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युद्ध के विरूद्ध: असंख्य निर्दोष नागरिकों का भविष्य हमारे हाथों में है

छोटे या बड़े स्तर के सभी युद्ध और संघर्षों का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और मानवीय मोर्चे पर चौतरफा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इसका खामियाजा सबसे अधिक कमजोर समुदाय को भुगतना पड़ता है.

प्रतीकात्मक फोटो.

युद्ध. मैंने हमेशा सोचा था कि मैं केवल उन युद्धों के बारे में अध्ययन करूंगी, जो इतिहास में पहले ही हो चुके हैं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे वास्तव में युद्धों के बीच जीना पड़ेगा. मैं जो विकसित करने की कोशिश कर रही थी वह अंध आशावाद नहीं था, केवल मौलिक आशा थी.

मैंने सोचा था कि 1945 के बाद से कूटनीति और बहुपक्षीय शांति वार्ता इतनी आगे तो बढ़ ही चुकी है कि खतरनाक विवादों और घृणित संघर्षों को समाप्त किया जा सके. हालांकि इस समय हमारी दुनिया युद्धों से घिरी हुई है, चाहे वे स्थानीय, क्षेत्रीय या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हों.

जहां अधिकांश संघर्षों की जड़ें विभिन्न राजनीतिक मुद्दों से उभरती हैं, तो वहीं कुछ की जड़ें दशकों से नहीं, बल्कि सदियों से राष्ट्रों के बीच उपजे वैचारिक मतभेदों से उभर रही हैं. इस सब में सबसे दुखद बात यह है कि हम किसी तरह आंखों पर पट्टी बांधने में कामयाब रहे हैं और यह जानते हुए भी कि विश्व युद्ध देर-सवेर एक हकीकत में बदल सकता है, हम सच्चाई को नजरअंदाज करना चुनते हैं.

नागरिकों को चुकानी पड़ती है कीमत 

रूस-यूक्रेन, इजरायल-हमास, ईरान-इजरायल, आर्मेनिया-अजरबैजान, दारफुर, टाइग्रेयन विद्रोही और इथियोपियाई फेडरल फोर्स, अमेरिका-चीन. जाहिर तौर पर ये सूची अंतहीन है. ये कुछ प्रमुख संघर्ष हैं, जिन्होंने वैश्विक अर्थव्यवस्था पर स्पष्ट प्रभाव डाला है. इतना ही नहीं, बल्कि बेरहमी से मारा गया हर व्यक्ति अपने पीछे घोर अंधेरा छोड़ जाता है, जहां कभी जगमगाता आनंद हुआ करता था.

ऐसा क्यों है कि राष्ट्रों द्वारा अपने प्रतिद्वंद्वियों को खत्म करने के लिए लागू की जाने वाली कठोर और गलत नीतियों की कीमत हमेशा नागरिकों को ही चुकानी पड़ती है? क्या यह सुनिश्चित करना सचमुच इतना कठिन है कि दुनिया बिखर न जाए? क्या राजनयिक संबंध बनाए रखना और मानवीय, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक मुद्दों को हल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग हासिल करना वाकई इतना कठिन है? क्या हजारों निर्दोष नागरिकों को न मारना और उनके परिवारों को भारी दुख से बचाना सचमुच इतना कठिन है?

रूस-यूक्रेन संघर्ष

अब मैं ऊपर बताए गए हर संघर्ष के कारणों और परिणामों के बारे में विस्तार से बताना चाहूंगी. हर युद्ध में समानताएं ढूंढते हुए आखिर में एक विश्लेषणात्मक निष्कर्ष तक पहुंचूंगी. शुरुआत में हमारे पास रूस-यूक्रेन हैं. इस संघर्ष को मिली अपार मीडिया कवरेज के कारण हर कोई जानता है कि यहां क्या हुआ. आज हम जो हंगामा देख रहे हैं, वह वास्तव में 2008 में शुरू हुआ था, जब NATO (North Atlantic Treaty Organisation) शिखर सम्मेलन के दौरान यूक्रेन की सदस्यता को चर्चा हुई थी.

इशाना शर्मा.

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इसके खिलाफ थे, क्योंकि उन्हें इसमें रूस की रक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा और पूर्वी गोलार्ध में प्रभाव क्षेत्र के लिए खतरा नजर आया. इसके तुरंत बाद 2014 में रूस ने क्रीमिया पर हमला कर उस पर पूर्ण नियंत्रण हासिल कर लिया, जिससे बड़े पैमाने पर हंगामा हुआ और सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने इसकी निंदा की.

अंतत: यूक्रेन और नाटो को एक अल्टीमेटम दिया गया, जहां कुछ सुरक्षा समझौतों की मांग की गई. आम सहमति पर पहुंचने में विफलता के कारण रूस ने 24 फरवरी 2022 को यूक्रेन पर हमला शुरू कर दिया. यूक्रेन को जर्मनी और अमेरिका से भी सैन्य समर्थन मिला, हालांकि यहां ​की स्थितियां बिगड़ती चली गईं.

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार निगरानी मिशन के अनुसार, फरवरी 2024 तक कुल 10,852 नागरिक यूक्रेन में जारी इस युद्ध का शिकार हुए हैं. यूक्रेन में आय कम हो गई है और 71 लाख लोगों को गरीबी में धकेल दिया गया है. कई नागरिक अपने गृहनगर से विस्थापित हो गए हैं और अपनी आय के साधन खो दिए हैं. यूक्रेन ने अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 30 से 35% खो दिया, जिससे कई वर्षों का उसका विकास नष्ट हो गया.

रूस पर कठोर प्रतिबंध लगाने से मुद्रास्फीति (महंगाई) की दर में वृद्धि हुई, तेल की कीमतें अभूतपूर्व रूप से बढ़ीं और खाद्य असुरक्षा भी पैदा हुई. इसके अलावा नेटफ्लिक्स ने भी रूस से अपनी सेवाएं वापस ले लीं और मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि किसी भी हाई-स्कूलर को अपने पसंदीदा टीवी-शो के सभी एपिसोड देखे बिना अपना स्कूली जीवन नहीं गुजारना चाहिए.

इजरायल-हमास और इजरायल-ईरान संघर्ष

इसके बाद इजरायल-हमास और इजरायल-ईरान संघर्ष आता है, जो कि आपस में जुड़े हुए हैं. संक्षेप में कहें तो, इजरायल को 1948 में एक संप्रभु गणराज्य घोषित किया गया था, जो यहूदियों के लिए एक सुरक्षित आश्रय के रूप में कार्य करता है, जिन्हें द्वितीय विश्व युद्ध में नाजियों के अत्याचारों का सामना करना पड़ा था.

इस निर्णय, जिसे UN Resolution 181 के नाम से औपचारिक रूप दिया गया, का अरब आबादी द्वारा बहुत विरोध किया गया, जो उस समय बहुसंख्यक थे. उन्हें इसके खिलाफ जवाबी कार्रवाई करनी पड़ी. इस युद्ध में इजरायल विजयी रहा और उसने पहले की तुलना में अधिक क्षेत्रीय नियंत्रण हासिल कर लिया.

हालांकि, फिलिस्तीनी, गाजा पट्टी और वेस्ट बैंक में निवास करते रहे, जिन पर 1967 में इजरायल ने कब्जा कर लिया था. दरअसल यह गलतफहमी है कि फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO), हमास का समर्थन करता है. अमेरिका और ब्रिटेन की तरह PLO भी हमास की निंदा करता है और इसे आतंकवादी संगठन करार देता है.

7 अक्टूबर 2023 को हमास के आतंकवादियों ने इजरायली क्षेत्र में धावा बोल दिया और 1200 लोगों की हत्या कर दी और उनमें से कई को यातनाएं दीं. निस्संदेह, वे बंधकों को पूरे शहर में घुमाने और उनके साथ अनैतिक और अमानवीय बर्ताव करने के साथ अपने कुटिल इरादों का संदेश फैलाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया.

लोगों के गलत समूह का समर्थन करना मैकबेथ की अंधी महत्वाकांक्षा, ओथेलो की प्रचंड ईर्ष्या के अनुरूप है. उनका गलत व्यक्तित्व ही उनके पतन का कारण बना. ईरान, हमास सहित कई चरमपंथी फिलिस्तीनी समूहों को आर्थिक सहायता प्रदान करता है.

इसलिए, यह स्पष्ट था कि वे भी अंतत: इजरायल के खिलाफ आक्रमण शुरू करेंगे. ईरान ने शुरू में इजरायल पर साइबर हमले और डमास्कस (सीरिया की राजधानी) में उसके दूतावास पर बमबारी और गैस पाइपलाइन विस्फोट का आरोप लगाया था. ईरान ने इसे लेकर इजरायल के खिलाफ सैकड़ों मिसाइलें और ड्रोन लॉन्च किए.

जब मैं यह लेख लिख रही थी, तब समाचार वेबसाइट अलजजीरा से पता चला कि वेस्ट बैंक में नूर शम्स शरणार्थी शिविर पर छापे के दौरान इजरायली सेना ने एक 16 वर्षीय फिलिस्तीनी लड़के की गोली मारकर हत्या कर दी थी. इजरायल और हमास के युद्ध में 34,012 लोग मारे गए हैं. अनगिनत घायल और विस्थापित हुए.

क्या इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे किस धर्म के थे? या उनकी राजनीतिक राय क्या थी? या उन्होंने किसका समर्थन किया? या वे किसके खिलाफ थे? या इस पूरे संघर्ष पर उनकी व्यक्तिगत राय क्या थी? आखिर में, वे सभी शोकपूर्वक अपने प्रियजनों से अलग हो गए. इस युद्ध से कच्चे तेल की कीमतों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा, जिससे श्रम बाजार में व्यवधान आया और ऊर्जा खपत की वैश्विक लागत में समग्र वृद्धि हुई.

आर्मीनिया-अजरबैजान संघर्ष

आर्मीनिया और अजरबैजान के बीच संघर्ष ऊपर चर्चा किए गए अन्य दो युद्धों से अधिक जटिल और थोड़ा अलग है. जब से USSR (सोवियत यूनियन) विभाजित हुआ और आर्मीनिया तथा अजरबैजान इससे अलग हुए, तब से नागोर्नो-काराबाख (Nagorno-Karabakh) के क्षेत्र पर लगातार लड़ाई जारी है, जिसे आर्टसख (Artsakh) भी कहा जाता है.

वास्तव में आर्टसख की 90% से अधिक आबादी आर्मीनियाई लोगों की है. फरवरी 1980 में आर्मीनिया में संविधान के अनुसार कानूनी दायित्वों का पालन करते हुए एक जनमत संग्रह हुआ और पता चला कि आर्टसख के नागरिक आर्मीनिया के साथ एकीकृत होना चाहते थे.

इसके अलावा बिश्केक प्रोटोकॉल के अनुसार (रूस की मध्यस्थता से किया गया युद्धविराम) आर्मीनिया को उसके कब्जे वाले सभी क्षेत्रों पर वास्तविक नियंत्रण मिल गया. 12 जुलाई 2020 को अजरबैजान के क्षेत्र पर हमला करने और राष्ट्रपति अलीयेव द्वारा आर्टसख और आर्मीनिया पर युद्ध छेड़ने की धमकी देने के साथ तावुश क्षेत्र में फिर से हिंसा भड़क उठी.

एक और रूसी-मध्यस्थता वाले युद्धविराम के बाद भी अजरबैजान ने आर्मीनिया और आर्टसख के आर्मीनियाई लोगों पर अत्याचार जारी रखा, जिससे वर्तमान स्थिति पैदा हुई.

समय-समय पर अजरबैजान को जातीय सफाई, नस्लीय नरसंहार, युद्धबंदियों के खिलाफ मानवीय अपराध और आर्मीनियाई लोगों के खिलाफ नफरत भरे भाषण को बढ़ावा देने जैसे निंदनीय कृत्यों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा का सामना करना पड़ा. ये कृत्य नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन पर अंतरराष्ट्रीय और जिनेवा कन्वेंशन का उल्लंघन करते हैं.

नागोर्नो-काराबाख क्षेत्र पर अजरबैजानियों द्वारा शुरू किए गए आर्मीनियाई नरसंहार के परिणामस्वरूप कम से कम 6,64,000 आर्मीनियाई लोग मारे गए थे. यह क्षेत्र बहुत लंबे समय से जातीय और क्षेत्रीय संघर्ष का इलाका रहा है.

दोनों देश 2021 में इस मामले को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाने पर सहमत हुए. हालांकि, दोनों के बीच उथल-पुथल अभी भी खत्म नहीं हुआ है. 16 अप्रैल 2024 तक आर्मीनिया यह दावा करना जारी रखता है कि अजरबैजान ने अंतत: आर्टसख में आर्मीनियाई लोगों के सभी निशान ‘मिटाने’ के अपने इरादे को पूरा कर लिया है. अरब और गैर-अरब आबादी के बीच जातीय विभाजन के कारण सूडान के दारफुर क्षेत्र में भी इसी तरह के मुद्दे सामने आए हैं.

युद्ध और संघर्षों का नकारात्मक प्रभाव

ऊपर बताए गए सभी संघर्षों से यह स्पष्ट है कि छोटे या बड़े स्तर के सभी युद्धों और संघर्षों का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और मानवीय मोर्चे पर चौतरफा नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. स्वदेशी लोगों, अल्पसंख्यकों, प्रवासियों, शरणार्थियों, मजदूरों और अत्यधिक गरीबी का सामना करने वाले अन्य लोगों, महिलाओं और बच्चों जैसे कमजोर समूहों को गंभीर रूप से शिकार बनाया जाता है, जो अपनी आजीविका और जीवन दोनों का नुकसान झेलते हैं.

अगर कोई राष्ट्र युद्ध में शामिल होता है तो उसकी GDP गिरना निश्चित है, मुद्रास्फीति सर्वकालिक उच्चतम स्तर पर पहुंच जाएगी, तेल की कीमतें बढ़ना, आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या में वृद्धि होना निश्चित है, साथ ही शरणार्थियों की आमद और आश्रय की तलाश स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी.

इसके अलावा राजनीतिक और लोकतांत्रिक स्थिरता निश्चित रूप से नष्ट हो जाएगी, मानवीय अपराध कई गुना बढ़ जाएंगे, तकनीकी विकास लड़खड़ा और रुक जाएगा. एक-दूसरे की संस्कृति और विरासत के प्रति परस्पर सम्मान में कमी आना तय है, जलवायु पर भी इसका असर पड़ना तय है. संघर्ष के स्तर, भू-राजनीतिक क्षेत्र और कारण के बावजूद, ये कुछ सामान्य परिणाम हैं, जो कि निस्संदेह घटित होंगे.

अंत में, मैं बस इतना ही कहना चाहूंगी कि जब विवादों को सुलझाने की बात आती है तो हमें कोई विराम चिह्न वाला विकासवादी रास्ता अपनाने की जरूरत नहीं है. हमने देखा कि 1914 और 1919 के बीच क्या हुआ. हमने फिर देखा कि 1939 और 1945 के बीच क्या हुआ. हमने यह भी देखा कि शीत युद्ध के दौरान क्या हुआ था. क्या हमें इसे दोबारा देखने की जरूरत है, मुझे ऐसा नहीं लगता.

हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उस युवा लड़की के लिए जिसने युद्ध की विभीषिका में अपने पिता को खो दिया, उस पत्नी को, जिसने अपने जीवन के प्यार और अपने परिवार के भरण-पोषण करने वाले को किसी राष्ट्र या उग्रवादी समूह की विश्वासघाती और पितृसत्तात्मक नीतियों के कारण खो दिया और ऐसे संघर्षों में अपनी जान गंवाने वाले हर सैनिक के परिवार को न्याय मिले.

हमें वर्तमान के साथ-साथ भविष्य पर भी नियंत्रण पाने की जरूरत है. असंख्य निर्दोष नागरिकों का भविष्य हमारे हाथों में है. जब आप यह लेख पढ़ रहे हैं, तब शरणार्थियों के खिलाफ महिलाओं के खिलाफ, विस्थापितों के खिलाफ अत्याचार लगातार हो रहे हैं. यह अराजकता जो हम अपने चारों ओर देखते हैं वह और कुछ नहीं बल्कि हमारे पिछले कर्मों का बेईमान परिणाम है. यह निश्चित रूप से कोई मिथक नहीं है और फिलहाल हम इसे वास्तविकता बनाने का जोखिम भी नहीं उठा सकते हैं.

(युवा लेखिका इशाना शर्मा 11वीं की छात्रा हैं.)



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