क्या आपको मालूम है अमेरिका के इस शहर में बैन है इंटरनेट-वाईफाई, जानें ऐसा क्यों
जब भी कभी कोई न सुलझने वाला अपराध होता है तो मामला देश की सर्वोच्च जाँच एजेंसी, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को सौंप दिया जाता है। इसी उम्मीद से कि यह एजेंसी देश की सबसे काबिल और श्रेष्ठ जाँच एजेंसी है। परंतु क्या सीबीआई में कार्य करने वाले अधिकारी हर अपराध की तह तक आसानी से पहुँच पाते हैं? क्या इन जाँच अधिकारियों को अपराध के सभी प्रमाण व अन्य जानकारियाँ आसानी से मिल जाती है? क्या अपराध के सीन पर सबसे पहले पहुँची स्थानीय पुलिस अपना काम पूरी तत्पर्ता से करती है और क्राइम सीन पर किसी भी तरह के सुबूत को मिटाती नहीं है? क्या दोषी को सज़ा दिलवाने के लिए पुलिस और सीबीआई एक ठोस केस बना पाते हैं जो अदालत में टिका रहे और आरोपी को सज़ा मिल जाए? अफ़सोस की बात है कि ऐसे सवालों का जवाब प्रायः हमें ‘नहीं’ में मिलता है। ऐसे अनेकों उदाहरण मिल जाएँगे जहां अपराध के कई चर्चित मामलों सीबीआई को कोर्ट के आगे शर्मिंदा होना पड़ा और सुबूतों की कमी के कारण आरोपी आसानी से छूट गए।
पिछले दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2006 के चर्चित निठारी हत्या कांड के दोनों आरोपियों को बरी कर दिया। जस्टिस अश्वनी कुमार मिश्रा और जस्टिस एसएएच रिजवी की खंडपीठ ने कहा कि, “निठारी हत्याकांड की जांच करने में अभियोजन पक्ष की विफलता, जांच एजेंसियों द्वारा जनता के भरोसे के साथ विश्वासघात से कम नहीं है।”परंतु इस निर्मम हत्या कांड में जिन बच्चों ने अपनी जान गँवाई उनके माता-पिता के मन में यह सवालउठना वाजिब है कि अगर निठारी कांड के आरोपी मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेंद्र कोली बेक़सूर हैं तो इतनी सारी हत्याएँ किसने की? वहीं दूसरी तरफ़ यह भी सवाल उठ रहे हैं कि यदि ये दोनों आरोपी निर्दोष थे तो निचली अदालत ने इन्हें किस आधार पर फाँसी की सज़ा सुनाई? क्या निचली अदालत से कोई त्रुटि हुई या हाई कोर्ट में जाँच एजेंसियों ने सभी तथ्यों को मज़बूती से पेश नहीं किया?
ग़ौरतलब है कि 2006 के इस हत्या कांड की जाँच को सीबीआई ने 11 जनवरी 2007 को अपने हाथ में लिया था। 26 जुलाई 2007 को सीबीआई ने अदालत में चार्जशीट पेश की। इस मामले की सुनवाई सीबीआई कोर्ट में 305 दिन तकचली। सुनवाई के दौरान कुल 38 गवाह पेश किए गए। शायद निचली अदालत को इस मामले में पर्याप्त सुबूत और गवाह मिले होंगे तभी इन आरोपियों को फाँसी की सज़ा सुनाई गई। परंतु जैसा अधिकतर मामलों में होता आया है, जैसे ही यह मामला हाई कोर्ट पहुँचा, सीबीआई की जाँच संतोषजनक नहीं पाई गई। पाठकों को याद होगा कि जाँच के दौरान दोनों आरोपियों ने अपने-अपने जुर्म क़ुबूले भी थे। तमाम सबूतों के आधार पर आरोपियों को फाँसी कि सज़ा सुनाई गई थी। परंतु हाई कोर्ट ने इन सब तथ्यों को काफ़ी नहीं माना और आरोपियों की रिहाई के आदेश दे दिये।
हाई कोर्ट के फ़ैसले के विरुद्ध सीबीआई सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा कब खटखटाएगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा। परंतु यदि हाई कोर्ट ने सीबीआई की जाँच में कमियाँ पाईं हैं तो इसका मतलब स्पष्ट है कि सीबीआई जैसी श्रेष्ठ जाँच एजेंसी ने अपना काम पूरी तत्पर्ता से नहीं किया। यदि किया होता तो आज ऐसी नौबत नहीं आती। क्या सीबीआई ने जानबूझकर अपनी जाँच में कुछ ऐसी कमियाँ छोड़ी जिससे कि आरोपियों की रिहाई का रास्ता साफ़ हो सके? यदि कोई ऐसा सोचे कि क्या निचली अदालत ने जनता व मीडिया के दबाव में आरोपियों को सज़ा सुनाई, तो यह सही नहीं होगा। यदि आरोपी मोनिंदर सिंह पंढेर और सुरेंद्र कोली निर्दोष थे तो उनके नोएडा स्थित मकान में इस अपराध के कई अहम सुबूत कैसे मिले? जब दोनों आरोपी अपने कुबूलिया बयान में इस निर्मम हत्या कांड को अंजाम देने की बात स्वीकार चुके हैं तो फिर निचली अदालत का फ़ैसला ग़लत कैसे हुआ? यह सवाल उठता है कि क्या सीबीआई को इस जाँच में ढुलमुल रवैया अपनाने को ‘ऊपर से आदेश’ मिले थे?
मामला किसी बड़े घोटाले की जाँच का हो, निठारी, आरुषि या मधुमिता शुक्ला जैसे चर्चित हत्या कांड की जाँच का हो, इन मामलों की जाँच कर रही सीबीआई का ढीला और सुस्त रवैया ही अपराधियों को रिहा होने का मौक़ा देता है। अगर सही वक्त पर पुलिस, सीबीआई व अन्य एजेंसियों द्वारा कड़ी कार्यवाही की जाती है तो ऐसा नहीं होता। जब भी कभी ऐसे अपराधों के हर पहलू की सही जाँच होती है तो पीड़ितों के परिजनों और जनता के बीच यह संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। देश की शीर्ष जाँच एजेंसियों का सिद्धांत यह होना चाहिये कि जघन्य अपराधों के किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। फिर वो चाहे किसी भी विचारधारा या राजनैतिक पार्टी का समर्थक ही क्यों न हो। परंतु हमारे देश में ऐसा कब और कैसे होगा यह तो देखने वाली बात है।
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