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अध्यापकों को भी मिले ग्रेच्युटी की रकम

स्कूल प्रशासन ने 11 नवम्बर 2022 को, मामले की सुनवाई की पहली तारीख़ पर ही ग्रेच्युटी देने की माँग को स्वीकार लिया और मामला रद्द करने की अपील की.

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प्रतीकात्मक तस्वीर

किसी भी कंपनी या प्रतिष्ठान में लंबे समय तक काम करने वाले व्यक्ति को सेवानिवृत होने पर पेंशन, प्रोविडेंट फंड के अलावा ग्रेच्युटी की रक़म भी मिलती है. ग्रेच्‍युटी किसी कर्मचारी को कंपनी की ओर से मिलने वाला इनाम होता है. अगर कर्मचारी नौकरी की कुछ शर्तों को पूरा करता है तो ग्रेच्‍युटी का भुगतान एक निर्धारित फॉर्मूले के तहत निश्चित तौर पर दिया जाता है. अगस्त 2022 तक सभी निजी स्कूल के अध्यापकों को इस सुविधा का लाभ नहीं मिलता था. हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने कई सालों से लंबित पड़े इस मामले में निजी स्कूल के अध्यापकों के हित में एक अहम फ़ैसला दिया है. जो अध्यापकों के पक्ष में है.

याचिकाकर्ता ने अदालत से स्पष्ट करने की अपील की थी कि ‘पेमेंट ऑफ़ ग्रेच्युटी एक्ट, 1972’ की धारा 2 के तहत निजी स्कूल के अध्यापकों को कर्मचारी माना जाए या नहीं? 29 अगस्त 2022 को सर्वोच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने अपना ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए इन अध्यापकों को भी कर्मचारी की श्रेणी में माना. सर्वोच्च न्यायालय के जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी की पीठ द्वारा दिये गये इस फैसले ने सभी शैक्षिक संस्थाओं को अब अध्यापकों को ग्रेच्युटी की रक़म देने के लिए बाध्य कर दिया है. कोर्ट की खंडपीठ ने ऐसी सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया जिनमें शिक्षकों को ग्रेच्युटी न देने की पैरवी की गई थी. फ़ैसले के मुताबिक़ जो भी शिक्षक 1997 के बाद सेवानिवृत हुए हैं उनके संबंधित स्कूलों को भी उन्हें ग्रेच्युटी देनी होगी. इस फ़ैसले से देश के लाखों शिक्षकों को सीधे तौर पर फायदा मिलेगा.

कर्मचारी को मिलने वाली ग्रेच्युटी की रक़म नियोक्ता कंपनी की तरफ से दी जाती है. मौजूदा व्यवस्था के अनुसार यदि कोई कर्मचारी किसी कंपनी या संस्थान में कम से कम 5 साल तक काम करता है तो वह ग्रेच्युटी का हकदार होता है. पेमेंट ऑफ ग्रेच्‍युटी एक्‍ट, 1972 के तहत इसका लाभ उस संस्‍थान के हर कर्मचारी को मिलता है जहां 10 से ज़्यादा लोग काम करते हैं. यदि कोई कर्मचारी नौकरी छोड़ता है या रिटायर हो जाता है, परंतु वह ग्रेच्‍युटी के नियमों को पूरा कर लेता है तो वह ग्रेच्‍युटी के लाभ का हक़दार होता है. अभी तक सभी निजी स्कूल के अध्यापकों को इसका लाभ नहीं मिल रहा था. लेकिन इस फ़ैसले के बाद वे सभी लाभान्वित हो जाएँगे.

परंतु सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बावजूद कुछ स्कूल इसका पालन नहीं कर रहे थे. ताज़ा मामला दिल्ली के एक निजी स्कूल में काम कर रही अध्यापिका का है। इस महिला अध्यापक ने अपने जीवन के 27 साल दिल्ली के इस निजी स्कूल को दिये. मई 2021 में उनके रिटायर होने पर स्कूल प्रशासन ने इन्हें ग्रेच्युटी देने से मना कर दिया. रिटायर होने के एक डेढ़ साल बाद तक वे अपने ग्रेच्युटी के लिए स्कूल को बार-बार लिखती रहीं पर उनके हाथ निराशा ही लगी. अख़िरकार इस महिला ने अदालत का रुख़ किया और दिल्ली उच्च न्यायालय में न्याय की गुहार लगाई. इनके हक़ की लड़ाई के लिये दिल्ली की ‘राधे कृष्णा लीगल एड फाउंडेशन’ ने इस मामले को निःशुल्क लड़ने का निर्णय लिया. संस्था के प्रमुख ट्रस्टी अजय गर्ग एडवोकेट के अनुसार स्कूल में इतने लंबे समय तक कार्य करने पर, इस अध्यापिका की ग्रेच्युटी की रक़म लगभग दस लाख से अधिक बनती थी. शायद इसीलिए दिल्ली का यह निजी स्कूल इस रक़म को देने से बच रहा था।

स्कूल और दिल्ली के शिक्षा विभाग को क़ानूनी नोटिस भेजे जाने पर भी जब कोई उत्तर नहीं आया तो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की गई. याचिका में स्कूल द्वारा अध्यापिका को ग्रेच्युटी की रक़म ब्याज सहित देने व स्कूल पर क़ानून का पालन न करने की उचित क़ानूनी कार्यवाही की माँग की गई.

स्कूल प्रशासन ने 11 नवम्बर 2022 को, मामले की सुनवाई की पहली तारीख़ पर ही ग्रेच्युटी देने की माँग को स्वीकार लिया और मामला रद्द करने की अपील की. कोर्ट ने अपने आदेश में यह भी स्पष्ट कर दिया कि यदि स्कूल द्वारा दी गई राशि से याचिकाकर्ता संतुष्ट नहीं हों तो दिल्ली सरकार का शिक्षा विभाग इस बात को सुनिश्चित करे कि ग्रेच्युटी की सही रक़म याचिकाकर्ता को दी जाए. यदि इसके बाद भी अध्यापिका को कोई शिकायत हो तो वे अदालत का दरवाज़ा खटखटा सकती हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद पीड़ित अध्यापिका को उनकी ग्रेच्युटी की रक़म ब्याज सहित प्राप्त हुई.

देश भर की उच्च अदालतों में आए दिन ऐसे मामले आते हैं जिन पर कोर्ट ऐतिहासिक निर्णय देते हैं. परंतु देश की आम जनता के बीच ऐसे फ़ैसलों को सही ढंग से प्रचारित नहीं किया जाता. यदि ऐसे फ़ैसलों का सही ढंग से प्रचार हो तो जानता के बीच अपने अधिकारों को लेकर न सिर्फ़ जागरूकता फैलेगी बल्कि न्यायपालिका पर विश्वास भी बढ़ेगा. ऐसे महत्वपूर्ण मामलों पर देश की विभिन्न अदालतों द्वारा दिये गये फ़ैसलों को, सोशल मीडिया के माध्यम से, सरल भाषा में आम जनता तक पहुँचाने का काम देश भर में न्यायिक मामलों में कार्य करने वाली सामाजिक संस्थाओं द्वारा भी किया जा सकता है. ऐसी स्वयं सेवी संस्थाएँ पीड़ितों को न्याय दिलाने का काम कम खर्चे पर या निःशुल्क करती हैं, जिससे पीड़ित को कोर्ट जाने में कोई हिचक नहीं होती.

(*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं)

-भारत एक्सप्रेस

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