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क्या आस्था मनोरंजन का विषय है?

पिछले कुछ दिनों से एक फ़िल्म को लेकर देश भर में काफ़ी विवाद चल रहा है। कारण है इस फ़िल्म में दिखाए गए भ्रामक दृश्यों और आपत्तिजनक डायलॉग।

पिछले कुछ दिनों से एक फ़िल्म को लेकर देश भर में काफ़ी विवाद चल रहा है। कारण है इस फ़िल्म में दिखाए गए भ्रामक दृश्यों और आपत्तिजनक डायलॉग। समाज का एक बड़ा हिस्सा, धार्मिक गुरु व संत और राजनैतिक दल फ़िल्म के निर्माताओं को हर मंच पर घेर रहे हैं। विवादों के चलते सोशल मीडिया पर इस फ़िल्म को दुनिया भर से काफ़ी ट्रोल भी किया गया है। सवाल उठता है कि क्या मनोरंजन के लिए आप आस्था से खिलवाड़ कर सकते हैं? क्या आस्था मनोरंजन का विषय है?

रामायण पर आधारित फ़िल्म ‘आदिपुरुष’ के निर्माताओं ने इस फ़िल्म में कुछ पात्रों का विवादास्पद चित्रण किया है, जो हिंदुओं की भावना को ठेस पहुँचा रहा है। इसके साथ ही इस फ़िल्म में बोले गये कई ऐसे डायलॉग भी हैं जो कि सभ्य नहीं माने जा सकते। जैसे ही विवाद बढ़ा तो फ़िल्म के निर्माता व संवाद लेखक ने अपने पुराने बयानों से पलटते हुए यह सफ़ाई दी कि “यह फ़िल्म रामायण पर आधारित नहीं बल्कि रामायण से प्रेरित है।” इसके बाद लेखक मनोज मुंतशिर ने विवादित डायलॉगों में संशोधन करने का ऐलान भी कर दिया है।

देश भर के कई हिंदू संगठन इस फ़िल्म के विरोध में खुलेआम उतर आए हैं। कई संगठनों ने तो फ़िल्म के निर्माताओं को फ़िल्म के आपत्तिजनक डायलॉग की भाषा में ही धमकी तक दे डाली है। इन सबके चलते मुंबई पुलिस ने लेखक व निर्माता को सुरक्षा भी दे दी है। पड़ोसी देश नेपाल से भी इस फ़िल्म के विरोध की खबरें आ रहीं हैं। कहा जाता है कि ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा’। तो क्या फ़िल्म के निर्माताओं ने इसी मंशा से इस फ़िल्म को बनाया? या फिर किसी अन्य एजेंडे के तहत ऐसी फ़िल्में योजनाबद्ध तरीक़े से बनाई जाती हैं जो समाज में मतभेद पैदा करने का कम करती हैं? यहाँ पर यह कहना ठीक होगा कि ऐसी फ़िल्में न सिर्फ़ एक तरफ़ा होती हैं बल्कि तथ्यों से भी काफ़ी दूर होती हैं।

वृंदावन में कई वर्षों से भजन कर रहे रसिक संत श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी ने हाल ही में फ़िल्म ‘आदिपुरुष’ और इसी तरह की अन्य फ़िल्मों पर अपनी कठोर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि, “आस्था मनोरंजन का विषय नहीं है। मनोरंजन कभी आस्था नहीं हो सकती और आस्था के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। भगवान की लीलाएँ हमारी आस्था का विषय हैं। जो भी इन्हें मनोरंजन की दृष्टि से बनाता है वो हमारी आस्था के साथ खिलवाड़ करता है।” इस विषय पर स्वामी जी आगे कहते हैं कि, “श्री कृष्ण लीला हो या श्री राम लीला, यह एक मर्यादा के तहत ही दिखाई जाती हैं। यदि कोई इसका चित्रण मनोरंजन की भावना से करता है, उनका उपहास करता है या उसे मर्यादा रहित ढंग से पेश करता है तो वह जो कोई भी हो अपराधी है, जिसका दंड उसे अवश्य मिलेगा। इन लीलाओं को बड़े-बड़े ऋषियों ने जैसा समाधि लगा कर देखा, वही लिखा। इन्हीं लीला चरित्रों के बल पर संतगण भक्तों को सही मार्ग पर चलने का उपदेश देते हैं। ऐसे सत्संगों या धार्मिक सम्मेलनों में जाने वालों को एक अलग अनुभूति होती है।”

स्वामी जी कहते हैं कि “भगवान और उनकी लीला मनोरंजन की चीज़ नहीं है। प्रायः यह देखा गया है कि सामने वाले को रिझाने की दृष्टि से सत्संग और लीला गायन को मनोरंजन बनाया जा रहा है।” सभी से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि, “शास्त्र सम्मत भगवत् चरित्र सुने जाएँ, शास्त्र सम्मत भगवत् लीला अनुकरण के दर्शन किए जाएँ, मनमानी न की जाए।” इस विषय पर श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण स्वामी जी का विस्तृत वीडियो यूट्यूब पर उपलब्ध है।

एक समय था जब ‘जय संतोषी माँ’, ‘संपूर्ण रामायण’ जैसी धार्मिक फ़िल्में श्रद्धा के साथ बनाई जाती थीं। इन फ़िल्मों को लोग पूरी आस्था के साथ देखने जाते थे। सिनेमा हॉल में चप्पल बाहर उतारते थे, फ़िल्म को देखते हुए भक्ति रस में डूब कर रो पड़ते थे और फ़िल्म के समापन के बाद श्रद्धा से पैसे भी चढ़ाते थे। आपको याद होगा कि जब दूरदर्शन पर रामानन्द सागर और बी आर चोपड़ा निर्मित ‘रामायण’ व ‘महाभारत’ का टेलीकास्ट होता था तब सड़कों पर ऐसा सन्नाटा छा जाता था जैसे कि सरकार ने कर्फ़्यू लगा दिया हो। अभी हाल ही में कोविड महामारी के चलते जब रामायण का दोबारा टेलीकास्ट हुआ तो भी उसे उतनी ही श्रद्धा से देखा गया जितना दशकों पहले देखा जाता था। जब इन धारावाहिकों के कलाकार सार्वजनिक स्थलों पर दिखाई देते थे तो ऐसा प्रतीत होता था कि अरुण गोविल में साक्षात ‘प्रभु श्री राम’ व दीपिका चिखलिया में ‘सीता जी’ के दर्शन हो रहे हैं। यहाँ तक कि रामायण में ‘वीर हनुमान’ की भूमिका करने वाले दारा सिंह व महाभारत में ‘गदाधारी भीम’ का किरदार निभाने वाले प्रवीण कुमार को लोग असल जीवन में भी उनके किरदार में ही देखते थे।

परंतु जिस तरह धार्मिक चोला ओढ़ कर मनोरंजन और एजेंडे के तहत बनाई जाने वाली फ़िल्में आजकल बनाई जा रही हैं वे केवल विवाद भड़काने का काम कर रही हैं। तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर आस्था के साथ खिलवाड़ करना किसी भी सभ्य समाज में स्वीकारा नहीं जा सकता। इसके लिए सरकार को कड़े दिशा निर्देश देने की आवश्यकता है, जिससे कि ऐसी किसी भी फ़िल्म को बनने न दिया जाए जो किसी भी धर्म के मानने वालों की आस्था को ठेस पहुँचाए।

*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं

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