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क्या आपके पास मेडिक्लेम है?             

ऐसे कई क़िस्से आपको मिल जाएँगे जहां अस्पतालों ने बीमा कंपनियों को ठगने की नियत से मोटे-मोटे बिल बना डाले। जब बिल पास नहीं हुए तो मरीज़ों पर भुगतान का दबाव डाला गया। मरीज़ों को मजबूरन बिल का भुगतान करने के लिए अपनी ज़मीन जायदाद बेचनी पड़ी।

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प्रतीकात्मक तस्वीर

जब भी कभी किसी को अस्पताल में महंगे इलाज, दुर्घटना या विशेष ट्रीटमेंट के लिए जाना पड़ता है तो अस्पताल में पंजीकरण करते समय ही आपसे पूछ लिया जाता है ‘क्या आपके पास मेडिक्लेम है?’। यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब हां में देने से कई लोग गर्व महसूस करते हैं। करें भी क्यों नहीं, आख़िर वो बीमा कंपनियों को नियमित रूप से स्वास्थ्य बीमा का प्रीमियम जो देते हैं। बीमा धारक को कंपनी के किए हुए वायदों पर विश्वास होता है तभी तो वो निःसंकोच बड़े से बड़े अस्पताल में इलाज के लिए चले जाते हैं। इस उम्मीद से कि बीमा कंपनी उनके इलाज का खर्च उठा लेगी। परंतु ज़्यादातर मामलों में ऐसा नहीं होता।

स्वास्थ्य सेवा के नाम पर हर सरकार बड़े-बड़े दावे ज़रूर करती है परंतु ज़मीनी हक़ीक़त इससे काफ़ी अलग है। आज के माहौल में यदि कोई भी व्यक्ति किसी बड़े अस्पताल में भर्ती होता है तो उसे इस बात का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं होता कि महंगे अस्पतालों में सेवा भाव बचा ही नहीं। वो तो सिर्फ़ मरीज़ की जेब पर ध्यान देते हैं। यदि मरीज़ थोड़ा सा जागरूक है या संपर्क वाला है तो उसे अस्पताल से कम चूना लगेगा, लेकिन चूना लगेगा ज़रूर। क्योंकि अस्पताल में भर्ती होना एक मजबूरी है और मजबूरी का फ़ायदा उठाना इन बड़े अस्पतालों को बखूबी आता है। मिसाल के तौर पर यदि आपके सीने में जलन या घबराहट जैसी स्थित उत्पन्न होती है और आप किसी भी नामी अस्पताल में चले जाते हैं तो वहां पर बिना देर किए आपको प्राथमिक चिकित्सा तो ज़रूर दी जाती है। उसके साथ ही कई ऐसे फ़ालतू के टेस्ट आदि भी किए जाते हैं जिनकी ज़रूरत बिलकुल भी नहीं होती। ऐसा केवल अस्पताल का बिल बढ़ाने की दृष्टि से ही किया जाता है।

यदि मरीज़ के पास किसी भी तरह का स्वास्थ्य बीमा या मेडिक्लेम है तो आपको भर्ती होने के लिए दबाव डाला जाता है। केवल इसी दृष्टि से कि बिना भर्ती हुए आप मेडिक्लेम की कैशलेस सुविधा का फ़ायदा नहीं उठा पाएंगे। कैशलेस यानी कि मुफ़्त का इलाज। मुफ़्त के इलाज के लालच में मरीज़ और उसके तीमारदार भी अस्पताल के झाँसे में आ जाते हैं और बिना पढ़े कई सारे कागज़ों पर हस्ताक्षर भी कर देते हैं। फिर क्या, अस्पताल आपके साथ राजाओं की तरह का व्यवहार करता है। इस दिखावट की आड़ में अस्पताल ऐसे तमाम टेस्ट और जांच शुरू कर देता है जिनकी इलाज की दृष्टि से ज़रा भी आवश्यकता नहीं होती। ऐसा केवल बीमा कंपनी को एक मोटा बिल भेजने की मंशा से किया जाता है।

यहां आपके साथ एक क़िस्सा साझा करना सही होगा। एक किसान को खेतों में काम करते समय उसके हाथ पर चोट आई। परिवार वाले उसे नज़दीकी अस्पताल में ले गये। जिस अस्पताल में उस किसान को ले जाया गया वो एक नामी अस्पताल था। प्राथमिक उपचार करते समय वहां के डॉक्टर ने बातों-बातों में उससे पूछ लिया कि क्या आपके पास मेडिक्लेम है? जैसे ही किसान ने हां कहा तो डॉक्टर ने उसके हाथ पर टांके लगाते हुए कहा कि खून काफ़ी बह गया है और आपकी कुछ और जाँच भी की जाएंगी। इसके लिए आपको यहां भर्ती होना पड़ेगा। चूँकि आपके पास मेडिक्लेम है इसलिए आपकी जेब से कुछ नहीं जाएगा। हम जाँच कर संतुष्ट होने के बाद ही आपको घर भेजेंगे। मरीज़ और उसके रिश्तेदारों को लगा कि जब अस्पताल आए ही हैं तो जाँच कराने में क्या परहेज़। इसलिए वे राज़ी हो गए। कई जाँच होने के बाद जब किसान का बिल ज़्यादा नहीं बढ़ा तो डाक्टरों ने ये तय किया कि जहां पर चोट आई है वहाँ की प्लास्टिक सर्जरी की जाए। किसी न किसी तरह किसान को राज़ी किया गया और एक साधारण सी चोट के लिए बड़ा सा ऑपरेशन कर डाला। जब बिल की रक़म काफ़ी मोटी हो गई तो उसे बीमा कंपनी के पास भेजा गया, जिसे कंपनी ने पास करने से मना कर दिया।

ऐसे कई क़िस्से आपको मिल जाएँगे जहां अस्पतालों ने बीमा कंपनियों को ठगने की नियत से मोटे-मोटे बिल बना डाले। जब बिल पास नहीं हुए तो मरीज़ों पर भुगतान का दबाव डाला गया। मरीज़ों को मजबूरन बिल का भुगतान करने के लिए अपनी ज़मीन जायदाद बेचनी पड़ी। इससे बीमा धारकों का बीमा कंपनी से विश्वास उठने लगा। जबकि गलती अस्पतालों की है।

जब तक देश में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए तय मापदंड नहीं बनेंगे और उन्हें सख़्ती से लागू नहीं किया जाएगा तब-तब ऐसा होता रहेगा। सरकार को चाहिए कि हर इलाज के लिए मापदंडों को तय किया जाए और देश भर के सभी अस्पतालों में इलाज के मापदंड और उनकी दरों को प्रमुखता से प्रदर्शित किया जाए। इससे अज्ञानी मरीज़ों व उनके रिश्तेदारों को सभी तय नियम और मापदंड के बारे में पता रहेगा और साथ ही उनको इलाज के लिए कितना पैसा देना होगा उसकी भी जानकारी मिल सकेगी। यदि ऐसा होता है तो कभी भी कोई अस्पताल किसी की छोटी सी चोट के लिये प्लास्टिक सर्जरी करने की जुर्रत नहीं करेगा। इससे बीमा कंपनी की ठगी भी कम होगी, स्वास्थ्य सेवाएँ भी बेहतर होंगी और करदाता के पैसे की लूट भी बचेगी।

*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं

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