Bharat Express

अजमेर कांड के फैसले का क्या असर होगा?

क्या वजह है कि बलात्कार की एक घटना पर तो मीडिया और राजनीति में इतना बवाल मचता है और दूसरे हजारों इससे बड़े मामलों की बड़ी आसानी से अनदेखी कर दी जाती है.

(प्रतीकात्मक तस्वीर: Pixabay)

जहां कोलकाता की डॉक्टर के बलात्कार और नृशंस हत्या को लेकर सारे देश में निर्भया कांड की तरह भारी बवाल मचा हुआ है, वहीं 1992 में अजमेर में हुए देश के सबसे बड़े बलात्कार कांड का फैसला भी पिछले हफ्ते ही आया. इस फैसले में 6 आरोपियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई, जबकि 5 आरोपी पहले ही सजा काट चुके हैं और एक आरोपी ने आत्महत्या कर ली थी.

अजमेर के एक प्रतिष्ठित महिला कॉलेज की 100 से अधिक छात्राओं को ब्लैकमेल करके उनसे बलात्कार किए गए थे, जिनकी अश्लील तस्वीरें शहर भर में फैल गईं. इस कांड का मास्टरमाइंड जिला यूथ कांग्रेस का अध्यक्ष फारूक चिश्ती था. उसके साथ यूथ कांग्रेस का उपाध्यक्ष नफीस चिश्ती और संयुक्त सचिव अनवर चिश्ती भी शामिल था.

इनके अलावा फोटो लैब डेवलपर, पुरुषोत्तम, इकबाल भाटी, कैलाश सोनी, सलीम चिश्ती, सोहेल गनी, जमीर हुसैन, अल्मास महाराज (फरार), इशरत अली, परवेज अंसारी, मोइजुल्ला, नसीम व फोटो कलर लैब का मलिक महेश डोलानी भी शामिल थे.

प्रदेश भर में भारी आंदोलन और देश भर में तहलका मचाने वाले इस कांड की जांच राजस्थान के तत्कालीन मुख्य मंत्री भैरों सिंह शेखावत ने खुफिया विभाग को सौंपी. ये पूरा मामला अजमेर से प्रकाशित ‘नवज्योति’ अखबार के युवा पत्रकार संतोष गुप्ता की हिम्मत से बाहर आया. चौंकाने वाली बात यह थी कि इस जघन्य कांड में शामिल ज्यादातर अपराधी ख्वाजा गरीब नवाज की मजार के खादिम (सेवादार) थे.

इनकी हवस का शिकार हुई लड़कियां प्रतिष्ठित हिंदू परिवारों से थीं, जिनमें से 6 ने बदनामी के डर से आत्महत्या कर ली. दर्जनों अपनी पहचान छुपा कर जी रही हैं, क्योंकि जो जख्म इन्हें युवा अवस्था में मिला उसका दर्द ये आज तक भूल नहीं पाई हैं. चूंकि इस कांड में शामिल ज्यादातर अपराधी मुसलमान हैं और शिकार हुई लड़कियां हिंदू, इसलिए इसे मजहबी अपराध का जामा पहनाया जा सकता है और वो ठीक भी है. पर हमारे देश में हर 16 मिनट में एक बलात्कार होता है. इन सब बलात्कारों में शामिल अपराधी बहुसंख्यक हिंदू समाज से होते हैं.

इतना ही नहीं, साधु, पादरी और मौलवी के वेश में, धर्म की आड़ में, अपने शिष्यों या शागिर्दों की बहू-बेटियों से बलात्कार करने वालों की संख्या भी खासी बड़ी है. इसे राजनीतिक जामा भी पहनाया जा सकता है, क्योंकि इस जघन्य कांड के मास्टरमाइंड यूथ कांग्रेस के पदाधिकारी थे. पर क्या ये सही नहीं है कि देश भर में भाजपा व अन्य दलों के भी तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं के नाम लगातार बलात्कार जैसे कांडों में सामने आते रहते हैं. इसलिए महिलाओं के प्रति इस पाशविक मानसिकता को धर्म और राजनीति के चश्मे से हट कर देखने की जरूरत है.

दुर्भाग्य से जब कभी ऐसी कोई घटना सामने आती है तो हर राजनीतिक दल उसका पूरा लाभ लेने की कोशिश करता है, ताकि जिस दल की सरकार के कार्यकाल में ऐसा हादसा हुआ हो उसे या जिस दल के नेता या उसके परिवार जन ने ऐसा कांड किया हो उन्हें घेरा जा सके.

जब हमारे देश में हर 16 मिनट पर एक बलात्कार होता है और बच्चियों के साथ भी होता है, उनकी नृशंस हत्या भी होती है, तो क्या वजह है कि बलात्कार की एक घटना पर तो मीडिया और राजनीति में इतना बवाल मचता है और दूसरे हजारों इससे बड़े मामलों की बड़ी आसानी से अनदेखी कर दी जाती है, मीडिया द्वारा भी और समाज व राजनेताओं द्वारा भी. तब ये जरूरी होता है जब कभी बलात्कार के किसी कांड पर बवंडर मचे तो उसे इस नजरिए से भी देखना चाहिए. ये बवंडर समस्या के हल के लिए हो रहा है या अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए.

अब प्रश्न है कि ऐसे अपराधी को क्या सजा दी जाए? अपराध शास्त्र के विशेषज्ञ ये सिद्ध कर चुके हैं कि किसी अपराधी को मृत्यु दंड जैसी सजा सुनाने के बाद भी उसका दूसरों पर कोई असर नहीं पड़ता और इस तरह के अपराध फिर भी लगातार होते रहते हैं. पर दूसरी तरफ पश्चिम एशिया के देशों में शरीयत कानूनों को लागू किया जाता है, जिसमें चोरी करने वाले के हाथ काट दिए जाते हैं और बलात्कार करने वाले की गर्दन काट दी जाती है.

पिछले ही हफ्ते सोशल मीडिया पर दिल दहलाने वाला एक वीडियो प्रचारित हुआ, जिसमें दिखाया है कि कैसे 6 पाकिस्तानी युवाओं को 16 साल की लड़की से सामूहिक बलात्कार के आरोप में उनकी सरेआम तलवार से गर्दन काट दी गई. हादसे के अगले दिन वहां की अदालत ने अपना फैसला सुना दिया. अक्सर इस बात का उदाहरण दिया जाता है कि शरीयत कानून में ऐसी सजाओं के चलते इन देशों में चोरी और बलात्कार की घटनाएं नहीं होतीं. पर ये अर्धसत्य है, क्योंकि अक्सर ऐसी सजा पाने वाले अपराधी तो आम लोग होते हैं, जो दुनिया के गरीब देशों से खाड़ी के देशों में रोजगार के लिए आते हैं, जबकि ये तथ्य अब दुनिया से छिपा नहीं है कि खाड़ी के देशों के रईसजादे और शेख विदेशों से निकाह के नाम पर फुसला कर लाई गईं सैंकड़ों लड़कियों का अपने हरम में रात-दिन शारीरिक शोषण करते हैं. फिर उन्हें नौकरानी बना देते हैं. इन सब पर शरीयत का कानून क्यों नहीं लागू होता?

हमारे भी वेद ग्रंथों में बलात्कारी की सजा सुझाई गई है. बलात्कारी का लिंग काट दिया जाए. उसके माथे पर एक स्थायी चिह्न बनाकर समाज में छोड़ दिया जाए, जिसे देखते ही कोई भी समझ जाए कि इसने बलात्कार कर किसी की जिंदगी बर्बाद की है. फिर ऐसे व्यक्ति से न कोई रिश्ता रखेगा, न दोस्ती. उसका परिवार भी उसे रखना पसंद नहीं करेगा. कोई नौकरी नहीं मिलेगी. कोई धंधा नहीं कर पाएगा. भीख भी नहीं मिलेगी. ऐसे में बलात्कारी या तो खुद ही आत्महत्या कर लेगा या अछूत बनकर जिल्लत भरी जिंदगी जिएगा. उसका यह हाल देख समाज में किसी और की यह अपराध करने की हिम्मत ही नहीं होगी. मगर जेल भेजने या फांसी देने से अपराध नहीं रुकेगा.

अजमेर के मामले में 32 साल बाद आए फैसले पर भी हमारी यही प्रतिक्रिया है कि ऐसे फैसलों से समाज में कोई बदलाव नहीं आएगा, क्योंकि ‘जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड’ अर्थात देर से न्याय मिलना न मिलने के समान होता है. इसलिए बात फिर वहीं अटक जाती है. महिलाओं के प्रति पुरुषों की इस पाशविक मानसिकता का क्या इलाज है? ये समस्या आज की नहीं, सदियों पुरानी है. हर समाज, हर धर्म और हर देश में महिलाएं पुरुषों के यौन अत्याचारों का शिकार होती आई हैं. बहुत कम को न्याय मिल पाता है, इसलिए 32 साल बाद अजमेर बलात्कार कांड का फैसला कोई मायने नहीं रखता.

-भारत एक्सप्रेस

Also Read