पीएम मोदी के साथ शी जिनपिंग
गलवान घाटी की घटना और कोविड महामारी के पहले तक चीन और भारत के बीच आपसी व्यापार बहुत तेजी से बढ़ा था। पर पलड़ा चीन के पक्ष में भारी रहा। जिसको लेकर भारत के आर्थिक जगत में कुछ चिंता व्यक्त की जा रही थी। विशेषकर कच्चे माल के निर्यात को लेकर भारत में विरोध के स्वर उभरने लगे। तर्क यह है कि जब दोनों ही देशों की तकनीकी क्षमता और श्रमिकों की उपलब्धता एक जैसी है तो भारत भी क्यों नहीं निर्मित माल का ही निर्यात करता? उधर अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय निर्यातकों को चीन से कड़ा मुकाबला करना पड़ता है। उनकी शिकायत है कि चीन की सरकार अपने निर्माता और निर्यातकों को जिस तरह की सहूलियतें देती है और साम्यवादी देश होने के बावजूद चीन में जिस तरह श्रमिकों से जिस तरह काम लिया जाता है, उसके कारण उनके उत्पादनों का मूल्य भारत के उत्पादनों के मूल्य की तुलना में काफी कम रहता है और इसलिए चीन का हिस्सा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में लगातार बढ़ता जा रहा है। जबकि भारत की सरकार तीव्र आर्थिक प्रगति दर की बात तो करती है, पर उत्पादन की वृद्धि के लिए आवश्यक आधारभूत ढांचा नहीं सुधार पा रही है। इसलिए हमारे निर्यातक पिट रहे हैं।
आंकड़ों के अनुसार 2021 में दोनों देशों के बीच आपसी कारोबार125 अरब डॉलर के पार चला गया था। इस आँकड़े में चीन से होने वाला आयात करीब 100 अरब डॉलर का है। गलवान घाटी की घटना के बाद भारत ने कई दर्जन चीनी ऐप पर रोक लगा दी। इसके साथ ही संवेदनशील कंपनियों और क्षेत्रों में चीन के निवेश को भी सीमित कर दिया गया।
दूसरी तरफ राजनैतिक दायरों में चीन के साथ चले आ रहे सीमा विवाद, उसकी कश्मीर और अरूणाचल नीति और पाकिस्तान के साथ लगातार प्रगाढ़ होते सामरिक सम्बन्ध चिंता का विषय बने हुए हैं। जिसके आधार पर बार-बार ये चेतावनी दी जाती है कि चीन से सम्बन्ध सोच-समझ कर बढ़ाये जायें। कहीं ऐसा न हो ‘चीनी हिंदी भाई-भाई’ का नारा लगाते-लगाते हम 1962 जैसी स्थिति में जा पहुँचें, जब चीन विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बनकर हम पर हावी हो जाए।
इस तर्क के विरोध में सोचने वालों का कहना है कि चीन 1962 की तुलना में अब बहुत बदल गया है। उसे पता है कि लोकतंत्र की ओर उसे क्रमशः बढ़ना होगा। आर्थिक उदारीकरण, सूचना क्रांति और चीन में धनी होता मध्यम वर्ग, अब साम्यवादी अधिनायकवाद को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं करेगा। इसलिए चीन के हुक्मरानों ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में लोकतंत्र का अध्ययन करने के लिए अपने दल भेजे हैं। वे चाहते हैं कि उनके देश में उनके इतिहास को ध्यान में रखकर ही लोकतंत्र का मॉडल अपनाया जाये। जिसके लिए वे अपना नया मॉडल विकसित करना चाहते हैं। इसी विचारधारा के लोगों का यह भी मानना है कि चीन भारत पर हावी होने की कोशिश इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि उसके दो पड़ोसी रूस और जापान काफी ताकतवर हैं और उसे प्रतिस्पर्धा मानते हैं। साथ ही पिछले दो दशक से चीन की आर्थिक प्रगति में सक्रिय सहयोग देने वाला अमरीका चीन की बढ़ती ताकत से घबराकर अब उससे दूर हट गया है और नई आर्थिक सम्भावनाओं की तलाश भारत में कर रहा है। इसलिए अमरीका भी ऐसी किसी परिस्थिति में भारत का ही साथ देना चाहेगा। जिससे चीन की विस्तारवादी नीति पर लगाम कसी रहेगी।
चीन के आन्तरिक मामलों के जानकारों का कहना है कि चीन का मौजूदा नेतृत्व काफी संजीदगी भरा है। उसकी रणनीति यह है कि जब तक शिखर पर न पहुँचे, तब तक बर्दाश्त करो, समझौते करो, खून का घूंट भी पीना पड़े तो पी लो और अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के इतिहास को एक तरफ कर आर्थिक प्रगति का रास्ता साफ करो।
चीन मामलों के एक विशेषज्ञ श्री किशोर महबूबानी हैं जो सिंगापुर की ली क्वान यूनिवर्सिटी के डीन रह चुके हैं और तीन दशक तक सिंगापुर के विभिन्न देशों में राजदूत भी रह चुके हैं, का भी कुछ ऐसा ही मत है। उनका विचार में भारत और चीन को प्रतिस्पर्धा नहीं करनी चाहिए। हर तरह के पारस्परिक द्वेष को भूलकर एक दूसरे की मदद से अपने आर्थिक विकास के एजेंण्डा पर कार्य करना चाहिए। जिससे दोनों देशों की शक्ति बढ़ेगी। इसलिए किशोर कहते हैं कि चीन और भारत लड़ें नहीं, साथ-साथ बढ़ें।
पर ये होता नहीं दिखता। क्योंकि चीन भारत पर और भारत चीन पर विश्वास नहीं करते। चीन हमेशा हमारी सीमाओं पर एक ख़तरे की तरह ही रहा है और आगे भी रहेगा। इसलिये हमें युद्ध की संभावना को टालते हुए अपनी सैन्य ताक़त बढ़ानी चाहिये। क्योंकि कई दौर की बातचीत के बावजूद परमाणु ताकत से लैस दोनों पड़ोसियों में तनाव घटने का नाम नहीं ले रहा। दोनों पक्षों ने हज़ारों सैनिकों को तैनात कर रखा है। इसके साथ ही सेना के टैंक और लड़ाकू विमानों समेत भारी सैन्य हथियारों का जमावड़ा भी तैनात है। संघ और बीजेपी के कार्यकर्ता तो लगातार चीन के बहिष्कार का नारा बुलंद करते रहते है परंतु मोदी जी तमाम विवादों के बावजूद चीन का नाम लेने से भी बचते आये हैं। वे भारत के अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो सबसे ज्यादा बार चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंगसे दोस्ताना अन्दाज़ मी मिले हैं। ये विरोधाभास आम भारतीय की समझ के परे है।
इसलिये मोदी सरकार को चीन के मामलों के भारतीय विशेषज्ञों के सुझावों का संज्ञान लेना चाहिए। भारत चीन समस्या का कोई ठोस हल निकालना तो निकट भविष्य में संभव नहीं देख रहा। यदि ऐसा हो पाता तो मोदी सरकार द्वारा विश्व भर में एक सकारात्मक संकेत भेजा जा सकता था। दुनिया भर में भारत की सकारात्मक पहल से दो देशों के बीच चली आ रही बरसों की दुश्मनी भी कम हो सकती थी और आपसी सौहार्द की भावना भी बढ़ती। ऐसा होने से भारत-चीन के व्यापार में भी फ़ायदा होता और दोनों देशों की आर्थिक व्यवस्था भी सुधरती। क्योंकि दो देशों के बीच औद्योगिक तरक़्क़ी से मनमुटाव भी सुधरता है और दोनों देशों के बीच शांति भी स्थापित होती है। पर चीन के इतिहास और मौजूदा रवैया देख कर ऐसा होना संभव नहीं लग रहा।इसलिये हमें चीन से उसी भाषा में बात करनी चाहिये जो भाषा वो समझता है।
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