ जनमत की वजनदारी के तौर पर ही नहीं, राजनीतिक दलों के दबदबे का पैमाना भी माना गया है. नतीजों के रूप में जनता की मुहर लगने के बाद तर्क-वितर्क से फिर कोई अंतर नहीं पड़ता, जो जीता वहीं सिकंदर. युद्ध भूमि पर सिकंदर जिस तरह एक-के-बाद-एक जीत से नया इतिहास रचता था, कमोबेश उसी तर्ज पर वर्तमान दौर में बीजेपी चुनावी समर में एक-के-बाद-एक राजनीतिक किले फतह करती जा रही है. सियासी अश्वमेध के घोड़े अब गुजरात की दहलीज पर खड़े हैं और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी मतदान से पहले ही जीत का दम भर रही है.
गुजरात विधानसभा चुनाव में अगर मोदी मैजिक चला तो तीन दशक तक किसी राज्य में लोकतांत्रिक तरीके से शासन करने का हक हासिल करने वाली एक और पार्टी बन जाएगी बीजेपी. इससे पहले पश्चिम बंगाल में सीपीएम यह करिश्मा कर चुकी है. 1995 के बाद से बीजेपी भी पिछले लगातार 27 साल से गुजरात की सत्ता पर काबिज है.
जो बीजेपी के आलोचक हैं, वो गुजरात में एंटी इन्कंबेंसी की बात जोर-शोर से उठा रहे हैं. यह जानते हुए भी कि ऐतिहासिक रूप से गुजरात प्रो-इन्कंबेंसी वाला प्रदेश रहा है. यहां 1962 के बाद 1995 तक कांग्रेस का एकछत्र राज रहा था. इस दौरान हुए तमाम चुनावों में कांग्रेस के लिए प्रो-इन्कंबेंसी दिखी थी. 1995 में पासा पलटने के बाद बीजेपी ने इस परंपरा को अपना लिया है. इस चुनाव में बीजेपी जिस भरोसे से जीत की बात कर रही है, उसकी एक वजह यह इतिहास भी है.
बीते कई चुनावों में बीजेपी को मिलता रहा वोट-प्रतिशत उसके विरोधियों को डराता रहा है. पिछले विधानसभा चुनाव की बेहद करीबी रही टक्कर में भी बीजेपी को 49 फीसदी वोट मिले थे. 2019 के लोकसभा चुनाव में तो यह आंकड़ा 62 फीसदी रहा था. अभी पिछले साल ही शहरी निकाय चुनाव में बीजेपी को 74 फीसदी और नगर निगम चुनावों में 84 फीसदी वोट मिले. ट्रिपल इंजन की सरकार के लिए जनमानस के इस समर्थन को आधार बनाकर ही बीजेपी इसे प्रो-इन्कंबेंसी कह रही है.
ऐसे में सवाल है कि क्या गुजरात में मुकाबला एकतरफा होने जा रहा है? क्या कांग्रेस के लिए गुजरात में कोई उम्मीद नहीं है? बिल्कुल है. क्योंकि अगर कोई उम्मीद नहीं होती तो बीजेपी को गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी समेत पूरी कैबिनेट बदल देने की जरूरत क्यों पड़ती? इससे पहले भी प्रदेश में नरेन्द्र मोदी की उत्तराधिकारी मानी जाती रहीं आनंदी बेन पटेल को मुख्यमंत्री पद से बेदखल किया गया था और अब तो वो राज्यपाल बनकर सक्रिय राजनीति से भी दूर हो गई हैं. बीजेपी ने चुनावी राजनीति में इस बार बिल्कुल नए चेहरे भूपेंद्र पटेल पर दांव खेला है. इसका कारण भी उन संभावनाओं को खत्म करना है, जिनसे कांग्रेस दोबारा उभर कर सत्ता के केन्द्र में आ सकती है.
गुजरात में 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में 57 सीटें ऐसी थीं, जहां हार-जीत का अंतर 5 हजार से कम रहा था. ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस ने बेहतरीन प्रदर्शन किया था. हालांकि सच यह भी है कि वोटों के मामले में ग्रामीण क्षेत्रों में बीजेपी और कांग्रेस को मिले वोट लगभग 44 फीसदी के स्तर पर बराबर थे. जहां 1995 में कांग्रेस को 32.8 फीसदी वोट मिले थे, वहीं 2017 में उसका वोट प्रतिशत बढ़कर 41.44 प्रतिशत हो गया था. पांच साल पुराना कांग्रेस का प्रदर्शन इस चुनाव में बीजेपी को बेचैन कर रहा है. यही वजह है कि बार-बार कांग्रेस को राजनीतिक रूप से नकारने की रट लगाने के बावजूद बीजेपी उसे गुजरात की चुनावी रणनीति के केन्द्र से दूर नहीं कर पा रही है.
बीजेपी की चुनावी रणनीति गुजरात में मजबूत होती हुई कांग्रेस के लिए मतदाताओं में निराशा पैदा करने की रही है. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के युवा तुर्क कहे जाने वाले हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी की तिकड़ी को तोड़ना बीजेपी की इसी रणनीति का हिस्सा है. पाटीदार आंदोलन के बाद पटेल समाज बीजेपी से दूर हुआ था और भूपेंद्र पटेल को अगला मुख्यमंत्री घोषित करना भी उस नुकसान की भरपाई की रणनीति का हिस्सा दिखता है.
एक बात और. गुजरात के मतदाता नए चेहरों को मौका देते हैं. इस बात को समझते हुए बीजेपी ने न सिर्फ अपनी सरकार का चेहरा बदल लिया है बल्कि उसने बड़ी तादाद में नए उम्मीदवारों को भी चुनाव मैदान में उतारा है. हालांकि नए उम्मीदवार देने से बड़ी संख्या में बागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में आ खड़े हुए हैं. लेकिन गुजरात का चुनावी इतिहास बागियों के लिए कोई आस नहीं जगाता. यहां 7 में से एक बागी उम्मीदवार ही सफलता हासिल कर पाता है.
इस सबके बीच बीजेपी आज भी विकास के गुजरात मॉडल पर भरोसा करती दिख रही है. मगर, इस बार कांग्रेस ‘मोरबी मॉडल’ के नारे के साथ हमलावर है और जिससे निपटना बीजेपी के लिए चुनौती भी बन रहा है. ऐसे में बीजेपी स्थानीय मुद्दों के बजाय अपनी सबसे बड़ी ताकत प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के व्यक्तित्व को आधार बनाकर चुनाव लड़ रही है. एक बार फिर इसे मजबूती देने का काम कर रहे हैं ‘बीजेपी के चाणक्य’ अमित शाह जिन्होंने अपनी तीक्ष्ण राजनीतिक सूझ-बूझ और ‘सिर्फ जीत नहीं, रिकॉर्ड तोड़ने का विश्वास’ जैसा सोचा-समझा बयान देकर बीजेपी के प्रचार को नई दिशा दी है.
वैसे इस बार के चुनाव में नया फैक्टर आम आदमी पार्टी की मौजूदगी भी है जो शायद अपना फायदा करने से ज्यादा कांग्रेस को नुकसान पहुंचाकर बीजेपी को मजबूत करने का काम करेगी. वैसे भी आम आदमी पार्टी जहां कहीं भी आगे बढ़ी है, तो उसने कांग्रेस की कीमत पर ही ऐसा किया है. खुद अरविंद केजरीवाल ने भी यह संदेश देने की कोशिश की है कि कांग्रेस को वोट देने का मतलब वोट बर्बाद करना है क्योंकि वे जीतने के बाद भी आखिरकार बीजेपी में ही शामिल हो जाते हैं. आम आदमी पार्टी दरअसल गुजरात में कांग्रेस की ताकत को अपने पक्ष में करके नंबर दो की हैसियत बनाना चाहती है, ताकि लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम केजरीवाल बनाने का उसका सपना सच हो सके.
ये सपना सच होगा या नहीं, ये वक्त बताएगा लेकिन यह भी एक सच है कि स्थानीय मुद्दों को लेकर जबर्दस्त ‘गुपचुप’ चुनाव अभियान चलाने के बाद भी कांग्रेस बीजेपी से बहुत पीछे दिखती है. हालांकि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने महाराष्ट्र की धरती से ‘आदिवासी-वनवासी’ और ‘सावरकर-हिन्दुत्व’ जैसे मुद्दे छेड़कर कांग्रेस को चर्चा में बनाए रखा है. बीजेपी के लिए पहला मुद्दा महत्वपूर्ण है जिस पर नरेन्द्र मोदी ने लगातार दो दिन सुरक्षात्मक रहते हुए अपने भाषण में 40 से ज्यादा बार आदिवासी शब्द का प्रयोग किया. यानी बीजेपी सतर्क है और कांग्रेस को कोई मौका देने को तैयार नहीं है.
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सौ बात की एक बात यही है कि बीजेपी के ट्रंप कार्ड मोदी ही हैं. गुजरात में जो महत्व नरेन्द्र मोदी का है वह महत्व किसी और प्रदेश में किसी नेता का कभी नहीं रहा. मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक का सफर किसी और नेता ने पूरा नहीं किया. ज्योति बसु के लिए अवसर जरूर आया था लेकिन वह प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे. वहीं नवीन पटनायक की लोकप्रियता ओडिशा तक ही सीमित है जो सन् 2000 के बाद से लगातार सत्ता में काबिज हैं. गुजरात में अपनी सत्ता यात्रा को तीसरे दशक में ले जाने के बीजेपी के भरोसे की एक बड़ी वजह यह भी है.