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ग्लोबल वॉर्मिंग का गहराता संकट: अब नहीं तो कब?

विडंबना है कि ऐसी आपातकालीन परिस्थिति आसन्न होने के बावजूद पर्यावरणीय प्रदूषण के सबसे बड़े जिम्मेदार दो देश – चीन और अमेरिका ने जीवाश्म ईंधन की नई परियोजनाओं को मंजूरी दी है।

March 26, 2023
global warming

प्रतीकात्मक तस्वीर

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल की हालिया रिपोर्ट पर दुनिया भर में हड़कंप मचा हुआ है। जलवायु परिवर्तन पर अब तक की सबसे तार्किक और सारगर्भित मानी जा रही इस रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि अगर तुरंत एहतियाती कदम नहीं उठाए गए तो अगले एक दशक में दुनिया का तापमान भीषण गर्मी के उस अधिकतम स्तर को पार कर लेगा जिसके आगे विनाश की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। रिपोर्ट पर अपनी पहली प्रतिक्रिया में संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुटेरेस ने इसे जलवायु टाइम बम बताते हुए कहा है कि मानवता पतली बर्फ पर है जो तेजी से पिघल रही है। इशारा स्पष्ट है –  दुनिया को बचाना है तो सभी मोर्चों पर जलवायु को लेकर कार्रवाई की तुरंत जरूरत है।

कई नामचीन विशेषज्ञों से मिलकर बने इस पैनल ने अपनी रिपोर्ट में धरती में आ रहे बदलाव पर अब तक की सबसे व्यापक मानी जा रही जानकारियों को साझा किया है। इसमें कहा गया है कि अगर दुनिया कोयला, तेल और प्राकृतिक गैसों को इसी तरह जलाती रही, तो साल 2030 की पहली छमाही तक वैश्विक औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 1.5 डिग्री सेल्सियस या करीब 2.7  डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ सकता है। डेढ़ डिग्री सेल्सियस की यह संख्या वैश्विक जलवायु के लिहाज से एक विशेष महत्व रखती है। साल 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत लगभग हर देश ने ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5  डिग्री सेल्सियस तक रखने के लिए आवश्यक प्रयास करने पर सहमति दी थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि इस दहलीज के पार होते ही जलवायु आपदाएं इतनी चरम हो जाएंगी कि उनके अनुसार खुद को ढालना मनुष्य के लिए संभव नहीं रह जाएगा। ये एक तरह से पृथ्वी की बुनियादी प्रणाली का हमेशा के लिए बदल जाने जैसा होगा और जिसके परिणामस्वरुप लाखों जिंदगियां झुलसाने वाली गर्मी, बेमौसम बारिश, तटीय बाढ़, खाद्यान्न संकट, अकाल और कई तरह के संक्रामक रोगों की बलि चढ़ जाएंगी।

दुनिया के 195 देशों की सरकारों ने इस रिपोर्ट को अनुमोदित किया है। इसलिए इसकी ये जानकारी महत्वपूर्ण है कि दुनिया भर में विभिन्न प्रकार के जीवाश्म ईंधन जैसे कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्र, तेल के कुएं, कारखाने, कार और ट्रक – इस सदी के अंत तक पृथ्वी को दो डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने के लिए पर्याप्त कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ चुके होंगे। ऐसा होने से रोकने के लिए ऐसी परियोजनाओं में से कई को स्थगित करने, जल्द-से-जल्द पूरा करने या हमेशा के लिए बंद करने की जरूरत है। खुद एंतोनियो गुटेरेस ने कहा है कि 1.5 डिग्री की सीमा को हासिल किया जा सकता है लेकिन इसके लिए जलवायु सुधार की एक लंबी छलांग लगाने की जरूरत पड़ेगी। इसके लिए गुटेरेस ने दुनिया से कोयले के नए संयंत्रों का निर्माण बंद करने और तेल और गैस की नई परियोजनाओं को मंजूरी नहीं देने का आह्वान भी किया है।

विडंबना है कि ऐसी आपातकालीन परिस्थिति आसन्न होने के बावजूद पर्यावरणीय प्रदूषण के सबसे बड़े जिम्मेदार दो देश – चीन और अमेरिका ने जीवाश्म ईंधन की नई परियोजनाओं को मंजूरी दी है। फिनलैंड के सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर के अनुसार चीन ने पिछले साल कोयले से बिजली पैदा करने वाले 168 छोटे-बड़े संयंत्रों के परमिट जारी किए। इसी तरह बाइडेन प्रशासन ने पिछले हफ्ते ही अलास्का में तेल ड्रिलिंग की अगले तीन दशक तक क्रियाशील रहने वाली एक विशाल परियोजना को मंजूरी दी है।

आबादी से लेकर अनाज तक पर मंडरा रहा ये संकट भारत को भी मुश्किल में डाल सकता है। रिपोर्ट के अनुसार तापमान में 1 से 4 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि होने पर भारत में चावल का उत्पादन 10 से 30 फीसद और मक्के का उत्पादन 25 से 70 प्रतिशत तक प्रभावित हो सकता है। वहीं, समुद्र का स्तर बढ़ने से मुंबई, चेन्‍नई, गोवा, विशाखापत्तनम, पुरी जैसी जगहों पर तटीय इलाके समुद्र में डूब सकते हैं और करीब 3.5 करोड़ लोगों को गर्म हवाओं, भारी बारिश, चक्रवातों और तटीय बाढ़ का सामना करना पड़ सकता है। खतरा दिल्ली, पटना, लखनऊ, अहमदाबाद, हैदराबाद जैसे मैदानी शहरों पर भी मंडराएगा। गर्मी के मौसम में झुलसाने वाली गर्मी और सर्दी के मौसम में असहनीय ठंड जैसी चरम मौसमी स्थितियां बन सकती हैं। वहीं, ग्लेशियर की बर्फ पिघलने की रफ्तार में तेजी आने से हिमालयी क्षेत्र में कभी पानी की कमी, तो कभी फ्लैश फ्लड जैसी स्थितियां और विकट हो सकती हैं। गंगा और ब्रह्मपुत्र दोनों नदियों में भी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप बाढ़ में वृद्धि की आशंका है। अंदेशा है कि साल 2050 आते-आते देश में जलसंकट का सामना कर रही आबादी 33 फीसद के मौजूदा स्तर से आगे बढ़कर 40 फीसद तक पहुंच जाएगी। ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण ऊंचाई वाले हिमालयी क्षेत्र में डेंगू और मलेरिया के मामलों में भी बढ़ोतरी संभावित है।

हालांकि रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के पास इस विनाश से बचने का अभी भी एक आखिरी मौका बचा है। लेकिन इसके लिए औद्योगिक देशों को पहले तो साल 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उपयोग को मौजूदा स्तर का आधा करना होगा और फिर साल 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म करना होगा। अगर दुनिया ये दोनों लक्ष्य साध लेती है तो ग्लोबल वॉर्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोका जा सकता है, लेकिन तब भी उसकी गारंटी 50 फीसदी ही होगी। कई वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि आने वाले दिनों में 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार भी हो जाती है तो उसका यह मतलब नहीं होगा कि दुनिया ही खत्म हो जाएगी। इतना जरूर है कि प्रत्येक डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त गर्मी पानी की भीषण कमी, कुपोषण और जानलेवा गर्म लपटों जैसी दुश्वारियों को बढ़ावा देगी जिससे लोगों के लिए जीवित रहने की परिस्थितियां मुश्किल होती जाएंगी।

एक उपाय यह भी हो सकता है कि वायुमंडल में गर्मी को सोखने वाली गैसों का उत्सर्जन रोक दिया जाए। वैज्ञानिक भाषा में इसे नेट जीरो की अवस्था कहा जाता है। दुनिया के तमाम देश नेट जीरो का स्तर पाने में जितनी तेजी दिखाएंगे, पृथ्वी के गर्म होने की प्रक्रिया को उतनी ही आसानी से धीमा किया जा सकेगा। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने साल 2050 तक नेट जीरो उत्सर्जन तक पहुंचने का लक्ष्य निर्धारित किया है, जबकि चीन ने इसके लिए साल 2060 और भारत ने साल 2070 तक का लक्ष्य रखा है। लेकिन रिपोर्ट में जाहिर की गई आशंकाओं को देखते हुए लगता नहीं कि जिस तेजी से खतरा पैर पसार रहा है, वो दुनिया को संभलने के लिए इतना वक्त देगा।

हालांकि रिपोर्ट के अनुसार कई देशों ने ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरों से निपटने की दिशा में अच्छी तैयारी की है, जैसे महासागरों के बढ़ते स्तर को देखते हुए तटीय बाधाओं का निर्माण करना या भविष्य के तूफानों के लिए पहले से ही चेतावनी देने वाली प्रणाली स्थापित करना। न्यूयॉर्क में कार्बन उत्सर्जन सोखने वाला दुनिया का पहला प्लांट लगाया गया है। मैनहट्टन में इन गैसों का स्वरूप बदलकर ईंटें बनाई जा रही हैं। ये तकनीक इमारतों के कार्बन उत्सर्जन को 60% तक रोकने में सक्षम है। लेकिन मुश्किल यह है कि ऐसे तमाम उपायों में खासा आर्थिक निवेश भी होता है जिसके कारण गरीब देश इस दौड़ में अभी से पिछड़ने लगे हैं। लेकिन इस अराजक भविष्य को रोकने का सिर्फ यही उपाय है कि पिछली डेढ़ सदी से भी ज्यादा समय से हमारे जीवन का आधार रहे जीवाश्म ईंधन से अब बिना वक्त गंवाए दूरी बना ली जाए। और क्योंकि दुनिया ने इस खतरे को भांपने में इतनी देरी कर दी है इसलिए अब जानलेवा हो रहे जलवायु जोखिमों को काबू में करने के लिए सैकड़ों अरब डॉलर खर्च करना भी अपरिहार्य हो गया है।

इसलिए भी गुटेरेस ने भारत के नेतृत्व वाले जी-20 समूह को ‘जलवायु एकजुटता संधि’ का प्रस्ताव दिया है। इसमें सभी बड़े उत्सर्जक देशों से उत्सर्जन में कटौती के लिए अतिरिक्त प्रयास करने और तापमान को 1.5 डिग्री तक कम करने के लिए अमीर देशों के जरिए गरीब देशों को वित्तीय और तकनीकी मदद करने की सलाह दी गई है।

ये समझना होगा कि ऐसा नहीं है कि मानवता के लिए चुनौती बने इस संकट से निपटने के लिए हम किसी ऐसी चीज पर निर्भर हैं जिसका अभी आविष्कार होना बाकी है। जब कोरोना महामारी आई, तब जरूर हम उसे लेकर अनजान थे, लेकिन दुनिया ने तुरंत ही उसका इलाज निकाल लिया। जलवायु परिवर्तन को लेकर तो हमारे पास पहले से उन सभी उपायों की जानकारी है जिसकी हमें आवश्यकता है। बस इसे लागू करने की जरूरत है। ये भी ध्यान रहे कि दूसरों से पहला कदम उठाने की मांग करना मानवता के प्रति हमारी जिम्मेदारी का आखिरी विकल्प होना चाहिए क्योंकि अब तो हमारे पास दूसरों का इंतजार करने का वक्त भी नहीं बचा है।

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