Bharat Express

पहाड़ों पर भारी भूस्खलन: ठेकेदारों के शिकंजे में सत्ताधीश

चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं।

uttarakhand

उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तबाही

हिमाचल प्रदेश में पाँच सौ से ज़्यादा सड़कें भूस्खलन के कारण नष्ट हो गई हैं। जो सरकार अपने कर्मचारियों को महंगाई भत्ता नहीं दे पा रही उस पर 5000 करोड़ रुपये का अतिरिक्त भार पड़ गया है। अरबों रुपये की निजी संपत्ति बाढ़ में बह गई है। सैंकड़ों लोग काल के गाल में समा गये। ये सब हुआ हिमालय को बेदर्दी और बेअक्ली से काट-काट कर चार लेन के राजमार्ग बनाने के कारण। परवानु-सोलन राजमार्ग के धँसने की एवज़ में हिमाचल सरकार ने राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण पर उच्च न्यायालय में 650 करोड़ का हर्जाना माँगा है। प्राधिकरण के निदेशक ने इस मामले में अपनी गलती स्वीकारी है और ये माना है कि पहाड़ों में सड़क बनाने का पूर्व अनुभव न होने के कारण प्राधिकरण से ये गलती हुई है।

अदालत में गलती मान लेने से इस भयावह त्रासदी का समाधान नहीं निकलेगा। क्योंकि इसी तरह का दानवीय निर्माण उत्तराखण्ड में चार धाम यात्रा के मार्ग को ‘फोर लेन’ बनाने के लिए बदस्तूर जारी है। पर्यावरणविदों की चेतावनियों की उपेक्षा करके या उनका मज़ाक़ उड़ा कर या उन्हें विकास विरोधी बता कर सत्ताधीश, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, अपने खेल जारी रखते हैं। हिमाचल केडर के सेवानिवृत आईएएस व पर्यावरणविद अवय शुक्ला अपने अंग्रेज़ी लेख, ‘हिमाचल – प्लानिंग फॉर मोर डिजास्टर्स’ में लिखते हैं कि इस पूरे खेल में राजनेता, अफ़सर व ठेकेदारों की मिलीभगत है। वे लिखते हैं कि ऐसी त्रासदी से, इस गठजोड़ को दोहरा लाभ मिलता है। पहले इन सब निर्माण कार्यों में जम कर घोटाले होते हैं और फिर विनाश के बाद पुनर्निर्माण में। ख़ामियाजा तो भुगतना पड़ता है देश की आम जनता को जिसके खून पसीने की कमाई टैक्स के रूप में वसूल कर उसी के विनाश की नीतियाँ बनाई जाती हैं। वैसे वो लोग भी कम दोषी नहीं जो पर्यटन व्यवसाय या अपने लाभ के लिए पहाड़ों पर बड़े-बड़े भवन बनाते आ रहे हैं। जिसमें न तो पहाड़ की परिस्थितिकी का ध्यान रखा जाता है और न पहाड़ों पर परम्परा से चली आ रही भवन निर्माण पद्दति का। पहाड़ों में कभी दुमंज़िले से ज़्यादा घर नहीं बनते थे। ये घर भी स्थानीय पत्थर से उन पहाड़ों पर बनाए जाते थे जिन्हें स्थानीय लोग पक्का पहाड़ कहते हैं। मतलब इन पहाड़ों पर कभी भूस्खलन नहीं होता।

अब तो आप भारत के किसी भी पहाड़ी पर्यटन स्थल पर हज़ारों बहूमज़िली इमारतें, होटल व अपार्टमेंट देखते हैं जिनमें लिफ्ट लगी होती हैं। इनका निर्माण पहाड़ के सुरम्म्य वातावरण में एक बदनुमा दाग की तरह होता है। इनके निर्माण में लगने वाली सामग्री ट्रकों में भर कर मैदानों से पहाड़ों पर ले जाई जाती है। जिससे और भी प्रदूषण बढ़ता है। पुरानी कहावत है कि विज्ञान की हर प्रगति प्रकृति के सामने बौनी होती है। प्रकृति एक सीमा तक मानव के अत्याचारों को सहती है। पर जब उसकी सहनशीलता का अतिक्रमण हो जाता है तो वह अपना रौद्र रूप दिखा देती है। 2013 में केदारनाथ में बदल फटने के बाद उत्तराखण्ड में हुई भयावह तबाही और जान-माल की हानि से प्रदेश और देश की सरकार ने कुछ नहीं सीखा। आज भी वहाँ व अन्य प्रांतों के पहाड़ों पर तबाही का यह तांडव जारी है।

आज पूरे देश में अनावश्यक रूप से, बहुत तेज़ी से, बिजली की खपत दिन दूनी और रात चौगुनी बढ़  रही है। इसलिए उसके उत्पादन को और बढ़ाने का काम जारी है। पर इंजीनियरों का विज्ञान यहाँ भी प्रकृति से मार खा जाता है। हिमाचल की ‘हरजी जल विद्युत योजना’ को जिस गोविंद सागर से जल की आपूर्ति मिलती है उसमें इन सड़कों के निर्माण में पैदा हुए मलबों से इतनी गाद जमा हो गई है कि अब हरजी प्लांट में कई महीनों के लिए बिजली का उत्पादन बंद कर दिया गया है।

फिर भी हिमाचल की सरकार ने कोई सबक़ नहीं सीखा। वहाँ के उप-मुख्यमंत्री ने घोषणा की है कि पलचन (मनाली) से कुल्लू तक 30 किलोमीटर की नदी को बांधा जाएगा। जिसके लिये उन्होंने 1650 करोड़ की डीपीआर तैयार करवा ली है और केंद्र से इसके लिये आर्थिक सहायता माँगी है। अप-मुख्यमंत्री को इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि ब्यास नदी, लखनऊ की गोमती व अहमदाबाद की साबरमती की  तरह हल्के जल प्रवाह वाली शांत नदी नहीं है, जिसे तटबंधों से बांधा जा सके। ये तो पहाड़ों से निकलती हुई, चट्टानों से टकराती हुई, जल के रौद्र प्रवाह को सहती हुई बहती है। जिसमें पहाड़ों पर होने वाली अचानक तेज़ वर्षा के कारण भारी मात्र में जल आ जाता है। ऐसी नदी को तटबंधों से कैसे नियंत्रित किया जा सकता है? ये तटबंध तो ब्यास नदी के एक दिन के आक्रोश में बह कर कहाँ-के-कहाँ जाएँगे कोई अनुमान भी नहीं लगा सकता। ये ठीक वैसी ही मूर्खता है जैसी हाल ही के वर्षों में उत्तर प्रदेश सरकार ने गंगा की रेत में करोड़ों रुपया खर्च करके एक नहर खोदी जो पहली ही वर्षा में बह गई। या काशी की गंगा में रेत के टापू पर करोड़ों रुपये खर्च करके पर्यटकों के लिए ‘टेंट सिटी’ बनाई। जिसके एक ही अंधड़ में परखच्चे उड़ गये।

चिंता की बात यह है कि हमारे नीति निर्धारक और सत्ताधीश इन त्रासदियों के बाद भी पहाड़ों पर इस तरह के विनाशकारी निर्माण को पूरी तरह प्रतिबंधित करने को तैयार नहीं हैं। वे आज भी समस्या के समाधान के लिए जाँच समितियाँ या अध्ययन दल गठन करने से ही अपने कर्तव्य की पूर्ति मान लेते हैं। परिणाम होता है ढाक के वही तीन पात। ख़ामियाजा भुगतना पड़ता है देश की जनता और देश के पर्यावरण को। हाल के हफ़्तों में और उससे पहले उत्तराखण्ड की तबाही के दिल दहलाने वाले वीडियो टीवी समाचारों में देख कर आप और हम भले ही काँप उठे हों पर शायद सत्ताधीशों की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर पड़ता है तो वे अपनी सोच और नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन कर भारत माता के मुकुट स्वरूप हिमालय पर्वत श्रृंखला पर विकास के नाम पर चल रहे इस दानवीय विनाश को अविलंब रोकें। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो माना जायेगा कि उनका हर दावा और हर वक्तव्य जनता को केवल मूर्ख बनाने के लिए है।



इस तरह की अन्य खबरें पढ़ने के लिए भारत एक्सप्रेस न्यूज़ ऐप डाउनलोड करें.

Also Read