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अयोध्या और श्रीराम

सभ्यता(युग) के आरम्भ से लेकर अन्त तक जिसके अस्तित्व और अस्मिता का अंत नहीं हो सकता, उस अयोध्या की माटी पर बड़े-बड़े देवता भी आकर अपने इष्ट को नमन करते थे तो मनुष्यों की विसात ही क्या!

राम मंदिर (फाइल फोटो)

संत श्री शिवनाथ दास-

जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भांति यह सारा दृश्य जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छावालों के लिए एकमात्र नौका है। उन समस्त कारणों से परब्रह्म ‘श्रीराम’ कहलानेवाले और अवध में जन्म लेनेवाले परब्रह्म ‘श्रीराम’ की मैं वन्दना करता हूं। इसके साथ-साथ ब्रह्म ‘श्रीराम’ की मातृभूमि अयोध्या की धूलि को मस्तक पर धारण करता हूं, जिसने परब्रह्म ‘श्रीराम’ को अपने गोद में जन्म दिया। चूंकि

॥ जननि जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसी ॥

जन्मभूमि का महत्व जन्म देने वाली माता से कम नहीं है। यह ध्यातव्य है कि श्रीभोलेबाबा को हमलोग चिताभस्म लेपनं कहते हैं। इसका आशय लोग समझते हैं कि मरघट यानि श्मशान की राख ‘ भोले बाबा अपने शरीर पर लेपन करते थे। परन्तु ऐसी बात नहीं है। चिता का मतलब यह भी है कि चित्त में जो आ जाय और चित्त में आया तो केवल अयोध्या।

देवता समान थे भगवान श्रीराम के पूर्वज

अयोध्या में जो भी राम के पूर्वज बनकर आए थे, उनलोगों का चरित्र किसी भी देवता से कम नहीं था, बल्कि देवताओं के चरित्र से भी ऊपर था। यदि राजा रघु, राजा दीलिप, राजा इक्ष्वाकु से लेकर मन्धाता तक के चरित्रों का संग्रह किया जाय तो वह संग्रह भी ‘रामायण’ के तरह ही वृहद ग्रन्थ का स्वरूप धारण कर लेगा। इनके पूर्वज राजा हरिशचन्द्र की कहानी तो जगतविदित ही है। इन सबों की जन्मभूमि अयोध्या ही रही है। जैसे गंगा मैय्या के दोनों छोर ( किनारे) या तीर पर कुश-काश उग आते हैं, उसी तरह अयोध्या के किनारे परमपावन सरयु के दोनों तीर पर कुश—काश तो मौजूद था ही; किन्तु समय को क्या पता कि मेरे पीठ पर अयोध्या जैसी महान नगरी भी मौजूद है, जो परब्रह्म की जन्मभूमि ही नहीं, राजधानी भी है।

अयोध्या में आते थे देवता

सभ्यता(युग) के आरम्भ से लेकर अन्त तक जिसके अस्तित्व और अस्मिता का अंत नहीं हो सकता, उस अयोध्या की माटी पर बड़े-बड़े देवता भी आकर अपने इष्ट को नमन करते थे तो मनुष्यों की विसात ही क्या! कुछ काल पूर्व ही जब तक वैष्णव लोग अयोध्या जैसे तीर्थ का सेवन कर वापस नहीं आते थे, तब तक उन्हें वैष्णव नहीं कहा जाता था। भगवान ‘श्रीराम’ का साथ जितने भी बंदर-भालू दिये थे, वे सब अयोध्या जाकर वैष्णव बन अपने-अपने घर वापस आ गये थे। परन्तु श्री हनुमानजी वहां से वापस नहीं हुये थे, चूंकि श्री हनुमानजी ने  श्रीराम से स्पष्टत: कहा कि “हे श्रीराम् ! आपको छोड़कर कोई वापस हो जाय, ऐसा नहीं होता है। चूंकि हरेक के साथ, हर जगह आप विद्यमान हैं। इसलिए मेरे वापस होने पर भी आप हर जगह विद्यमान ही रहेंगे। परन्तु मैं अयोध्या जैसी पावन नगरी को छोड़कर कैसे जीवित रह सकता हूं? अतएव आप मुझे अयोध्या से वापस जाने की आज्ञा मत दें।”

हनुमान जी ने मांगा था अयोध्यावास

धन्य है अयोध्या, जो श्रीहनुमानजी जैसे सच्चे भक्त को अपनी नीति पर रहने का सुअवसर देती है। हनुमानजी के भगवान श्रीराम से स्वयं के लिए अयोध्यावास मांगे जाने का साक्षी आज भी हनुमानगढ़ी के रूप में जगतप्रसिद्ध है। भगवान की परम अहैतुकी कृपा का परमस्तम्भ हनुमानगढ़ी आज  भी साकार है। परन्तु ‘श्रीराम के गढ़ अर्थात मंदिर के आकार नहीं लेना ‘ यह भगवतलीला नहीं तो क्या मानवलीला है! किसी मलेच्छ के हृदय में दुर्विचार को धारण कराकर उन्होंने (श्रीराम) अपने साकार प्रतीक अर्थात मंदिर को मिटवा डाला, जिसके लिए जलविहीन मछली की भाँति श्रीराम – भक्तों में तड़प थी, अवध तीर्थ के लिए ‘श्रीराम’ भक्त छटपटा-छटपटा कर मरते रहे, यह भी उन्हीं की लीला है। प्रकारांतर से  नास्तिकवाद को मौका देना आस्तिकवाद को ही सबल करना है। जब नास्तिक परम्परा जागृत नहीं होगी तो आस्तिकता को कायम रखने वाला प्रहरी कमल के फूल की भांति कैसे खिलेगा।

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कमल खिला और प्रभु श्रीराम का मंदिर साकार हुआ

यह सर्वविदित है कि कमल कीचड़ में ही खिलता है। और यही हुआ कमल खिला और हमारे प्रभु श्रीराम का मंदिर साकार हो गया। जितनी उल्टी गीत गायी जायेगी, उसकी उतनी ही सीधी प्रतिक्रिया होगी। यदि हिन्दुत्व के अस्तित्व को खंड-खंड भी करके बांटा जाय तो पुनः वह एक हो जायेगा। जैसे गंगा के गोद में छोटी-बड़ी सहायक नदियां आकर मिल जाती है और गंगा में विलीन हो, गंगा ही कहाने लगती है। उसी तरह खंड-खंड में बंटकर भी सारे धर्मावलम्बी हिन्दु कहाने लगते हैं और हिन्दुत्व की मर्यादा केवल राम का चरित्र है। राम के साथ-साथ अयोध्या के प्रति विशुद्ध भावना ही तो राम – रस का पान करा देने वाला होती है। इस लोक में भी आनन्द करते हुए जीव बैकुण्ठ का वासी बन जाता है। अयोध्या को अलग रखकर केवल राम के अस्तित्व पर ध्यान देने से ही भक्ति हरा-भरा नहीं होती । जैसे पौधे के लिए जल के साथ-साथ मिट्टी की आवश्यकता है, उसी प्रकार राम के साथ-साथ अयोध्या के अस्तित्व को बरकरार रखने की भी आवश्यकता है।तुलसी बाबा कहते हैं कि नगर(अयोध्या) का ऐश्वर्य कुछ भी नहीं कहा जा सकता। उसे देखने पर ऐसा जान पड़ता, मानो ब्रह्माजी की कारगरी बस इतनी ही है। नगर के सभी निवासी श्रीरामचन्द्रजी के चन्द्रमा के समान मुख देखकर हर तरह से सुखी थे:-

॥ कहि न जाई कछु नगर विभूति ।

जनु एतनिअ बिरंची करतूती ॥ ॥

सब बिधि सब पुर लोग सुखारी ।

रामचंद्र मुख चंदु निहारी ॥

 

(विदेह संत शिवनाथ दास जी देवरहाबाबा के शिष्य हैं)

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