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एक नजर देशभर में फैले कोचिंग सेंटरों पर

परीक्षा परिणामों में अपेक्षित सफलता पाने के दबाव के कारण कुछ छात्र इस कदर मानसिक रूप से तनावग्रस्त हो जाते हैं कि वे आत्महत्या के बारे में सोचने लगते हैं.

प्रतीकात्मक तस्वीर

बीते माह जनवरी में, सरकार ने कोचिंग सेंटरों पर किशोरों की निर्भरता को कम करने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है. शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों के अनुसार यह प्रस्ताव दिया गया है कि कोचिंग संस्थान केवल 16 वर्ष या उससे अधिक उम्र के छात्रों या दसवीं कक्षा पूरी कर चुके छात्रों को ही दाखिला दें. हर साल, कई छात्र पारंपरिक रूप से चली आ रही स्कूली शिक्षा प्रणाली की कथित कमियों के कारण कोचिंग संस्थानों के माध्यम से सफलता की तलाश में प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. वहीं कई छात्र छठी कक्षा से ही कोचिंग शुरू कर देते हैं, लेकिन परीक्षा परिणामों में अपेक्षित सफलता पाने के दबाव के कारण कुछ छात्र इस कदर मानसिक रूप से तनावग्रस्त हो जाते हैं कि वे आत्महत्या के बारे में सोचने लगते हैं. हाल में आईं कई रिपोर्ट राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा प्रस्तावित ‘कोचिंग संस्कृति’ का समर्थन करने वाले आंकड़ों पर प्रकाश डालती हैं.

प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रति बढ़ता रूझान

प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए निजी कोचिंग में शामिल होने वाले छात्रों की सटीक संख्या अस्पष्ट बनी हुई है, फिर भी प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की वार्षिक शिक्षा स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) की अंतर्दृष्टि इस प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है. देश भर में ग्रामीण छात्रों के बीच किए गए सर्वेक्षण से पता चलता है कि स्कूल के बाद निजी पाठ्यक्रमों के प्रति प्राथमिकता बढ़ी है. विशेष रूप से नौवीं कक्षा और उससे ऊपर के छात्रों में. निजी कोचिंग संस्थानों के प्रति बढ़ते रुझान का श्रेय प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं को लेकर कड़ी प्रतिस्पर्धात्मकता को दिया जा सकता है, जो परीक्षा के लिए निर्धारित सीट और आवेदकों के बीच पर्याप्त असमानता दर्शाती है. नतीजतन, जो लोग अर्हता प्राप्त करने में असफल होते हैं उनके पास सीमित विकल्प रह जाते हैं और वे अक्सर निचले स्तर के कॉलेजों का रुख करते हैं.

कोचिंग की शिक्षा और महंगाई

उच्च-प्रोफाइल पाठ्यक्रमों की मांग के साथ-साथ स्नातक सीट की उपलब्धता में धीमी वृद्धि प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं और इसके परिणामस्वरूप, कोचिंग संस्थानों के उत्साह को बढ़ाती है. हालांकि, यह प्रवृत्ति वित्तीय रूप से काफी खर्चीली है. प्रमुख शहरों में, प्रतिष्ठित कोचिंग सेंटर श्रृंखलाएं नौवीं कक्षा के बाद के पाठ्यक्रमों के लिए प्रति वर्ष ₹1 लाख से अधिक का शुल्क लेती हैं. इन विशिष्ट संस्थानों और प्रतियोगी परीक्षाओं के अलावा, मानक स्तर के निजी कोचिंग में भी छात्रों के कुल शिक्षा खर्च का लगभग 40% खर्च होता है.

कंपटीशन का दबाव और मानसिक तनाव

कोचिंग सेंटरों को विनियमित करने का एक अन्य तर्क छात्रों की आत्महत्या की चिंताजनक प्रवृत्ति है, जो बच्चों पर पड़ने वाले भारी दबाव को रेखांकित करता है. 2022 के राष्ट्रीय अपराध आंकड़ों के अनुसार, 13,044 छात्रों ने आत्महत्या की. हालांकि ये सभी घटनाएं सीधे तौर पर पढ़ाई या ट्यूशन केंद्रों से जुड़ी नहीं हो सकती हैं. हालांकि, इनमें से 2,000 से अधिक आत्महत्याओं के पीछे परीक्षा में विफलता को कारण बताया गया था. भारत के प्रमुख कोचिंग केंद्र कोटा में, पुलिस रिपोर्ट अकेले 2023 में 26 छात्रों की आत्महत्या का संकेत देती है.

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हालांकि दिए गए दिशानिर्देशों का उद्देश्य छात्रों के बोझ को कम करना है, लेकिन कोचिंग सेंटर नामांकन आयु सीमा पर पुनर्विचार करने के लिए सरकार से पैरवी करने की तैयारी कर रहे हैं. विगत वर्षों में शिक्षा क्षेत्र में तेजी से विस्तार देखा गया है, जो समग्र निजी उपभोग व्यय वृद्धि को पार कर गया है, ‘कोचिंग संस्कृति’ को इस प्रवृत्ति से महत्वपूर्ण लाभ मिल रहा है. पिछले दशक में, शिक्षा घटक ने उच्चतम विकास दर का दावा किया है. यह कुल निजी अंतिम खपत में साल-दर-साल होने वाले बदलाव से स्पष्ट हो जाता है.

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