राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हकीम साब को ध्यानचंद पुरस्कार प्रदान करते हुए
भारत दुनिया के कुछ सबसे पुराने फुटबॉल क्लबों का घर है. दुनिया की तीसरी सबसे पुरानी प्रतियोगिता ‘डूरंड कप’ इस बात का गवाह है. एक समय था जब भारत को ‘एशिया का ब्राजील’ कहा जाता था. उस स्वर्णिम इतिहास की कहानी में कई बड़े नाम शुमार है, जिन्होंने अपनी काबिलियत और हुनर के दम पर इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया.
उन्हीं दिग्गजों में ‘हकीम साब’ उर्फ सैयद शाहिद हाकिम शामिल हैं. हैदराबाद, ब्रिटिश भारत में जन्मे हाकिम महान फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम के पुत्र हैं, जिनका भारतीय राष्ट्रीय टीम के कोच के रूप में कार्यकाल देश में फुटबॉल के “स्वर्णिम युग” के रूप में माना जाता है.
हकीम साब का फुटबॉल करियर
भारत में फुटबॉल के इतिहास की बात करें, तो साल 1937 में ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन (AIFF) की स्थापना की गई, जो आगे चलकर देश में फुटबॉल के शासी निकाय के रूप में भारतीय फुटबॉल संघ (IFA) बना.
इस खेल के इतिहास में सैयद शाहिद हकीम का नाम भी सुनहरे अक्षरों में दर्ज है. हकीम साब ने अपने जीवन के तकरीबन 50 वर्ष इस खेल को समर्पित किए. इस दौरान उन्होंने खिलाड़ी, सहायक कोच, मुख्य कोच, रेफरी, मैनेजर जैसी कई भूमिकाएं निभाईं. फुटबॉल से संन्यास लेने के बाद, हाकिम फीफा बैज धारक अंतर्राष्ट्रीय रेफरी बन गए और उन्होंने एशियाई क्लब चैम्पियनशिप और कतर में 1988 AAFC एशियाई कप के मैचों में रेफरी की भूमिका निभाई. उन्होंने पायलट के रूप में भी काम किया, भारतीय वायु सेना के स्क्वाड्रन लीडर के रूप में सेवा की. बाद में हकीम को भारतीय खेल प्राधिकरण (SAI) का क्षेत्रीय निदेशक नियुक्त किया गया. उन्होंने भारत में 2017 फीफा अंडर-17 विश्व कप की शुरुआत से पहले “स्काउटिंग के प्रभारी परियोजना निदेशक” के रूप में भी काम किया.
संघर्षों से भरा जीवन
सैयद सेंट्रल मिडफील्डर के रूप में खेला करते थे और जब गेंद उनके पास होती थी, तो वो विरोधी खिलाड़ियों को छकाने का माद्दा रखते थे. हकीम साब के जीवन में कुछ ऐसा भी हुआ था जिसने उनके करियर पर अल्प विराम तो लगाया लेकिन हौसले को पस्त नहीं होने दिया. दरअसल, उन्हें 1960 के रोम ओलंपिक में खेलने का मौका नहीं मिला था. संयोग से तब कोच उनके पिता सैयद अब्दुल रहीम थे. इसके बाद वह एशियाई खेल, 1962 में स्वर्ण पदक जीतने वाली टीम में भी जगह बनाने से चूक गए थे.
सम्मान और पहचान
हालांकि, इससे उनकी क्षमता पर कोई सवाल नहीं उठा था. लंबे समय तक टीम से जुड़े रहे हकीम साब को वर्ष 2017 में ‘द्रोणाचार्य पुरस्कार’ और ‘ध्यानचंद पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया. हकीम साब उस दशक के खिलाड़ियों में शामिल रहे, जिन्होंने खूब संघर्ष किया था. उस समय संसाधनों के अभाव में भी इन खिलाड़ियों ने कमाल का जज्बा दिखाया था.
हकीम साब ने 22 अगस्त 2021 को 82 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली. गुलबर्ग के एक अस्पताल में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया. ये विडंबना ही है कि फुटबॉल में भारत का शानदार इतिहास और कई महान खिलाड़ी होने के बाद भी ये खेल देश में हाशिए पर रहा.
-भारत एक्सप्रेस