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यूएन में पहली बार हिन्दी में भाषण देने वाले सांसद थे गौरीशंकर

1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हो गया और गौरीशंकर राय अशोक मेहता के साथ कांग्रेस में शामिल हो गये.

गौरीशंकर राय

भारत के नक्शे में उत्तर प्रदेश में बिहार के बार्डर से नदी इस पार बलिया नाम का एक जिला है जिसने आजादी से तकरीबन 5 साल पहले ही खुद को आजाद घोषित कर दिया था. वह कहते हैं ना की पानी और माटी में बड़ा अन्तर होता है और यह अन्तर बलिया को बागी बलिया कहलवाता है.

इसी बागी बलिया की माटी में बलिया जिला मुख्यालय के पास के करनई गॉव में एक जमींदार परिवार में 10 जून 1924 को गौरीशंकर राय का जन्म हुआ. गौरीशंकर राय ने अपनी प्राथमिक और जूनियर स्कूली शिक्षा अपने पैतृक गांव करनई और पड़ोसी गांवों अपयाल और सुखपुरा में की, बाद में उनका दाखिला बलिया के एलडी मेस्टन स्कूल में कराया गया.

महात्मा गांधी के “भारत छोड़ो आंदोलन” में भाग लेने के लिए उन्हें कक्षा 9वीं कक्षा के छात्र के रूप में 14 अगस्त 1942 को गिरफ्तार किया गया था. वह 1945 में जिला युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उन्होंने चंद्रशेखर, काशी नाथ मिश्रा और वासुदेव राय जैसे अपने सहयोगियों के साथ ब्रिटिश सरकार और स्थानीय प्रशासन, स्कूलों और कॉलेजों के खिलाफ कई आंदोलन किए. इंटरमीडिएट पास करने के बाद सतीश चंद्र कॉलेज बलिया (आगरा विश्वविद्यालय) से बीए और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से बीएड किया.

छात्र जीवन के दौरान, उन्होंने अपने कनिष्ठ मित्रों चंद्रशेखर और काशी नाथ मिश्रा के साथ एक आंदोलन तो प्रधानाचार्य के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर किया. दरअसल सतीश चंद्र कॉलेज के प्रबंधन प्राचार्य सीता राम चतुर्वेदी को गलत तरीके से हटाना चाहता था लेकिन गौरीशंकर राय के आंदोलन ने कॉलेज प्रबंधन को अपना फैसला वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया. गौरीशंकर राय को हिंदी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद में साहित्य रत्न का गौरव भी मिला.

1947 में स्वतंत्रता के ठीक बाद, उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्कूल फीस में वृद्धि के खिलाफ राज्य के छात्र संगठनों द्वारा आयोजित एक आंदोलन का नेतृत्व किया और लखनऊ में आंदोलनकारियों के साथ जेल गए, लेकिन सरकार द्वारा मांग स्वीकार किए जाने के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया. उन्होंने कुछ समय के लिए टाउन कॉलेज बलिया में शिक्षण कार्य भी किया लेकिन राजनीतिक गतिविधियों में व्यस्त रहने के कारण उन्होंने यह कहते हुए नौकरी छोड़ दी कि “शिक्षक देश का भविष्य संवारते हैं इसलिए मेरी जगह उस व्यक्ति को नौकरी दी जाए जो इस छात्रों को पर्याप्त समय दे सके.”

साल था 1957 और उत्तर प्रदेश की बलिया सदर विधानसभा से चुनाव लड़ने के प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में गौरीशंकर राय को चुनावी मैदान में उतारा गया. गौरीशंकर राय के चुनावी मैदान में आते ही कांग्रेस की हवा बलिया सदर में बहना बन्द हो गई और गौरीशंकर राय उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए.

तारीख थी 30 दिसम्बर और साल था 1959, उत्तर प्रदेश विधानसभा का सदन चल रहा था. सदन की कार्यवाही के दौरान सदन के सदस्य गौरीशंकर राय ने तिब्बत को लेकर बड़ी बात कही ” एक बात मैं आपकी आज्ञा से इस आदरणीय सदन से और इस सदन के इस फोरम से देश की जनता से कहना चाहता हूॅ और साथ ही देश के नेताओं से कहना चाहता हूँ कि तिब्बत को पुनः बफर स्टेट बनायें वर्ना यह भारतवर्ष की राजनीति का दिवालियापन होगा. तिब्बत को स्वतंत्र स्टेट, बफर स्टेट की शक्ल में रहना चाहिए. यही आज की राजनीति का तकाजा है.”

1964 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हो गया और गौरीशंकर राय अशोक मेहता के साथ कांग्रेस में शामिल हो गये. उस समय पं. जवाहर लाल नेहरू ने समाजवाद को कांग्रेस और सभी समाजवादियों का अंतिम लक्ष्य घोषित किया था कि वे उनसे जुड़ें और समाजवादी आंदोलन को मजबूत करें. वह 1967 में कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में यूपी विधान परिषद के लिए चुने गए. वह 1970 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के लिए फिर से चुने गए और 1976 तक रहे. इस दौरान उन्होंने उत्तर प्रदेश विधान परिषद में सचेतक एवं विपक्ष के नेता के तौर पर भी कार्य किया.

वह 1974 में विभिन्न राज्य सरकारों, जैसे गुजरात और बिहार के भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ और भारत सरकार के खिलाफ भी जेपी आंदोलन में शामिल हो गये. जेपी आंदोलन का उत्तर प्रदेश का राज्य कार्यालय एमएलसी के रूप में उनके सरकारी आवास पर रॉयल होटल, लखनऊ में खुला. आपात काल मे भूमिगत आन्दोलन का प्रभारी रहने के दौरान 25 जून 1976 को गौरीशंकर राय ने कहा “पूरा देश एक कैदखाना है, इसे आजाद कराना होगा..!!”

वह 6वीं लोकसभा में 1977 में गाजीपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद निर्वाचित हुए, वह पहले भारतीय थे जिन्होंने संयुक्त रास्त्र में हिंदी में भाषण दिया था. गौरीशंकर राय ने इंदिरा गांधी के विरुद्ध विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव लाकर उस समय के राजनीतिक समाज में न केवल हलचल मचा दिया था बल्कि आम राजनेताओं के लिए मिसाल भी बन गये थे.

2 मई 1991 को बलिया में उनके पैतृक गाँव करनई में उनका निधन हो गया. उनके बारे में कहा जाता है कि वह व्यक्ति नही विचार थे और सदैव राजनीति में पाखंड के खिलाफ संघर्ष करते रहे. वे अपना सर्वस्व न्यौछावर कर गरीबों की लड़ाई लड़ते रहे.

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