जर्मनी की पत्रिका डेर स्पीगल का विवादित कार्टून
जर्मन पत्रिका डेर स्पीगल ने भारतीयों का मजाक उड़ाते हुए एक कार्टून प्रकाशित किया है। इस कार्टून के जरिए आबादी के मामले में चीन को पीछे छोड़कर भारत के नंबर वन बनने पर ये कटाक्ष किया गया है कि भारत अभी भी बहुत पिछड़ा हुआ है जबकि चीन ने काफी तरक्की कर ली है। कार्टून बनाने वाले ने प्रतीक के रूप में ट्रेन को लिया है। कार्टून में अंदर और ऊपर दोनों तरफ यात्रियों से भरी हुई एक जीर्ण-शीर्ण भारतीय ट्रेन को दिखाया गया है जो समानांतर ट्रैक पर चीन की एक बुलेट ट्रेन को ओवरटेक कर रही है। इशारा इस बात का है कि कैसे चीन की तुलना में भारत का बुनियादी ढांचा बढ़ती जनसंख्या के साथ चरमरा रहा है।
जर्मनी के इस कार्टून वाले अपमान पर भारत के राजनेताओं से लेकर नौकरशाह और आम नागरिक तक कड़ी प्रतिक्रिया दे रहे हैं। बेशक भारत के कई हिस्सों में भीड़भाड़ वाली ट्रेनें अभी भी देखी जा सकती हैं, लेकिन बीते कुछ वर्षों में हुए महत्वपूर्ण और दूरदर्शी निवेश से देश के रेलवे नेटवर्क और ट्रेनों का जो कायाकल्प हुआ है वो दुनिया के कई देशों के लिए मिसाल बना है। ऐसे में इस कार्टून में स्पष्ट तौर पर भारत के विकास को लेकर अज्ञानता या जानबूझकर अनजान बनने जैसी धूर्तता दिखती है। आज के डिजिटल युग में हर जानकारी ऑनलाइन मौजूद है और कोई भी पड़ताल बता देगी कि भारतीय रेलवे के लगभग 85 फीसद नेटवर्क का पूरी तरह से विद्युतीकरण हो चुका है। कई राज्यों में तो पहले ही ब्रॉड गेज नेटवर्क में 100 फीसद विद्युतीकरण का लक्ष्य हासिल किया जा चुका है। इसके बावजूद तथाकथित विकसित दुनिया का ये दुस्साहस हास्यास्पद ही कहा जाएगा।
भारत के संदर्भ में विकसित दुनिया की बड़ी-बड़ी बातें और छोटी-छोटी हरकतें उनके पाखंड को पहले भी उजागर कर चुकी हैं। साल 2015 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने कार्टून छापा था जिसमें भारत को एक हाथी के रूप में दिखाया गया था जो पेरिस जलवायु सम्मेलन की ट्रेन के आगे ट्रैक पर अड़कर बैठ गया है। कार्टून में जो ट्रेन दिखाई गई, उसमें भी कोयले का इंजन लगाया गया था जो कार्बन उत्सर्जन का प्रतीक है। कार्टून के जरिए न्यूयॉर्क टाइम्स ये कहना चाह रहा था कि कार्बन उत्सर्जन के लिए भारत जिम्मेदार है जबकि सच ये था कि औद्योगिक क्रांति के समय में पश्चिमी देशों ने पर्यावरण का सबसे ज्यादा दोहन किया और बाद में इसका ठीकरा विकासशील देशों पर फोड़ने लगे। लेकिन भारत ने पीड़ित कार्ड खेले बिना COP26 जैसे मंचों पर दृढ़ता से अपनी मांग रखी है कि ये विकसित दुनिया की जिम्मेदारी है कि वे जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से निपटने के लिए विकासशील दुनिया को जलवायु वित्तपोषण और तकनीकी हस्तांतरण प्रदान करें। लेकिन क्या विकसित देशों ने इसमें सहयोग किया है? इतना ही नहीं, न्यूयॉर्क टाइम्स ने इससे पहले साल 2014 में भी भारत के मंगल मिशन को लेकर मजाक उड़ाया था। हालांकि पाठकों की शिकायत के बाद तब उसे माफी मांगनी पड़ी थी लेकिन उसके अगले ही साल पेरिस समिट से जुड़ी कार्टून वाली हिमाकत बताती है कि भारत जैसे विकासशील देशों को तुच्छ समझने की पश्चिम की दूषित सोच की जड़ें बहुत गहरी हैं। वैसे दिलचस्प बात ये भी है कि डेर स्पीगल पत्रिका तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी का सिर कलम करते हुए कार्टून भी प्रकाशित कर चुकी है।
दरअसल वैश्विक स्तर पर घटते प्रभाव और खासकर रूस-यूक्रेन युद्ध के दौर में यूरोप एक तरह से खुद को असुरक्षित महसूस करने लगा है। हाल के दिनों में फ्रांस और इंग्लैंड के भी कई कदम और बयान इस असुरक्षा की भावना से प्रभावित दिखे हैं। जर्मनी की बात करें तो घरेलू स्तर पर ही कई चेतावनियों और यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद उसने चीन की कठपुतली बनना स्वीकार किया है। दरअसल यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद गैस के लिए रूस पर उसकी निर्भरता बड़ी कमजोरी साबित हुई है। इस अहसास ने जर्मन सरकार को चीन के साथ अपने संबंध पर फिर से विचार करने को मजबूर किया है।
चीन को दुनिया से अलग-थलग करने की तमाम अमेरिकी कोशिशें और अमेरिका के करीबी दोस्त होने का दम भरने के बावजूद जर्मनी की करीब 5000 कंपनियां आज चीन में कारोबार कर रही हैं। जर्मनी के करीब 3 फीसद यानी दस लाख से ज्यादा रोजगार चीन से आयात पर निर्भर हैं। खासतौर पर कार बनाने वाली और केमिकल कंपनियां लगातार चीनी बाजार में निवेश बढ़ा रही हैं। पिछले साल सितंबर में हुई एक स्टडी के अनुसार चीन में एक तिहाई यूरोपीय प्रत्यक्ष निवेश अकेले कार बनाने वाली बड़ी जर्मन कंपनियों – फॉक्सवैगन, बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज और केमिकल कंपनी बीएएसएफ का है। जर्मनी के सबसे बड़े बंदरगाह हैम्बर्ग – जिसे दुनिया का प्रवेश द्वार माना जाता है – को भी जर्मनी ने चीन के लिए खोल दिया है। चीन इस बंदरगाह का सबसे बड़ा ग्राहक है और अब जर्मनी ने इसकी कुछ हिस्सेदारी चीन को बेचने का फैसला किया है। हाल के दिनों में चीन लगातार विभिन्न देशों में बंदरगाहों को अपने कब्जे में लेने की प्रक्रिया में काफी गंभीर और आक्रामक दिखाई दे रहा है। इसका मकसद केवल व्यापार नहीं है, बल्कि वो इन बंदरगाहों के जरिए दुनिया में अपनी रणनीतिक स्थिति को भी मजबूत कर रहा है। एक तरह से उसके इस मिशन में अब जर्मनी भी उसका सहयोगी बन गया है। आज का जर्मनी स्वच्छ ऊर्जा, परिवहन, दुर्लभ अर्थ मेटल, इलेक्ट्रिक कार के पुर्जों जैसे कुछ क्षेत्रों में चीन पर इतना अधिक निर्भर है कि कई जर्मन राजनेता और बुद्धिजीवी दोनों देशों में सामाजिक और राजनीतिक स्वतंत्रता पर विचारों में जमीन-आसमान के फर्क का हवाला देकर गंभीर चिंता जता चुके हैं लेकिन फिर भी दोनों देशों का कारोबार लगातार नए रिकॉर्ड छू रहा है। हालात ये हैं कि अगर चीन ताइवान पर हमला कर दे तो जर्मन अर्थव्यवस्था के सामने सप्लाई चेन का ऐसा गंभीर संकट खड़ा हो सकता है जिसके मुकाबले में रूस-यूक्रेन संघर्ष के प्रभाव भी बौने साबित होंगे।
ऐसे में इस ताजा कार्टून का एक आकलन चीन के मुकाबले भारत के बढ़ते प्रभाव को लेकर जर्मनी की घबराहट से भी जोड़ा जा रहा है। जी-20 के अध्यक्ष के रूप में भारत इस पूरे वर्ष वैश्विक एजेंडे को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। मजबूरी में ही सही, अमेरिका की अगुवाई में कई पश्चिमी देश भी मजबूत होते भारत में रुचि दिखा रहे हैं और यूक्रेन संघर्ष में रूस के साथ दृढ़ता से खड़े होने के बावजूद हमें जी-7 समूह में शामिल करना उनका अगला बड़ा एजेंडा है। साल 2027 तक भारत अर्थव्यवस्था के मामले में जर्मनी को भी पीछे छोड़ने वाला है। ऐसे भी कयास हैं कि चीनी खिलौना बनने से जर्मनी की अर्थव्यवस्था की रेल उससे पहले भी भारत से पिछड़ सकती है। तो ऐसी स्थिति में भारत एक ही वक्त में जर्मनी और फिलहाल उसके सबसे बड़े पालनहार बने चीन के लिए चुनौती बन गया है। इसलिए इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये कार्टून परोक्ष रूप से चीन को खुश करने का एक सोचा-समझा प्रयास है।
बहरहाल अच्छी बात यह है भारत में जर्मनी के राजदूत फिलिप एकरमैन ने ही आगे आकर इस विवाद का पटाक्षेप कर दिया है। एकरमैन ने इस कार्टून को ‘न तो मजाकिया और न ही उपयुक्त’ कहा है और भारतीय मेट्रो को जर्मनी से बेहतर बताते हुए इस नासमझ कार्टूनिस्ट को भारत आकर खुद हकीकत से रूबरू होने की ‘प्रत्यक्षं किं प्रमाणं’ वाली नसीहत दी है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि अंत भला तो सब भला।
-भारत एक्सप्रेस