विधानसभा चुनाव 2023
पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर सरगर्मी तो मतदान तारीखों के एलान से पहले ही बढ़ गई थी। चुनावी राज्यों में बीजेपी, कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के दौरे, लोक-लुभावन घोषणाओं की फेहरिस्त पेश करने की कवायद भी शुरू हो चुकी थी। मतलब यह कि सभी पार्टियां चुनावी मोड में पहले ही आ चुकी थीं। लेकिन तारीखों के एलान और प्रत्याशियों की घोषणा के साथ अब इसमें और तेजी आने लगी है। दरअसल, ये चुनाव कई मायने में महत्वपूर्ण हैं और आने वाले वक्त में राजनीति की दिशा और दशा तय करेंगे। चाहे जातिगत जनगणना का सवाल हो, नौकरियों में ओबीसी आरक्षण की बात हो या महिला आरक्षण का मुद्दा – विधानसभा चुनाव के नतीजे इन तमाम मुद्दों पर जनता का मूड स्पष्ट करेंगे। नवंबर में होने वाले चुनाव में क्या हिंदुत्व पर आरक्षण भारी पड़ता है, इसकी तस्वीर भी साफ होगी। और सबसे बड़ा सवाल कि विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या 2024 के लोकसभा चुनाव की दिशा तय करेंगे? यही वजह है कि अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले पांच राज्यों के चुनावों को सेमीफाइनल कहा जा रहा है। एनडीए बनाम I.N.D.I.A. के बीच होने वाले फाइनल में विपक्षी गठबंधन की ताकत और हैसियत भी विधानसभा चुनाव नतीजे ही तय करेंगे।
7 से 30 नवंबर तक चार चरणों में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव पक्ष विपक्ष के दिग्गज नेताओं की साख और प्रतिष्ठा का पैमाना भी होगा। इसमें सबसे ऊपर नाम है प्रधानमंत्री मोदी का, वो इसलिए भी क्योंकि सभी राज्यों में बीजेपी पीएम मोदी के चेहरे पर ही चुनाव लड़ रही है। पार्टी थिंकटैंक ने क्षेत्रीय क्षत्रप मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, राजस्थान में वसुंधरा राजे और छत्तीसगढ़ में डॉ रमन सिंह को किनारे कर दिया है। राहुल गांधी को इस मायने में नुकसान की संभावना कम है क्योंकि कांग्रेस ने सभी राज्यों में चुनाव की बागडोर स्थानीय नेताओं पर डाल दी है। राजस्थान में अशोक गहलोत, छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल और मध्य प्रदेश में कमलनाथ कमान संभाल रहे हैं। वैसे कांग्रेस की यह रणनीति कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में कामयाब हो चुकी है। अगर कांग्रेस को इन राज्यों में हार मिलती है तो ठीकरा राहुल गांधी पर नहीं फोड़ा जाएगा।
तो क्या पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे लोकसभा चुनावों पर असर डालेंगे, इस सवाल का जवाब अगर पिछले चुनाव नतीजों के आधार पर तलाशें तो कह सकते हैं कि जनता राज्य और केन्द्र के चुनावों में अलग-अलग माइंडसेट से वोट करती है। हिन्दी पट्टी के तीनों प्रमुख राज्य- मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में 2018 के नतीजे बीजेपी के खिलाफ गए थे और कांग्रेस ने सरकार बनाई थी, लेकिन कुछ ही महीनों बाद 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। छत्तीसगढ़ की 11 में से 9 सीटें, राजस्थान की सभी 25 सीटें और मध्य प्रदेश की 29 में से 28 सीटों पर बीजेपी ने परचम लहराया था। यह साफ तौर पर दर्शाता है कि केन्द्र और राज्य के लिए वोटिंग के मापदंड अलग हैं। हालांकि इसे अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता।
बीजेपी के प्रदर्शन पर मूल रूप से हिन्दी पट्टी के तीन प्रदेशों पर नजर है। वहीं, कांग्रेस सभी पांच राज्यों में अपने प्रदर्शन के बूते 2024 से पहले बड़ा संदेश दे सकती है। अगर बीजेपी ने मध्यप्रदेश बचा लिया और राजस्थान या छत्तीसगढ़ में से एक भी प्रदेश जीत लिया तो 2024 के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन की चुनौती बढ़ जाएगी। दूसरी ओर, कांग्रेस ने अगर इन तीन प्रदेशों में से दो पर भी कब्जा कर लिया तो 2024 के लिए इंडिया गठबंधन का नेतृत्व करने की प्रमुख दावेदार होगी। इसका मतलब यह है कि केन्द्र में बदलाव की कोशिश वाली राजनीति दरकिनार नहीं होगी और संभावनाएं बरकरार रहेंगी।
कांग्रेस ने अगर चुनाव पूर्व सर्वे के मुताबिक तेलंगाना को जीत लिया और राजस्थान को छोड़कर बाकी प्रदेशों पर भी कब्जा जमा लिया तो यह तय है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए को 2024 में बड़ी चुनौती के लिए तैयार रहना होगा। ऐसे नतीजे इंडिया गठबंधन को और मजबूत करने के लिहाज से स्वास्थ्यवर्धक साबित होंगे। 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर एनडीए की चिंता और इंडिया गठबंधन की उम्मीद ऐसे ही जनादेश पर टिकी हैं।
पांच प्रदेशों के चुनाव में इंडिया गठबंधन की परीक्षा भी होनी है। लेकिन इसके आसार कम हैं कि चुनाव लड़ने में इंडिया गठबंधन इन प्रदेशों में राष्ट्रीय स्तर वाली एकता का प्रदर्शन करे। समाजवादी पार्टी, आम आदमी पार्टी, कांग्रेस सब अपने-अपने तरीके से चुनाव मैदान में उम्मीदवार उतार रही हैं। मगर, यह बात तय है कि चुनाव नतीजे अगर कांग्रेस के पक्ष में आए तो दोस्ताना संघर्ष, नजरंदाज करने वाली बात बनकर रह जाएगी। विपरीत नतीजे होने पर यही दोस्ताना संघर्ष आम चुनाव में इंडिया गठबंधन के लिए बड़ी चिंता का सबब हो सकता है।
इन सबके बीच उम्मीदवारों की सूची जारी करने में बीजेपी ने बाकी दलों पर बढ़त बना ली है। इसका फायदा और नुकसान दोनों है। नुकसान यह है कि असंतोष से बीजेपी को जूझना पड़ रहा है। फायदा यह होगा कि चुनाव आते-आते यह लड़ाई शांत हो चुकी होगी। वहीं, कांग्रेस के लिए बागी तेवरों को संभालने के अवसर कम मिलेंगे। उम्मीदवारों की सूची जारी करने में बीजेपी ने जो बढ़त ली है, उसके पीछे की प्रमुख वजह पार्टी की प्रयोग करने की शैली है। बीजेपी ने बीते चुनाव में अपनी हार पर अच्छा होमवर्क किया। सबसे पहले उन विधानसभा क्षेत्रों की सूची जारी की जहां पार्टी हारी थी। सबसे मुश्किल सीटों पर जीत की संभावना बनाने के लिए केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों को चुनाव लड़ाने का नायाब प्रयोग जो मध्यप्रदेश में शुरू किया, वह राजस्थान में भी नजर आने लगा है।
निश्चित तौर पर जब प्रयोग बड़े होते हैं तो प्रतिक्रिया भी अलग किस्म की होती है। खुद टिकट पाने वाले मंत्रियों ने शुरुआती प्रतिक्रिया ऐसी दी जिससे बीजेपी की मुश्किल बढ़ गई। कैलाश विजयवर्गीय ने विधानसभा चुनाव लड़ने में अनिच्छा जता दी। फिर बयान को संतुलित भी किया। केन्द्रीय कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने भी लंबी खामोशी से नाराजगी का स्वर उत्पन्न किया। सांसद रीति पाठक भी विधानसभा चुनाव के लिए टिकट मिलने से खुश नहीं दिखीं। लेकिन सबसे बड़ी प्रतिक्रिया स्थानीय स्तर पर बीजेपी के कार्यकर्ताओं में दिखी है। टिकट के आकांक्षी नेताओं ने इस प्रयोग के खिलाफ बगावत का झंडा तक बुलंद कर दिया।
बीजेपी ने प्रयोगधर्मिता दिखाते हुए एक ऐसी स्थिति बनाई है कि अगर विधानसभा चुनाव नतीजे विपरीत भी हुए तो इसकी वजह उसके प्रयोग के इर्द-गिर्द खोजी जाए न कि इसे 2024 से जोड़ने का प्रयास हो। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान और राजस्थान में वसुंधरा राजे को चेहरा नहीं बनाने की कवायद को भी इसी रूप में देखा जा सकता है। राजस्थान में रिवाज नहीं बदलता है यानी दोबारा सत्ताधारी दल वापसी कर लेती है तो इसके लिए वसुंधरा राजे को जिम्मेदार ठहराया जा सकेगा। वहीं, मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह के अलावा इतने दिग्गज उतार दिए गए हैं कि हार की जिम्मेदारी वहीं गुब्बारा बनकर फूट चुकी होगी। केन्द्रीय नेतृत्व तक शायद इसकी आंच भी न आए।
वहीं, राजस्थान में कांग्रेस ने अशोक गहलोत और सचिन पायलट को संतुलित करने की कोशिश की है। लेकिन कांग्रेस के लिए मुश्किल वाली स्थिति तब होगी जब यहां पार्टी चुनाव जीत जाए। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ते हुए जीत मिले तो कांग्रेस आलाकमान इतनी मजबूत नहीं है कि वह जीत का सेहरा अपने सिर बांध सके। जाहिर है कि सिर फुटव्वल का नया अध्याय जारी हो सकता है। ऐसे में 2024 के लिए कोई मतलब निकालने की हसरत पर पानी फिर सकता है।
मिजोरम में कांग्रेस अगर सत्तारूढ़ मिजो नेशनल फ्रंट को हरा पाती है तो लोकसभा चुनाव के लिए यह संदेश मजबूत होगा कि पूर्वोत्तर में मणिपुर की घटना का नुकसान बीजेपी को होने जा रहा है। पूर्वोत्तर में इसे कांग्रेस की वापसी के संकेत के तौर पर भी देखा जा सकता है। हालांकि बीजेपी मिजोरम को बहुत गंभीरता से नहीं ले रही है। वह चुनाव बाद की राजनीति पर फोकस कर रही है। छत्तीसगढ़ का महत्व 2024 के लिए तभी है जब यहां बीजेपी सत्ता में आने का करिश्मा कर दिखाए। अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी का नैरेटिव ही बदल जाएगा। मगर, ऐसा होना आसान नहीं है। भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस छत्तीसगढ़ में मजबूती से खड़ी है।
पांच राज्यों के चुनाव और फिर लोकसभा चुनाव से पहले विपक्ष ने जातीय जनगणना का मुद्दा उठाकर एनडीए को बैकफुट पर लाने की कोशिश की है। जातीय जनगणना कराने का मुद्दा बिहार से चलकर इन पांच प्रदेशों तक भी पहुंच गया है। राहुल गांधी इस नारे को बुलंद कर रहे हैं। राहुल गांधी ने जातीय जनगणना और ओबीसी को भागीदारी देने के सवाल पर बाउंस बैक किया है। पांच राज्यों में अगर चुनाव नतीजे कांग्रेस के पक्ष में आए तो पार्टी इसे जातीय जनगणना पर जनादेश के रूप में भी ले सकती है। ऐसा होने पर 2024 की लड़ाई और दिलचस्प हो जाएगी।
हालांकि बीजेपी ने रोहिणी आयोग की सिफारिशों को लागू करने की बात कहकर विपक्ष के जातिगत जनगणना के प्रहार को कुंद करने की शुरुआत कर दी है। रोहिणी आयोग ने ओबीसी कोटे में अति पिछड़ों का अलग कोटा रखने की सिफारिश की है। बीजेपी इस तरह ओबीसी वर्ग में कम प्रभावशाली तबके को लुभाने की कोशिश करेगी जो भले ही यादव जैसे ओबीसी वर्ग जितने प्रभावशाली न हों लेकिन संख्याबल के हिसाब से महत्वपूर्ण हो जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजे बेहद रोचक होंगे। हालांकि पुराने ट्रेंड को देखते हुए ये नतीजे लोकसभा चुनाव के लिए कोई पुख्ता संकेत देंगे, ये आकलन गलत हो सकता है।
-भारत एक्सप्रेस