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तो क्या भारतीय संसद से सीधे भिड़ना महंगा पड़ा ट्विटर इंडिया को ?

भारतीय संसद से भिड़ना ट्विटर इंडिया को पड़ा महंगा ?

(निमिष कुमार)

एलन मस्क के मिजाज आजकल बिगड़े हुए हैं. पहले तो भारतवंशी ट्विटर के ग्लोबल सीईओ पराग अग्रवाल और पॉलिसी हेड विजया गाडे को दरवाजा दिखाया, अब सुना है कि ट्विटर इंडिया की पूरी मार्केटिंग, कम्यूनिकेशन की टीम को निकाल दिया है, इंजीनियरिंग टीम में भी झाड़ू लगा दी है, हालात इतने खराब हो गए है कि जो कर्मचारी बचे है, वो ऑफिस का मेल खोलने से डर रहे हैं. पता नहीं कब बर्खास्तगी का पत्र आ जाए. कुल जमा दूसरों को चर्चा में लाने वाला ट्विटर खुद चर्चा में हैं. लेकिन ट्विटर इंडिया के साथ ऐसा क्यों हुआ ?  इसे समझने के लिए हमें कोविड के पहले की घटनाओं को याद करना होगा.

भारतीय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. ये कोविड के पहले की बात है. हम लोग संसद परिसर में थे, तभी महिला सांसदों का एक जत्था हमें संसदीय सचिवालय की तरफ जाता दिखा. मालूम करने पर पता चला कि संसदीय समिति की एक बैठक बुलवाई गई है. ये अचंभित करनेवाला था, क्योंकि अमूमन संसद सत्र के दौरान संसदीय समितियों की बैठकें बुलाने से परहेज होता है, जिससे सांसदों का ध्यान सत्र की कार्यवाही पर रहे और सत्र के दौरान सदन में सांसदों की उपस्थिति बने रहे, या यूं कहें तो सदन में कोरम बना रहे, वरना लोकसभा स्पीकर या राज्यसभा उप-सभापति को सदन बार-बार स्थगित करना पड़ता.

परंपरा के अलग संसदीय संमिति की बैठक बुलाने का मतलब था विषय गंभीर है, और था भी. संसदीय समिति सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर महिलाओं और बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के इन कंपनियों के उपायों को जानना चाहती थी. लेकिन सोशल मीडिया कंपनियों का ग्लोबल प्रबंधन तो इसे हल्के से लेकर बैठा था. संसदीय समिति तो इन कंपनियों के ग्लोबाल सीईओ से मिलना चाहती थी, लेकिन ग्लोबल सीईओ तो छोड़िए, भारतीय ऑपरेशन के हेड याने इंडिया सीईओ या एमडी तक ने संसदीय समिति के सामने पेश होने में अपनी तौहीन समझी और भेज दिए अपनी पब्लिक पॉलिसी टीम के कुछ अधिकारी. ये सब संसदीय प्रोटोकॉल के विरूध्द था. संसदीय प्रोटोकॉल के मुताबिक बुलाए जाने पर संबंधित कंपनी या विभाग का मुखिया ही समिति के समक्ष प्रस्तुत हो सकता है, जैसे मंत्रालय का प्रशासनिक मुखिया याने सचिव स्तर का अधिकारी. आपको याद होगा कैसे यूएसए में कांग्रेशनल कमेटी ने गूगल और फेसबुक को सम्मन किया था. तब गूगल की ओर से सुंदर पिचाई और फेसबुक का पक्ष रखने खुद मार्क जुगरबर्ग समिति के सामने पेश हुए थे. अमेरिकी सांसदों ने दोनों की ही अच्छी क्लास लगाई थी. लेकिन भारत की संसदीय समिति ने बुलाया, तो इन बहुराष्ट्रीय सोशल मीडिया कंपनियों का रवैया अलग ही दिखा.

मालूम चला कि भारतीय संसदीय समिति के बुलावे को लेकर कंपनी प्रबंधन का रवैया निजी पसंद-नापसंद से प्रेरित था. अब करोड़ों का पैकेज पाने वाले सोशल मीडिया कंपनियों के लिए तो भारतीय नीति निर्धारक ‘नेता’ होते हैं, और कॉपोरेट के ये सूरमा इनकी परवाह नहीं करते. फिर कंपनियों के ग्लोबल सीईओ भला कैसे किसी तीसरी दुनिया के देश की किसी समिति के सामने पेश होंगे? और भारतीय एमडी- सीईओ भला कैसे अपनी लगदग दुनिया छोड़कर इनके सामने आते. रही बात इन कंपनियों के पब्लिक पॉलिसी विभाग के प्रोफेशनल्स की, तो इन लोगों के लिए भारतीय संसद, राजनीति जैसे विषय कोई काम के नहीं थे. हर महीने लाखों की तनख्वाह पाने वाले इन लोगों को भारतीय विधि-विधान से जैसे कोई मतलब ही नहीं था. ज्यादातर जिंदगी में कभी संसद या किसी विधानसभा नहीं गए, किसी सांसद या विधायक से नहीं मिले, ना ही जमीनी स्तर के किसी अधिकारी से, ऐसे में इन प्रोफेशनल्स के लिए पब्लिक पॉलिसी मतलब पीआर एजेंसी की नौकरी का नया संस्करण बस था.

अब जब मानसिकता ऐसी हो, तो मामला बिगड़ना ही था. हुआ भी वही. इस पूरे घटनाक्रम को लेकर जब पत्रकारों ने संसदीय समिति के सदस्यों से सवाल किए, तो उन्हें भी संसदीय समिति का प्रोटोकॉल याद आया. बात बिगड़ी और संसदीय समिति ने तीखे शब्दों में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म कंपनियों के इस रवैये पर एतराज जताया. कंपनियों का भारतीय प्रबंधन जो अब तक भारतीय संसद को हल्के से ले रहा था, समझा कि यदि संसदीय समिति बिगड़ी तो कोई नहीं बचा पाएगा, सरकार के इतर कोई विरोधी दल भी साथ नहीं होगा, क्योंकि भारतीय संसदीय परंपरा में संसदीय समिति ‘लघु संसद’ के रूप में जानी जाती है, हर संसदीय समिति का गठन इस तरह से होता है कि उसमें देश के हर हिस्से और प्रमुख राजनैतिक दल का प्रतिनिधित्व हो। संदेश सीधा था- सोशल मीडिया कंपनियां भारतीय विधि-विधान को गंभीरता से ले, वरना कड़े कदम उठाए जा सकते हैं.

सोशल मीडिया कंपनियों के विदेश स्थित मुख्यालयों ने भारतीय प्रबंधन को फटकारा, और भारतीय प्रबंधन क्षमा याचना पर आया, लेकिन तब तक भारत सरकार और सोशल मीडिया कंपनियों के बीच रिश्तों में दरार पड़ गई थी. दूध में दही गिर चुका था, अब कुछ नहीं हो सकता था. एक कंपनी ने अपनी पब्लिक पॉलिसी हेड को बाहर का रास्ता दिखाया, तो दूसरी कंपनियों ने अपनी पब्लिक पॉलिसी टीम को हड़काया. सोशल मीडिया कंपनियों और भारत सरकार के बीच वो कड़वाहट कम होने के बदले बढ़ती ही गई. जिसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार इन कंपनियों का पब्लिक पॉलिसी विभाग था, जिसकी जिम्मेदारी होती है कंपनी प्रबंधन और सरकार के बीच समन्वय कायम रखना.

अब ट्विटर का ही उदाहरण लें. ट्विटर की ग्लोबल पब्लिक पॉलिसी हेड रही विजया गाडे, जिन्हें एलन मस्क ने सबसे पहले बाहर का रास्ता दिखाया, को भारत में ट्विटर को लेकर हुए तमाम विवादों के पीछे माना जाता रहा है. कहते है विजया गाडे की मोदी सरकार, दक्षिणपंथियों, सवर्णों को लेकर नापसंदगी के चलते ट्विटर इंडिया कई बार विवादों में रहा. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख के ट्विटर हैंडल पर कार्रवाई हो या मोदी विरोधी फेक न्यूज़ फैलाने वाले ट्विटर एकाउंट्स को लेकर चुप्पी, मोहतर्मा का अपना फैसला होता था, जो प्रोफेशनल ना होकर निजी पसंद-नापसंद पर ज्यादा रहा। जब तत्कालीन ट्विटर सीईओ जैक डोरसी भारत आए, तो विजया गाडे ने उन्हें पत्रकार बरखा दत्त और कई सोशल एक्टिविस्ट से मिलाया, जिनमें से एक ने जैक डोरसी के हाथ में सवर्ण विरोधी पोस्टर थमा दिया. वो फोटो बहुत वायरल हुई, तो ट्विटर को माफी मांगनी पड़ी.

ट्विटर इंडिया प्रबंधन के इन्ही कारनामों का असर रहा कि भारत सरकार के इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडिएटरी गाइडलाइन एवं डिजिटल मीडिया एथिक्स) संशोधन नियम, 2022 के तहत् सूचना जारी करते हुए कहा कि सोशल मीडिया कंपनियों को अपने यूजर्स की शिकायतों को गंभीरता से लेना होगा और भारतीय नागरिकों को भारतीय संविधान के तहत् मिले अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना होगा. यदि सोशल मीडिया कंपनिय़ां ऐसा नहीं करती, तो इसके लिए एक तीन सदस्यीय पैनल का गठन होगा, जो भारतीय यूज़र्स की शिकायतों को सुनेगा और अपना फैसला सुनाएगा.

अब एलन मस्क परेशान है. कह रहे है कंपनी घाटे में है. कर्मचारी मुफ्त की मोटी तनख्वाह ले रहे है, लेकिन काम कुछ नहीं करते. एलन मस्क की इस बिजनेस वाली चिंता को भी समझतें हैं। पूरी दुनिया में 4.65 अरब लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हैं, याने कुल आबादी का 58.7 फीसदी, और इसी के चलते सोशल मीडिया कंपनियां साल 2022 में 18.2 लाख करोड़ रूपये का कारोबार कर रहीं हैं. बड़ा आंकड़ा है. और इस कारोबार में भारत की हिस्सेदारी भी समझे. भारत में 46.7 करोड़ लोग सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर हैं. सिर्फ साल 2021-22 में इन सोशल मीडिया कंपनियों को भारत से ही 1 करोड़ 90 लाख यूजर्स मिले, इतनी तो यूरोप के कई देशों की आबादी भी नहीं है। इतना होने के बाद यदि सोशल मीडिया कंपनियां भारत के विधि-विधान को मानने में पसंद-नापसंद सामने लाए, वो भी भारतीय संसद के सामने, तो ये तो होना ही था.

एलन मस्क, ट्विटर के नए मालिक को एक भारतीय सलाह- हमारी संसद में बैठे माननीयों से संवाद इतना आसान नहीं होता, जरा संभल कर.

( लेखक इंटरनेशनल रिलेशन्स और ग्लोबल इकॉनामी कवर करते हैं, और भारतीय संसद बीट के संवाददाता हैं.)

 



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