अक्षयवट
Prayagraj: यूपी के प्रयागराज में एक ऐसा वृक्ष है जिसकी धार्मिक मान्यता सदियों पुरानी है. कहा जाता है कि यह वृक्ष 300 वर्षों से अधिक पुराना है. सबसे खास बात यह है कि यह विशालकाय वृक्ष मुगल सम्राट अकबर के किले के अंदर है और इस पवित्र पेड़ का नाम अक्षयवट है. संगम नगरी में स्थित इस वृक्ष के प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है. पेड़ को लेकर चली आ रही जनश्रुतियों की मानें तो प्रयाग में संगम स्नान के बाद जब तक इस पवित्र अक्षयवट का पूजन एवं दर्शन नहीं किया जाता तब तक संगम नहान का पुण्य नहीं मिलता है. अकबर के इस किले के अंदर स्थित पातालपुरी मंदिर में अक्षयवट के अलावा कई अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां भी स्थापित हैं.
अकबर की कोशिशों पर फिरा पानी
धार्मिक मान्यताओं के चलते इस वृक्ष से न केवल स्थानीय लोगों का जुड़ाव है, बल्कि दूर दराज से भी कई लोग इसकी पूजा करने आते हैं. मुगल बादशाह अकबर के किले के अंदर बने पातालपुरी मंदिर में स्थित इस अक्षयवट नामक वृक्ष को खुद अकबर ने भी कई बार नष्ट करने का प्रयास किया था. कई बार इसे कटवाया लेकिन यह फिर से उसी जगह से पनपने लगता. यहां तक कि उसने इसे जलाने का हुक्म भी दिया लेकिन अपने हर प्रयास में वह नाकाम रहा और अंत में थक हार कर उसने वृक्ष को नुकसान पहुंचाना छोड़ दिया. वृक्ष को लेकर कहा जाता है कि यह ईश्वरी शक्ति से जुड़ा हुआ है.
भगवान राम और मां सीता का है वृक्ष से खास नाता
कहा जाता है कि जब भगवान श्रीराम और मां सीता अपने वनवास के दौरान वनगमन कर रहे थे तो इस पवित्र वृक्ष के नीचे उन्होंने तीन रातों तक विश्राम किया था.
जब संसार की सभी चीजें पानी में डूबने लगीं
पौराणिक कथाओं में भी इस वृक्ष का जिक्र मिलता है. इसके अनुसार भगवान नारायण से जब एक ऋषि ने ईश्वरी शक्ति को दिखाने का आग्रह किया था तब कुछ क्षणों के लिए उन्होंने पूरे संसार को जलमग्न कर दिया था. लेकिन अक्षय वट का ऊपरी भाग तब भी दिखाई दे रहा था.
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तालाब, मोक्ष और चीनी यात्री ह्वेनसांग
कहा जाता है कि इस वृक्ष के समीप ही कामकूप नाम का एक तालाब था. जिसमें स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती थी. दूर दराज से लोग मोक्ष की कामना से यहां आते थे. तालाब में स्नान के लिए वे अक्षयवट वृक्ष पर चढ़कर तालाब में छलांग लगाते थे. वहीं मशहूर चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा के दौरान धार्मिक आस्था से जुड़ इस तालाब का जिक्र अपनी किताब में भी किया है.
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