स्टैंडअप कॉमेडी का जादू आज के युवाओं के सिर चढ़कर बोलता है. हरिशंकर परसाई होते तो इस स्टैंडअप कॉमेडी में हंसी-मजाक और क्राउड वर्क के नाम पर जारी अश्लीलता पर जरूर सवालिया निशान लगाते.
उनका तेवर ही ऐसा रहा, जिसके ताप से कोई नहीं बच सका. सड़क पर पॉलिथीन चबाती गाय को देखकर परसाई जी लिखते हैं, ‘विदेशों में जिस गाय का दूध बच्चों को पुष्ट कराने के काम आता है, वही गाय भारत में दंगा कराने के काम में आती है.’
22 अगस्त 1924 को मध्य प्रदेश के होशंगाबाद (नर्मदापुरम) जिले के जमानी गांव में पैदा हुए हरिशंकर परसाई जी ने व्यंग्य की ऐसी विधा में महारत हासिल की, जिसके जरिये समाज में व्याप्त बुराइयों को खदेड़ने का न सिर्फ काम किया, धर्म-जाति, मत-मजहब में उलझी दुनिया और जनता से चुभते सवाल भी पूछे.
उन्होंने अपनी रचनाओं से न सिर्फ गुदगुदाया और हमें सामाजिक वास्तविकताओं से रूबरू भी कराया. कमजोर होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनीतिक मान्यताएं हो या फिर मध्यम वर्ग के मन की सच्चाई, सभी को परसाई जी ने नजदीक से पकड़ा. उन्होंने पाखंड और रूढ़िवादिता पर भी सवाल उठाए.
छोटी उम्र में मां को खो दिया. पिता भी बीमारी से दुनिया से चले गए. उनके कंधों पर चार छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी आ गई. आंखों के सामने आर्थिक अभाव था. उन्होंने हिम्मत नहीं हारी. उन्होंने अविवाहित रहकर किसी तरह अपने परिवार को संभाला, उनकी जरूरतें पूरी की. उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में कई बातों का जिक्र भी किया है.
वो लिखते हैं, ‘साल 1936 या 37 होगा. मैं शायद आठवीं का छात्र था. कस्बे में प्लेग फैला था. रात को मरणासन्न मां के सामने हम लोग आरती गाते थे. कभी-कभी गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, मां बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते. फिर ऐसे ही भयकारी त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर मां की मृत्यु हो गई. पांच भाई-बहनों में मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था.’
वो कहते हैं, ‘गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूं. मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता. इसलिए गर्दिश नियति है.’ यह हरिशंकर परसाई हैं, जिन्हें कम उम्र में ही जीवन के मायने सही से पता चल गए थे. उनकी भाषा-शैली में एक विशेष प्रकार का अपनापन है. उन्होंने व्यंग्य को एक विद्या के रूप में स्थापित किया और हल्के-फुल्के मनोरंजन से दूर समाज में व्याप्त समस्याओं और सवालों से भी जोड़ा.
उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से एमए हिंदी की परीक्षा पास की. 18 साल की उम्र में ‘जंगल विभाग’ में नौकरी की. खंडवा में छह महीने के लिए शिक्षक भी रहे. 1943 में मॉडल हाईस्कूल में बतौर टीचर पहुंचे. 1952-57 तक प्राइवेट स्कूलों में नौकरी की. उन्होंने 1957 में नौकरी छोड़ दी और स्वतंत्र लेखन की शुरुआत की. उन्होंने जबलपुर से साहित्यिक पत्रिका ‘वसुधा’ का प्रकाशन भी किया. इसे घाटा होने पर बंद कर दिया.
उन्होंने अपनी लेखन शैली में हिंदी के साथ उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का भी धड़ल्ले से प्रयोग किया. उनका मकसद एक ही था, लोगों और समाज तक व्यंग्य के रास्ते ही सही, सच्चाई पहुंचे. उन्होंने अनेक रचनाएं की, सभी के तेवर अलग दिखे.
उन्होंने लिखा, ‘निंदा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं. निंदा खून साफ करती है, पाचन-क्रिया ठीक करती है, बल और स्फूर्ति देती है. निंदा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं. निंदा पायरिया का शर्तिया इलाज है.’
देश में 1975 में आपातकाल लगा. राजनीतिक उथल-पुथल चरम पर थी. साल 1976 में परसाई जी की टांग टूट गई. इसी दौरान परसाई जी ने ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ कृति लिखी. इस पुस्तक को साल 1982 में साहित्य अकादमी अवॉर्ड से सम्मानित किया गया.
उन्होंने लिखा, ‘जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है. मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है. लोग सोचते होंगे, इसकी टांग टूट गई है. यह असमर्थ हो गया. दयनीय है. आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें.’
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उनके तेवर के बारे में लेखक तापस चतुर्वेदी कहते हैं, ‘परसाई जी व्यंग्य को आम आदमी के मन की अभिव्यक्ति तक लेकर गए, फेसबुक-एक्स आदि तब नहीं थे, यह रेखांकित करने का ध्येय केवल इतना है कि आम आदमी तब बोल सकता था, लिख नहीं सकता था.’
तापस चतुर्वेदी आगे कहते हैं, ‘उन्होंने व्यंग्य को ‘अभिजात’ साहित्यिक विधाओं के बीच उससे अधिक प्रतिष्ठा दिलाई, जिसकी अपेक्षा एक आम व्यक्ति बौद्धिकों के बीच अपने लिए करता है. एक तरफ उन्होंने यह करके दिखा दिया और दूसरी ओर लिखा, ‘इस देश के बुद्धिजीवी सब शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं.’ इस एक वाक्य से आप परसाई को आज जिंदा मान सकते हैं.’
तापस चतुर्वेदी के अनुसार, ‘उन्होंने व्यंग्य को आम अभिव्यक्ति का अघोषित विधान बनाया. व्यंग्य का असर उसी मर्ज पर हो रहा था, जिसके लिए दवा तैयार की गई थी. मैं बहुत निश्चित हूं अपने इस निष्कर्ष पर कि परसाई जी का लिखा जिन्हें अपने पर निशाना लगता रहा हो, वे भी तीर खाकर मुस्कुराए बिना नहीं रह पाते रहे होंगे.’
परसाई जी ने भ्रष्टाचार पर भी खूब प्रहार किया. उनकी एक उक्ति काफी प्रसिद्ध है, ‘रोटी खाने से ही कोई मोटा नहीं होता, चंदा या घूस खाने से होता है. बेईमानी के पैसे में ही पौष्टिक तत्व बचे हैं.’
अब इसे पढ़िए, ‘बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.’
राजनीति में गाय का मुद्दा काफी पुराना है. इस मुद्दे को समझते हुए उन्होंने लिखा था, ‘इस देश में गोरक्षा का जुलूस सात लाख का होता है, मनुष्य रक्षा का मुश्किल से एक लाख का.’ उन्होंने यहां तक लिखा, ‘अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तो गोरक्षा आंदोलन का नेता जूतों की दुकान खोल लेता है.’
उन्होंने बेरोजगारी पर भी लिखा और कहीं ना कहीं नेताओं को समझाया भी. उन्होंने लिखा था, ‘दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था.’
उनकी मुख्य रचनाएं ‘तब की बात और थी’, ‘बेईमानी की परत’, ‘भोलाराम का जीव’, ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’, ‘ज्वाला और जल’, मानी जाती हैं. हालांकि, उन्होंने अनगिनत रचनाएं की, जिसका एकसाथ जिक्र करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है.
उनकी जिंदगी त्रासदी से भरी रही. जिंदगी भर जूझते रहे. अपने व्यंग्य बाणों से सभी के दिल को जीतने वाले हरिशंकर परसाई ने 10 अगस्त 1995 को जबलपुर में आखिरी सांस ली. अभी उनका जन्म शताब्दी वर्ष चल रहा है. उनकी जन्मस्थली जमानी गांव में ‘हरिशंकर परसाई जन्म शताब्दी समारोह’ 22 अगस्त को संपन्न होगा.
-भारत एक्सप्रेस
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