एनसीपी चीफ शरद पवार और कांग्रेस अध्यक्ष खरगे (फाइल फोटो)
चाचा भतीजे की मुलाकात से कांग्रेस यूं ही परेशान नहीं है। सिर्फ कांग्रेस ही नहीं विपक्षी मंच के अन्य दलों के माथे पर भी शिकन साफ दिखती है। इस पूरी कहानी के अलग-अलग पहलू राजनीति शास्त्र के छात्रों के लिए किसी किताब से कम नहीं। यूं तो महाराष्ट्र की पूरी सियासत ही बीते विधानसभा चुनाव से लेकर आज तक बहुत दिलचस्प बनी हुई है। शुरूआत बीजेपी शिवसेना के अलग होने से हुई। अजित पवार तब भी उपमुख्यमंत्री बने पर 80 घंटे में सरकार गिर गई। उद्धव महाविकास अघाड़ी के सीएम बने फिर अजित को उपमुख्यमंत्री पद मिला। उद्धव की पूरी पार्टी ही उठकर शिंदे के साथ चली गई, और एक बार फिर अजित पवार मुख्यमंत्री बन गए। अब सिलेसिलेवार तरीके से इस उठापटक और कांग्रेस समेत विपक्षी एकजुटता की चिंता को समझिए।
महाराष्ट्र लोकसभा चुनाव के लिए अहम
बीजेपी को पिछला वाला जादूई प्रदर्शन करना है तो महाराष्ट्र, बिहार, यूपी जैसे स्विंग स्टेट्स में अपना प्रदर्शन अच्छा रखना होगा। इन सभी राज्यों में क्षेत्रीय दलों का दबदबा है। कांग्रेस यहां बहुत कमजोर है और इसीलिए विपक्षी एकजुटता उसकी भी मजबूरी दिखती है। जहां कांग्रेस का सीधा मुकाबला बीजेपी से है वहां क्षेत्रीय दलों की बहुत भूमिका नहीं। महाराष्ट्र में शिवसेन (उद्धव गुट) से अलग होने के दुष्परिणामों की आशंका से बीजेपी अवगत है। शिंदे संख्याबल के आधार पर शिवसेना के मालिक दिखते हैं लेकिन जनता के बीच वो खुद को बाला साहेब ठाकरे का उत्तराधिकारी सिद्ध कर पाएंगे इस बात के भरोसा बीजेपी को भी नहीं। लिहाजा महाराष्ट्र में नए मजबूत सहयोगी की जरूरत है। सिर्फ अजित पवार के भरोसे एनसीपी की भी हालत शिंदे वाली शिवसेना जैसी ही दिखती है। ऐसे में शरद पवार का रुख बीजेपी के लिए जरूरी होगा। वहीं विपक्षी एकजुटता की भी महाराष्ट्र समेत अन्य राज्यों में जड़ें हिल सकती हैं। हांलाकि शरद पवार किसी ऑफर या आशंका से इंकार कर रहे हैं।
अजित पवार-शरद पवार की मुलाकातों के मायने
अजित पवार भी जानते हैं कि बिन शरद सब सून। यही वजह है कि उनकी तस्वीरों का इस्तेमाल अब भी अजित गुट कर रहा है और शरद पवार प्रेस के सामने तो इस पर अपनी नाराजगी जताते हुए कानूनी कार्रवाई की बात कर ही रहे हैं। शरद पवार बेशक कहें कि पहले भी पार्टी टूटी है और उन्होंने फिर से पार्टी को खड़ा कर लिया लेकिन उम्र का तकाजा और अजित की पार्टी पर पकड़ दोनों ही शरद पवार के लिए भी चुनौती हैं। अंदरूनी लड़ाई अब खुलकर सामने आ चुकी है लेकिन एनसीपी का नुकसान शरद पवार का भी नुकसान है। भले ही मर्जी न हो लेकिन शरद पवार की मजबूरी जरूर दिखती है कि वो अपनी पार्टी को फिर से जोड़ने की कोशिश करें।
इस्तीफे से खेल पहुंचा पार्टी की टूट तक
ऐसा लगता है कि शरद पवार ने इस्तीफा इस उम्मीद से दिया था कि वो अपनी पकड़ पार्टी पर दिखा पाएंगे। हुआ भी ऐसा ही लेकिन अजित पवार का धैर्य अब जवाब दे गया। उन्होंने शिंदे की राह चुनी और खुलासा कर दिया कि हम पहले ही एनडीए के साथ जाना चाहते थे लेकिन शरद पवार राजी नहीं हुए। प्रफुल्ल पटेल, छगन भुजबल जैसे खास लोगों ने भी शरद पवार का साथ छोड़ दिया। उन पर दबाव बढ़ गया और आनन फानन में उन्होंने बचे हुए विधायकों और नेताओं को साथ लाने के प्रयास किए। जनता के बीच जाकर आम सभाएं करनी शुरू कर दी। सहानुभूति उनके साथ दिखाई भी पड़ती है लेकिन कार्यकर्ता और पार्टी के नेताओं को तैयार करने में वर्षों लग जाते हैं ऐसे में अजित पवार की पार्टी पर वर्तमान पकड़ उनके लिए भी कम चुनौती नहीं है। एक तरफ लोकसभा चुनाव के लिए इंडिया के साथ बने रहने की रणनीति है दूसरी तरफ अपने ही घर में उलझने की परेशानी भी। अजित पवार भी अभी तक पर्याप्त विधायकों को सामने नहीं रख पाएं हैं। ये बात अलग है कि उनके दावे के मुताबिक पार्टी के पर्याप्त विधायक और पदाधिकारी उनके साथ हैं।
कांग्रेस और विपक्षी एकजुटता के माथे पर शिकन क्यों?
शरद पवार का ये रुख निश्चित तौर पर कांग्रेस की चिंता बढ़ाता है। महाराष्ट्र कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने अंदर की खबर का खुलासा तक किया। शरद पवार और सुप्रिया सुले को सत्ताधारी दल की तरफ से ऑफर दिया गया है। हांलाकि दोनों ने ही इस बात का खंडन किया है। फिर भी अजित पवार और शिंदे की फूट के बाद महाराष्ट्र में किसी भी राजनीतिक उथल पुथल से इंकार नहीं किया जा सकता। पवार राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं, तोड़-फोड़ की इस राजनीति के लिए वो भी काफी चर्चा में रहे हैं। राजनीति में न कोई परमानेंट दोस्त है और न कोई दुश्मन। जहां राजनैतिक हित सधते दिखाई देते हैं वहां पार्टियों का रुख हो जाता है। शरद पवार को लेकर चिंता का विषय यही है कि अपनी पार्टी बचाने और आगामी चुनाव में अधिक सीटें हासिल करने के लिए वो किसी भी तरफ जा सकते हैं और फिलहाल इस लिहाज से एनडीए का पलड़ा भारी दिखाई पड़ता है।
दिलचस्प होने वाली है 2024 की लड़ाई
आगामी लोकसभा चुनाव विपक्ष के लिए भी करो या मरों की स्थिति वाला है। निश्चित तौर पर पीएम मोदी ने अपनी लोकप्रियता को बरकरार रखा है लेकिन क्या 2019 वाली लहर उठेगी ये कहना मुश्किल है। कांग्रेस हिमाचल, कर्नाटक की जीत के घोड़े पर सवार है। यूपी में बीजेपी की फिर सरकार बनी लेकिन सपा ने भी अपनी स्थिति को मजबूत किया है। ऐसे में बिहार यूपी महाराष्ट्र में तो मुकाबला दिलचस्प होगा ही। एमपी, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, हिमाचल, पंजाब, दिल्ली जैसे राज्यों में भी आने वाले दिनों में नई रणनीति दोनों पक्षों की तरफ से देखने को मिल सकती है। शरद पवार को तोड़ने का प्रयास सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है बल्कि बंगाल, पंजाब, दिल्ली जैसे राज्यों में कांग्रेस, ममता और केजरीवाल के समीकरण भी बहुत सुलझे हुए नहीं दिखते हैं। खैर इस पर कोई टिप्पणी जल्दबाजी होगी ये तो तय है कि 250 से ज्यादा सीटों पर यदि विपक्ष संयुक्त उम्मीदवार उतारने में कामयाब रहा तो बीजेपी के लिए आगामी लोकसभा चुनाव चुनौती पूर्ण हो सकता है। खैर चंद्रयान, राम मंदिर, पीएम मोदी की विदेश यात्राएं और आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव कुछ ऐसे बिंदू हैं जो अब भी एनडीए के लिए पिछले प्रदर्शन की उम्मीद को बरकरार रखने में मदद कर सकते हैं।
-भारत एक्सप्रेस
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