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भारतीय संस्कृति में Live-In Relation एक ‘कलंक’, वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति उदासीनता ने इस अवधारणा को जन्म दिया: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट

याचिकाकर्ता छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा निवासी अब्दुल हमीद सिद्दीकी ने कविता गुप्ता के साथ अपने Live-In Relationship से पैदा हुए बच्चे की कस्टडी की मांग की थी.

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(प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हाल ही में कहा कि समाज के कुछ तबकों में अपनाए जाने वाले लिव-इन रिलेशन अभी भी भारतीय संस्कृति में एक ‘कलंक’ के रूप में बने हुए हैं, क्योंकि ऐसे संबंध भारतीय सिद्धांतों की सामान्य अपेक्षाओं के विपरीत एक आयातित दर्शन हैं.

यह देखते हुए कि वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति ‘उदासीनता’ ने लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा को जन्म दिया है, जस्टिस गौतम भादुड़ी और जस्टिस संजय एस. अग्रवाल की पीठ ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप कभी भी सुरक्षा, सामाजिक स्वीकृति, प्रगति और स्थिरता प्रदान नहीं करती, जो विवाह संस्था प्रदान करती है. यह टिप्पणी करते हुए पीठ ने लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चे की कस्टडी के लिए एक व्यक्ति की अपील को खारिज कर दिया.

याचिकाकर्ता छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा निवासी अब्दुल हमीद सिद्दीकी ने कविता गुप्ता के साथ अपने लिव-इन रिलेशनशिप से पैदा हुए बच्चे की कस्टडी की मांग की थी. दोनों तीन साल तक रिलेशनशिप में रहे और 2021 में बिना धर्म परिवर्तन के शादी कर ली थी.

लिव-इन से बाहर निकलना आसान

लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, महत्वपूर्ण बात यह है कि हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि विवाहित व्यक्ति के लिए लिव-इन रिलेशनशिप से बाहर निकलना ‘बहुत आसान’ होता है, लेकिन ऐसे संकटपूर्ण रिलेशनशिप से बचे लोगों की कमजोर स्थिति और ऐसे रिश्ते से पैदा हुए बच्चों को बचाना अदालतों का कर्तव्य बन जाता है.

डिविजन बेंच ने फैमिली कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ अब्दुल हमीद सिद्दीकी की अपील को खारिज करते हुए ये टिप्पणियां कीं. फैमिली कोर्ट ने उनके बच्चे की कस्टडी के लिए उनके आवेदन को खारिज कर दिया था.

अपीलकर्ता का मामला यह था कि वह मुस्लिम रीति-रिवाजों का पालन करता है और प्रतिवादी का हिंदू कानून उन्हें नियंत्रित करता है. वे दोनों तीन साल तक रिलेशनशिप में थे; इसके बाद 2021 में बिना धर्म परिवर्तन के उन्होंने शादी कर ली थी.

एनडीटीवी की रिपोर्ट के अनुसार, पीठ ने कहा, ‘समाज के बारीक निरीक्षण से पता चलता है कि पश्चिमी देशों के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण विवाह की संस्था अब लोगों को पहले की तरह नियंत्रित नहीं करती है और वैवाहिक कर्तव्यों के प्रति इस महत्वपूर्ण बदलाव और उदासीनता ने संभवत: लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा को जन्म दिया है.’


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याचिकाकर्ता की दलील

याचिकाकर्ता के अनुसार, प्रतिवादी उसकी दूसरी पत्नी थी, क्योंकि उनकी पहले शादी हो चुकी थी. उनकी पहली पत्नी से उनके तीन बच्चे थे. अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि बच्चा (जिसकी कस्टडी का अपीलकर्ता ने दावा किया है) अगस्त 2021 में उनके रिश्ते से पैदा हुआ था.

हालांकि उन्होंने दावा किया कि अगस्त 2023 में उन्हें पता चला कि प्रतिवादी बच्चे के साथ अपने माता-पिता के घर चली गई है. इसलिए बच्चे की कस्टडी की मांग करते हुए वह फैमिली कोर्ट, दंतेवाड़ा के समक्ष चले गए; जिसने उनका मुकदमा खारिज कर दिया, इसलिए उन्होंने हाईकोर्ट में तत्काल अपील दायर की.

अपीलकर्ता के वकील का प्राथमिक तर्क यह था कि दोनों पक्षों ने विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत शादी की थी और चूंकि मुस्लिम कानून द्वारा शासित अपीलकर्ता को दूसरी शादी करने की अनुमति है इसलिए प्रतिवादी के साथ उसका विवाह कानूनी था. यह भी तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता ऐसे विवाह से पैदा हुए बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक होगा और इस प्रकार वह बच्चे की कस्टडी का हकदार है.

प्रतिवादी का तर्क

दूसरी ओर प्रतिवादी (कथित पत्नी) ने दावा किया कि मामले के तथ्यों के अनुसार, दूसरी शादी की अनुमति नहीं है, क्योंकि अपीलकर्ता की पहली पत्नी जीवित थी. इसलिए, स्वीकृत तथ्यों के तहत यह तर्क दिया गया कि अपीलकर्ता किसी रिश्ते से पैदा हुए बच्चे के लिए कानूनी अभिभावक होने का दावा नहीं कर सकता.

अपीलकर्ता की दलील पर आपत्ति

शुरुआत में अदालत ने अपीलकर्ता की इस दलील पर आपत्ति जताई कि वह मुस्लिम कानून के अनुसार दूसरी शादी करने का हकदार है. डिवीजन बेंच ने कहा कि उनके व्यक्तिगत कानून के तहत एक मुस्लिम पुरुष के एक से अधिक विवाह से संबंधित प्रावधानों को ‘किसी भी अदालत के समक्ष तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक कि इसकी वकालत न की जाए और साबित न किया जाए’.

इस संबंध में हाईकोर्ट ने अहमदाबाद वुमेन एक्शन ग्रुप बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1997 मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला दिया, जिसमें शीर्ष अदालत ने कहा था कि व्यक्तिगत कानून (हिंदू कानून, मुस्लिम कानून और ईसाई कानून) अनुच्छेद 13 के तहत कानून की परिभाषा का हिस्सा नहीं हैं.

न्यायालय ने आगे कहा कि सिद्धांत रूप में भी, जैसा कि मुस्लिम कानून में निर्धारित है, विवाह मुसलमानों के बीच हो सकता है और चूंकि इस मामले में दोनों पक्षों में से एक (कथित पत्नी/प्रतिवादी) ने अपना धर्म नहीं बदला है, इसलिए ‘यह कहना कि लिव-इन रिलेशनशिप को इस तरह जारी नहीं रखा जा सकता कि शादी मुस्लिम रीति-रिवाजों के तहत हुई थी.’

न्यायालय ने यह भी कहा कि जब एक पक्ष हिंदू था और उसने अपना धर्म नहीं बदला, तो याचिका के कथनों के अनुसार, यह एक अंतरधार्मिक विवाह था, इसलिए यह 1954 के अधिनियम द्वारा शासित होगा.

-भारत एक्सप्रेस

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