बसपा सुप्रीमो मायावती
लोकसभा चुनाव से पहले बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती एक बार फिर चर्चा में हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती ने मंगलवार को मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि वो किसी भी दल के साथ गठबंधन नहीं करेंगी. दरअसल, एनडीए के खिलाफ विपक्ष ने ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्ल्युसिव एलायंस’ यानी ‘इंडिया’ बनाया है. इसके गठन के कुछ दिन बाद ही बसपा प्रमुख ने ये बयान दिया है.
बसपा के गठबंधन इतिहास को देखें तो अच्छा नहीं रहा है. बसपा उत्तर प्रदेश में सपा, कांग्रेस और बीजेपी के साथ गठबंधन कर सत्ता में जरूर आयी, लेकिन किसी भी दल के साथ गठबंधन ज्यादा दिनों तक चल नहीं पाया.
पहली बार सपा से किया था गठबंधन
साल 1993 में राममंदिर लहर में भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कांशीराम और मुलायम सिंह यादव ने हाथ मिलाया. बसपा-सपा ने मिलकर बीजेपी का उत्तर प्रदेश से सफाया कर दिया था. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, लेकिन 1995 में ये गठबंधन टूट गया.
चुनाव के बाद छोड़ दिया कांग्रेस का ‘हाथ’
साल 1996 में विधानसभा चुनाव हुए. इस चुनाव में बीएसपी ने कांग्रेस के साथ हाथ मिलाया, लेकिन गठबंधन चमत्कारी नहीं रहा, हालांकि बीएसपी के वोटों में जबरदस्त इजाफा हुआ. चुनाव के बाद बसपा ने कांग्रेस का हाथ छोड़ 1997 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली, हालांकि छह महीने के बाद ये गठबंधन भी टूट गया.
26 साल बाद फिर पकड़ी गठबंधन की राह
साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में बीएसपी का सूपड़ा साफ हो गया. पार्टी के एक भी सांसद नहीं जीत सके थे. जिसके बाद बसपा ने 2019 में फिर गठबंधन की राह पकड़ी. लोकसभा चुनाव में बीएसपी, समाजवादी पार्टी और आरएलडी साथ मिलकर चुनावी मैदान में उतरीं. इस गठबंधन का सबसे बड़ा फायदा मायावती की बसपा को मिला, जबकि सपा और आरएलडी को कोई सियासी लाभ नहीं मिल सका. लोकसभा में बसपा जीरो से 10 सांसद वाली पार्टी बन गई. समाजवादी पार्टी पांच सीटों पर सिमट गई जबकि आरएलडी के अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी भी जीत नहीं सके.
बीएसपी ने अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन किया
इसके अलावा साल 2018 में छत्तीसगढ़ में हुए विधानसभा चुनाव में बीएसपी ने अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन किया था. मायावती ने कहा था कि ये चुनाव गेम चेंजिंग होगा, लेकिन ये गठबंधन भी धराशाई हो गया था.
“बसपा को दलित आंदोलन की उपज माना जाता है”
वरिष्ठ पत्रकार विशाल तिवारी का मानना है कि “बसपा को दलित आंदोलन की उपज माना जाता है. कांशीराम के नेतृत्व में शुरू हुआ ‘बामसेफ’ आज मायावती के नेतृत्व में ‘बसपा’ अपने सबसे कठिन दौर से गुजर रही है. इस ‘कठिन दौर’ के कारणों को लेकर विभिन्न मत है. एक प्रमुख मत बसपा से जाटवों के अलावा अन्य प्रमुख दलित जातियों का छिटकना. यह आरोप लगते हैं कि बसपा पर एक दलित जाति समूह हावी है. दरअसल उत्तर प्रदेश में भाजपा की वापसी के बाद दलितों का एक समूह उससे जुड़ गया. दूसरा मत गठबंधन में जमीनी स्तर पर वोटों का ट्रांसफर होना. उदाहरण के लिए 2019 में सपा से गठबंधन के बावजूद बसपा को फायदा नहीं हुआ. इसका कारण दोनों के कोर वोटों का ट्रांसफर नहीं होना. इसके अलावा व्यक्ति विशेष के प्रभाव से बहार नहीं निकल पाना. भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर रावण भी यही आरोप लगाते हैं. सवाल है हाथी कैसे उठेगा? इसका जवाब 2007 के समीकरणों में छिपा है. कुछ हद तक कांग्रेस का हाथ भी इसमें सहायक सिद्ध हो सकता है.
-भारत एक्सप्रेस
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