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Election: कभी यूपी की 17 सीटों पर चुने गए थे दो सांसद तो पश्चिम बंगाल में तीन…जानें क्यों थी ये व्यवस्था और किस अधिनियम ने लगाई रोक

26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ था. इसके बाद साल 1950 के मार्च महीने में देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर सुकुमार सेन को चुना गया था.

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भारत में लोकसभा चुनाव

Election In India: देश में इस दौरान लोकसभा चुनाव-2024 को लेकर बयार बह रही है. राजनीतिक दल अपने-अपने सांसद प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर रहे हैं. तो वहीं कुछ सीटों पर पुराने सांसदों को टिकट न मिलने के कारण वह पार्टी से खफा भी चल रहे हैं. हालांकि किसी भी राजनीतिक दल के लिए ये सिरदर्द कम ही है क्योंकि अब एक सीट पर एक ही सांसद चुनाव लड़ सकता है लेकिन जरा सोचिए अगर एक ही सीट पर दो सांसद चुनाव लड़ते और दोनों को ही अगर राजनीतिक दल टिकट न देते तो सोचिए क्या होता? फिलहाल ये जानकर आपको आश्चर्य होगा कि एक समय ऐसा था जब भारत में एक ही सीट पर दो सांसद चुनाव लड़ते थे.

जानकारों की मानें तो देश के पहले दो आम चुनाव ऐसे थे जिस पर एक-एक सीट पर दो-दो सांसद चुने गए थे. पहले आम चुनाव में ऐसी 86 सीट थीं, जिस पर दो-दो सांसद चुने गए थे, जिसमें एक सामान्य श्रेणी से और एक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से थे. तो दूसरे आम चुनाव में भी यही हाल रहा. इस समय 91 सीट ऐसी रही जहां से दो-दो सांसद चुने गए थे लेकिन फिर आगे चलकर ये व्यवस्था 1961 में एक कानून के पारित होने के बाद खत्म हुई. बता दें कि शुरू में तो इस व्यवस्था को लेकर कुछ नहीं कहा गया लेकिन बाद में दो सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों में सीटों के आरक्षण की व्यवस्था को ठीक नहीं समझा गया.

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इसके बाद जानकारों से सलाह के बाद ये सुझाव सामने आया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सभी सीटें एकल सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्रों वाली होनी चाहिए. इसी के साथ ही फिर दो-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र वाली व्यवस्था को गलत ही माना गया. फिर आगे चलकर यानी 1961 के दो-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र (उन्मूलन) अधिनियम पारित हुआ और इसी के बाद से ये व्यवस्था खत्म हो गई. इसके बाद जब 1962 के लोकसभा चुनाव का देश में हुआ तो इसमें एकल व्यवस्था लागू की गई जो कि आज तक देश में चल रही है. इस तरह से देश में एक निर्वाचन क्षेत्र से एक ही सांसद का निर्वाचन होने की नींव पड़ी.

जानें क्यों थी दो सांसदों की व्यवस्था

राजनीतिक जानकार बताते हैं कि जिन सीटों पर दो सांसदों की व्यवस्था की गई थी वो दरअसल समाज के वंचित वर्गों को प्रतिनिधित्व देने के लिए की गई थी. गौरतलब है कि 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू हुआ था. इसके बाद साल 1950 के मार्च महीने में देश के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर सुकुमार सेन को चुना गया था. इसके कुछ दिन बाद ही संसद ने जन प्रतिनिधित्व अधिनियम पारित किया. इसमें इस बात की जानकारी दी गई थी कि देश में सांसद और विधानसभा चुनाव कैसे कराया जाएगा. पहले आम चुनाव के लिए लोकसभा की कुल 489 सीटें थीं जिनको 401 निर्वाचन क्षेत्रों में बांट गया था. 1951 और 1952 के बीच जब देश के पहले आम चुनाव हुए तो 489 सीटों में से 314 निर्वाचन क्षेत्रों में एक सांसद चुना गया लेकिन देश भर की 86 सीटें ऐसी थीं जिस पर दो-दो सांसद चुने गए. जिसमें से एक सामान्य श्रेणी से और एक अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से सांसद चुना गया.

इन राज्यो में रही दो सांसदों वाली सीट

मिली जानकारी के मुताबिक साल 1951 में दो सांसदों वाली सबसे अधिक सीटें उत्तर प्रदेश (यूपी) में थीं. यानी यहां पर 17 सीटें थी तो वहीं बिहार में 11,मद्रास में 13, मुम्बई में 8, मध्य प्रदेश व पश्चिम बंगाल में छह-छह सीटें थीं. इसके अलावा पश्चिम बंगाल की एक सीट पर तीन सांसद भी चुने गए थे.

फिर 91 सीटों पर चुने गए दो सांसद

इसी तरह देश में जब दूसरा लोकसभा चुनाव 1957 में हुआ तो 91 सीटें ऐसी थीं जिस पर दो-दो सांसदों को चुना गया था. बता दें कि ये चुनाव होने से पहले राज्यों का पुनर्गठन हुआ था. इस तरह से जब 1957 में लोकसभा सीटों की कुल संख्या बढ़कर 494 हो गई थीं और इन सीटों को 401 निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा गया था. इस चुनाव में भी दो-दो सांसदों वाली सबसे अधिक सीटें यूपी में ही थी. यहां 18 सीटों पर दो-दो सांसद थे. तो आंध्र प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, बॉम्बे में आठ-आठ, मध्य प्रदेश में नौ, ओडिशा में छह, पंजाब में पांच और मद्रास में सात सीटों पर दो सांसद चुने गए.

-भारत एक्सप्रेस

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