शी जिनपिंग और पीएम मोदी
चीन एक ऐसा मुल्क है जिसपर भरोसा करना खुद अपने लिए गड्ढा खोदने जैसा है। इतिहास में ये बात कई मौकों पर सही साबित हुई है। जब-जब भारत ने चीन की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया, बदले में उसे धोखा मिला। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद 60 साल बीत चुके हैं लेकिन चीन के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया। शी जिनपिंग के सत्ता संभालने के बाद से चीन की विस्तारवादी नीति और आक्रामक हुई है। पड़ोसियों की जमीन या समुद्री इलाकों पर कब्जे की चीनी भूख का ही नतीजा है कि 17 देशों के साथ उसका सीमा विवाद चल रहा है।
भारत और चीन के बीच 3488 किमी लंबी सीमा है जिसे लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल या LAC कहा जाता है। अक्साई चिन से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक भारत और चीन के बीच सीमा विवाद है। भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी ने चीन के साथ संबंध सुधारने के लिए पहल की, शी जिनपिंग की भारत में खातिरदारी की लेकिन माओ के देश ने फिर मक्कारी की।
18 जून 2017 को डोकलाम विवाद, 15 जून 2020 को लद्दाख के गलवान में खूनी झड़प और अब 8-9 दिसंबर को अरुणाचल प्रदेश के तवांग में एक बार फिर हिंसक झड़प। हर बार चीन को मुंह की खानी पड़ी है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत ने ड्रैगन की लाल सेना को मजबूती से जवाब दिया है। मगर, ताजा घटना से यह भी स्पष्ट है कि चीन के इरादे नेक नहीं हैं।
आखिर क्या चाहता है चीन? क्या चीन मनमाने तरीके से लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल बदलने पर आमादा है? या फिर भारत के साथ सीमा पर संघर्ष उसकी घरेलू हालात से निबटने की मजबूरी है? कहीं मजबूत आर्थिक शक्ति के रूप में भारत के उभरने से डर तो नहीं रहा है चीन? या फिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता से जल-भुन रहे हैं शी जिनपिंग?
अरुणाचल प्रदेश के तवांग पर चीन की ललचाई नजर उसकी विस्तारवादी नीति की पुष्टि करता है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का मानना है कि बगैर तवांग पर काबिज हुए तिब्बत पर कब्जा करना मुश्किल है। तवांग पर चीन का अरमान अगर भारत के लिए खतरा है तो भूटान के लिए भी ये उतना ही चिंताजनक है।
तवांग की तुलना डोकलाम से भी कर सकते हैं, जो है तो भूटान में लेकिन यहां चीन की मौजूदगी को भारत कतई बर्दाश्त नहीं कर सकता। यही कारण है कि जून 2017 में डोकलाम पर चीनी मौजूदगी को खत्म करने के लिए भारत ने लगातार संघर्ष किया और आखिर चीन को वहां से पीछे हटने को मजबूर कर दिया।
भारत, चीन और भूटान के बीच ट्राइजंक्शन है तवांग। 18 हजार किमी की ऊंचाई पर इसकी अवस्थिति इसे खास बनाती है। चीन में तवांग के लिए जो लालच है उसकी सबसे बड़ी वजह यही है। यहां से वह अरुणाचल प्रदेश समेत पूरे पूर्वी हिन्दुस्तान पर नजर रख सकता है। भूटान पर भी, और अपने अधीनस्थ सामरिक इलाकों पर भी।
तवांग का महत्व धार्मिक नजरिए से भी है। बौद्ध अनुयायियों के लिए यह स्थान पवित्र है। तवांग को छठे दलाई लामा त्सांगयांग ग्यात्सो का जन्म स्थल माना जाता है। 1643 में यहां उनका जन्म हुआ। तवांग मठ की स्थापना 1680-81 में छठे दलाई लामा ने की थी। यह पांचवें दलाई लामा नग्वांग लोबसंग ग्यात्सो की इच्छा थी। तिब्बती बौद्ध मानते हैं कि दलाई लामा का जन्म चाहे जहां हो लेकिन उनकी पीठ (स्थान) ल्हासा स्थित द्रेपुंग मठ है।
तवांग में हेमलेट टेम्पल है। यहीं पास में धार्मिक महत्व का एक पेड़ है। जब दलाई लामा का पदभार संभालने त्सांगयांग ग्यात्सो ल्हासा गए थे, तब उन्होंने एक महत्वपूर्ण भविष्यवाणी की थी- “जब इस पेड़ की तीन मुख्य शाखाएं एक बराबर हो जाएंगी, मैं वापस तवांग आऊंगा।”
स्थानीय बौद्ध साधुओं का कहना है कि 1959 में इस पेड़ की तीनों शाखाएं एक हुईं। इसी साल 14वें दलाई लामा तेनजिंग ग्यात्सो तिब्बत छोड़कर तवांग आए। चीन के विस्तारवादी रुख से परेशान होकर बौद्धगुरू दलाई लामा तवांग में आकर ही कुछ दिनों के लिए ठहरे थे। तवांग का ये महत्व है।
चीन छठे दलाई लामा की जयंती और उत्सव तो धूमधाम से मनाता है। तवांग से अपना नाता भी बताता है। मगर, छठे दलाई लामा के अवतार के रूप में बौद्धों में मान्य 14वें दलाई लामा को फूटी आंख देखना नहीं चाहता। दलाई लामा भारत में शरण लेने को मजबूर हैं और धर्मशाला से तिब्बत की निर्वासित सरकार चलाते रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में स्वतंत्र आर्थिक, सामरिक और विदेश नीति ने भारत का कद आज पूरी दुनिया में बढ़ाया है। भारत को दिसंबर महीने में ही जी-20 ग्रुप की कमान मिली है। इस रूप में भारत का सम्मान बढ़ा है। साल भर जी-20 ग्रुप की अध्यक्षता करते हुए भारत जिन कार्यक्रमों पर अमल करने वाला है उसके संभावित परिणामों से चीन को जलन हो रही है।
नवंबर-दिसंबर में उत्तराखण्ड के औली में अमेरिका और भारत का साझा युद्धाभ्यास नरेंद्र मोदी की इंडिया फर्स्ट नीति के तहत है। चीन की आपत्तियों को दरकिनार कर यह स्वतंत्र वैदेशिक और सामरिक नीति का सबसे बड़ा प्रमाण है। भारत ने चीन की इस आपत्ति को ठुकरा दिया है कि औली का साझा युद्धाभ्यास 1993 के भारत-चीन समझौते का उल्लंघन है।
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रितत्व काल में सीमा पर इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने पर भी विशेष ध्यान दिया गया है। भारत-चीन सीमा पर 61 सड़कें रणनीतिक तौर पर अहम मानी जाती हैं। इनमें से 42 सड़कें 2021 तक बना ली गई थीं जिनकी लंबाई 1530 किमी है। इनके अलावा सात हजार किमी की लंबाई वाली 130 सड़कों पर काम चल रहा है। माउंटेन स्ट्राइक कोर में 50 हजार सैनिक मुस्तैदी के साथ सीमा पर डटे हुए हैं। ऐसे में लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को बदल पाना आसान नहीं रह गया है।
कोविड महामारी के बाद दुनिया में सबसे तेज आर्थिक विकास की दर भारत की है। चीन की विकास दर 2021 में 8.1 प्रतिशत के मुकाबले 2022 में 2.8 प्रतिशत के स्तर पर आ गिरी है। आने वाले समय में चीन के आर्थिक विकास की दर में और भी गिरावट का अंदेशा है। ऐसे में भारत के तेज कदमों से आर्थिक प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने से चीन की चिंता बढ़ गई है।
भारत की ओर निवेशकों का रुख और चीन से निवेशकों का पलायन चीनी नेतृत्व को चिंतित कर रहा है। वास्तव में चीन से कोविड महामारी की स्थिति संभाले नहीं संभल रही है। निवेशक लगातार भाग रहे हैं। ऐसे में चीन से निवेश का रुख भारत की तरफ होने से चीन को डर सताने लगा है। खास तौर से दक्षिण एशियाई देशों के बाजार पर चीन अपनी पकड़ कमजोर होने को लेकर सचेत है। लेकिन, अपनी चिंता से ज्यादा उसे दक्षिण एशियाई बाजार में भारत के मजबूत होने की चिंता सता रही है।
भारत में जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है और वे ग्लोबल लीडर के तौर पर उभर रहे हैं, वहीं चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने देश के अंदर लगातार अलोकप्रिय होते चले जा रहे हैं। 8 दिसंबर की जिस रात तवांग में चीनी सेना ने हिमाकत की, उसी दिन नरेंद्र मोदी को उनके गृह प्रदेश गुजरात में बड़ी चुनावी जीत मिली।
अपने देश की जनता का ध्यान हटाने और राष्ट्रवाद पैदा करने के लिए भी चीन अक्सर सीमा पर झड़प का इस्तेमाल करता है। इस बार भी वही कहानी दोहराई गई लगती है। लेकिन ऐसा लगता है कि तवांग पर हमले की चाल उल्टी पड़ रही है। एक रिपोर्ट के मुताबिक चीन में सोशल मीडिया पर चीनी नागरिकों ने चीनी सेना को ‘बाल सेना’ तक करार दिया है।
चीन के लिए भारत के साथ लंबी लड़ाई नहीं लड़ पाने की वजह दोनों देशों के बीच का बढ़ता कारोबार भी है जिसमें चीन हावी है। 2022 के नौ महीने का आंकड़ा भी लें तो भारत-चीन के बीच 75.69 अरब डॉलर का व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में रहा है। कारोबार इस साल नौ महीने में ही सौ अरब डॉलर पार कर चुका है। इसी अवधि में चीन का भारत को निर्यात 31 प्रतिशत बढ़कर 89.66 अरब डॉलर हो चुका है जबकि भारत का चीन को निर्यात 36.4 प्रतिशत घटकर 13.97 अरब डॉलर हो चुका है। जाहिर है युद्ध या तनाव की स्थिति में चीन को आर्थिक मोर्चे पर बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
चीन के लिए यह चिंता की बात है कि तवांग की घटना पर दुनिया उसके साथ खड़ी नहीं दिख रही है। अमेरिका और यूएन ने संघर्ष नहीं बढ़ने पर संतोष जताया है। यूरोप की प्रतिक्रिया भी कुछ ऐसी ही है। इससे चीन की बढ़ी खीज को समझें तो ब्रिटेन से अपने राजनयिकों को वापस बुलाने की घटना पर नजर डालना काफी होगा। यूएन में चीन के साथी पाकिस्तान की ओर से कश्मीर मुद्दे का राग भी उसी खीज की पुष्टि करता है जिसका भारत ने करारा जवाब दिया है। भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा है कि दूसरे देश की संसद पर हमला करने और ओसामा बिन लादेन को संरक्षण देने वाले देश उपदेश देने का हक नहीं रखते।
जाहिर है लगातार मजबूत होता जा रहा भारत चीन की आंखों में चुभता है। भारत खुद एक परमाणु शक्ति है, इसलिए खुले मैदान में तो लाल सेना की हिम्मत नहीं कि वो हिंद के वीरों को चुनौती दे सके। शायद यही वजह है कि लुक छिप कर वो पीठ पर वार करने का मौका ढूंढती है, लेकिन गलवान के बाद चीन की किसी भी साजिश का जवाब देने के लिए भारतीय शूरवीर पहले से ज्यादा मुस्तैद हैं जिसका सबूत है तवांग।