जांच एजेंसियां (सांकेतिक तस्वीर).
Investigative Agencies: 2014 से जब नरेंद्र मोदी ने देश के प्रधान मंत्री बनने की तैयारी में अपना अभियान शुरू किया तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनका आह्वान था, “न खाऊँगा न खाने दूँगा”। उनके प्रधान मंत्री बनने के बाद इसका असर भी फ़ौरन दिखाई दिया। केंद्र सरकार की नौकरशाही में यह संदेश गया तो ऐसा लगा जैसे अब जल्दी ही लाल फ़ीताशाही ख़त्म होगी। पर जैसे-जैसे समय बीतता गया, ये शुरुआती लक्षण ठंडे पड़ते गये। हालाँकि मोदी जी दो बार अपने बूते पर और तीसरी बार अन्य दलों की मदद लेकर सरकार की तीसरी पारी खेल रहे हैं।
पर इन वर्षों में जिस बात ने सबको चौंकाया वो ये कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोदी जी का ये अभियान केवल विपक्षी दलों तक ही सिमट कर रह गया है। उनमें से भी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे जिस विपक्षी दल के नेता मोदी जी और अमित शाह के शरणागत हो जाते हैं उनके सौ खून भी माफ़ कर दिये जाते हैं। इतना ही नहीं उन्हें संसद या मंत्री बना कर पुरुस्कृत भी किया जाता है।
रणनीति के हथियार बने हैं केंद्रीय जाँच एजेंसियाँ
मोदी-शाह की इस रणनीति के हथियार बने हैं केंद्रीय जाँच एजेंसियाँ, जो लगातार ‘हिज़ मास्टर्स वॉइस’ की तर्ज़ पर काम कर रही हैं। इसलिए लगातार विपक्ष उन पर जाँच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगा रहा है, संसद में भी और संसद के बाहर भी। वैसे तो सीबीआई, आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की छवि बड़े-बड़े मामलों को लम्बा खींचने या दबाए रखने की है। पर मोदी राज में ये चमत्कार हो रहा है कि सत्ता पक्ष से जुड़े लोगों पर तो प्राथमिक कार्यवाही भी नहीं होती किंतु विपक्ष के नेताओं पर हवा की गति से कार्यवाही होती है। कई मामलों में तो केवल गवाह के बयान पर ही मुख्य मंत्री और बड़े-बड़े नेताओं को सीखचों के पीछे महीनों और सालों के लिए डाल दिया जाता है। यह आश्चर्यजनक है। हाल ही में सरकार की इस प्रवृत्ति पर कुछ रोक लगती नज़र आई है।
सुप्रीम कोर्ट ने लिया जाँच एजेंसियों को आड़े हाथ
बीते कुछ महीनों में जिस तरह सुप्रीम कोर्ट ने भ्रष्टाचार के कई मामलों पर देश की जाँच एजेंसियों और सरकार को आड़े हाथों लिया है उससे यह संदेश गया है कि जाँच एजेंसियाँ राजनैतिक दबाव में काम कर रहीं हैं, निष्पक्षता से क़ानून के दायरे में नहीं। मान्य सिद्धांत यह है कि आरोपी चाहे किसी भी दल या विचारधारा को क्यों न हो, यदि उसने अपराध किया है तो उसकी जाँच निष्पक्षता से ही की जानी चाहिए। बेवजह किसी भी आम या ख़ास अपराधी को क़ानून की ग़लत धारा लगा कर जेल में रखना ग़लत है। उसी तरह किसी ख़ास रुतबे वाले कुख्यात अपराधी को भी क़ानून की धाराओं का ग़लत इस्तेमाल कर पैरोल दिलवाना भी ग़लत है। ज़ाहिर सी बात है कि जाँच एजेंसियों द्वारा ऐसी ग़लतियाँ बिना किसी दबाव के नहीं होती।
ताज़ा उदाहरण: दिल्ली शराब नीति घोटाला
ताज़ा उदाहरण दिल्ली शराब नीति घोटाले का है। जिस तरह शराब नीति घोटाले को लेकर आरोपी नेता एक के बाद एक ज़मानत पर छूट रहे हैं उससे जाँच एजेंसियों की ‘जाँच’ को लेकर सवाल उठ रहे हैं। चुनावों से पहले और चुनावों के दौरान यह माहौल बनाया जा रहा था कि इन नेताओं का अपराध काफ़ी संगीन है, इसीलिए इन्हें ज़मानत नहीं मिल रही। परंतु लंबे समय तक कछुए की चाल चल रही इस मामले की ‘जाँच’ ने इन एजेंसियों की क्षमता को शक के घेरे में अवश्य खड़ा कर दिया है। वहींसुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख़ और सख़्त आदेश के बाद जाँच एजेंसियों द्वारा अपनाए गए दोहरे मापदंड का भी पर्दाफ़ाश हुआ। यदि जाँच एजेंसियाँ सभी आरोपियों को एक ही पैमाने से माँपेंगी तो जनता के बीच सही संदेश जाएगा, सिसोदिया हो, केजरीवाल हो, संजय राउत हो, या अन्य कोई आम आदमी, क़ानून की नज़र में सभी एक समान हैं। पर यह भी विचारणीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इन वीआईपी आरोपियों के मामले में ये रुख़ पहले क्यों नहीं अपनाया?
उल्लेखनीय है कि केंद्रीय जाँच एजेंसियों पर निगरानी रखने के लिए 1997 के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ (जैन हवाला कांड केस) के फ़ैसले ने केंद्रीय सतर्कता आयोग का पुनर्गठन किया था। जाँच एजेंसियों को निष्पक्ष और राजनैतिक दबाव से मुक्त करने की दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक फ़ैसला था। ज़ाहिर सी बात है कि तमाम राजनैतिक दलों ने इसका विरोध भी किया। लेकिन उसके फ़ौरन बाद ही से जिस तरह जाँच एजेंसियों को ‘पिंजरे में बंद तोता’ और ‘सत्तापक्ष के हथियार’ के नामों से नवाज़ा गया है, यह लोकतंत्र के लिए उचित नहीं था। इसलिए यदि जाँच एजेंसियों को अपनी छवि सुधारनी है तो उन्हें भय मुक्त हो कर ही कार्य करना होगा। जाँच अधिकारी, चाहे छोटे पद पर हो या बड़े पद पर, उसे इस बात के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए कि यदि उसने किसी केस की जाँच को लेकर, किसी नेता के मन की नहीं मानी तो हद से हद उस अधिकारी का तबादला ही हो होगा।
परंतु, यदि वो अधिकारी केस की फाइल पर सभी क़ानूनी तथ्यों को सही से दर्ज कर देता है तो कोई भी अधिकारी उसके ख़िलाफ़ नहीं जा सकता। उम्मीद की जानी चाहिए कि देश में आज भी ऐसे ईमानदार अधिकारी होंगे जो तबादले के डर से भयभीत हुए बिना अपना काम निष्ठा से करना जानते हैं। समय की माँग है कि ऐसे अधिकारी महत्वपूर्ण केसों में सही तथ्यों को दर्ज कर केस फाइल के ज़रूरी पन्नों पर अपनी निष्पक्ष राय अवश्य दर्ज कराएँ। भविष्य में जब भी कभी केस फाइल की जाँच किसी निष्पक्ष समिति द्वारा की जाएगी तो दूध का दूध और पानी का पानी अपने आप सामने आ जाएगा। ऐसे में एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए जाँच एजेंसियों का निष्पक्ष और दबाव मुक्त होना अनिवार्य है।
लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं।