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1855 में संथाल परगना से जगी थी स्वाधीनता की अलख

संथाल परगना में 1855 में हुए विद्रोह को कार्ल मार्क्स ने भी अपनी किताब ‘नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में ‘जनक्रांति’ माना है।

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फोटो- विकिपीडिया)

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में जनजातीय समाज की अग्रणी भूमिका रही है। जनजातीय नायकों ने अपनी मातृभूमि को विदेशी दासता से मुक्त कराने के लिए अपना संपूर्ण न्योछावर कर दिया। स्वतंत्रता संग्राम में संथाल हूल का विशिष्ट स्थान है। 168 वर्ष पहले 30 जून 1855 में तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी वर्तमान में झारखंड के संताल परगना में सिदो-कान्हू के नेतृत्व में किया गया हूल ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की पीठिका तैयार की थी। हूल का अर्थ होता है अन्याय के विरूद्ध क्रांति का आह्वान यानी उलगुलान, विद्रोह का आह्वान, आंदोलन का शंखनाद। 1857 के स्वाधीनता संग्राम को इतिहासकारों ने सिपाही विद्रोह तक सीमित करने का प्रयास किया ताकि इस अखिल भारतीय आंदोलन की ज्वाला को विद्रोह की यूरोपीय परिभाषा में सीमित किया जा सके, इसी प्रकार इतिहासकारों ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हुए भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सबसे बड़े सशस्त्र आंदोलन ‘हूल’ को संताल विद्रोह तक सीमित कर उसकी महत्ता को कुचलने का प्रयास किया, जबकि स्वाधीनता संग्राम में संथाल हूल एक ऐसी लड़ाई थी जिसने ब्रिटिश सेना को नाकों चने चबा दिये थे। जिस वनवासियों/आदिवासियों को अंग्रेजी असभ्य और जंगली मानते थे उसी के अनुपम लाल सिदो – कान्हू के नेतृत्व में किये गये हूल ने कंपनी सरकार को कई बार भाग खड़े को मजबूर कर दिया।

अस्मिता और सुरक्षा के लिए विद्रोह का रूख अख्तियार किया

अंग्रेजों के खून से शौर्य गाथा लिखने वाले सिदो – कान्हू का जन्म झारखंड स्थित राजमहल के पहाड़ियों से घिरा साहेबगंज जिला के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह गांव में हुआ। सिदो का जन्म 1820 एवं कान्हू का जन्म 1832 में हुआ। इनके और दो भाईयों का नाम चांद और भैरव थे। इनके अलावे इनकी दो बहने भी थीं जिनका नाम फूलो मुर्मू और झानो मुर्मू था। सिदो – कान्हू के माता – पिता का नाम चुनु मुर्मू और सोलन मुर्मू था। सिदो – कान्हू, चांद – भैरव एवं फूलो – झानों द्वारा 1855-56 में ब्रिटिश सत्ता, साहूकारों, व्यापारियों और जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ ब्रिटिश सरकार के खिलाफ किये गये विद्रोह को संताल हूल के नाम से जाना जाता है। ऐतिहासिक दस्तावेजों से जानकारी मिलती है कि 19 वीं सदी के मध्य में अंग्रेजों ने संताल जनजातियों के भू-स्वामियों के लिए कड़े नियम बना दिये, जिस कारण बड़ी मात्रा में जनजातियों की भूमि हस्तांतरित होने लगी। लगान को एकाएक तीन गुणा कर दिया गया। अंग्रजों ने लगान वसूलने की जिम्मेवारी स्थानीय जमींदारों को दी। इस क्रम में संताल जनजाति के लोगों ने कर्ज लेना शुरू कर दिया, जिससे शुरूआती दौर में राहत तो जरूर मिली परंतु धीरे – धीरे कर्ज के जाल में फंस गये। कर्जदाताओं ने चालबाजी कर इन पर मुकदमा भी किया, अधिकांश मुकदमें में संतालों की हार हुई। इस घटना के लोगों का ब्रिटिश न्यायपालिका से विश्वास पूर्णतया उठ गया और खुद की अस्मिता और सुरक्षा के लिए विद्रोह का रूख अख्तियार किया।

30 जून 1855 में भोगनाडीह में संथालों की एक सभा हुई जिसमें 400 गांवों के पचास हजार से अधिक लोग एकत्र हुए सिद्धो-कान्‍हो की अगुआई में संथालों ने मालगुजारी नहीं देने के साथ ही’ ‘करो या मरो, अंग्रेज हमारी माटी छोड़ो’ का एलान किया। इसके लिए शालवृक्ष की टहनी घुमाकर क्रांति का संदेश घर-घर पहुंचा दिया गया। संतालों ने पहला आक्रमण उनके विरूद्ध किया जिन्होंने उन्हें धोखा देकर अकूत धन अर्जित किया। आक्रमण में पाकुड़ के लिट्टीपाड़ा और बरहेट के कुसमा के महाजनों को लूटा गया। धीरे – धीरे आंदोलन बढ़ते – बढ़ते गया। अंग्रेजों की तरफ नेतृत्व जनरल लॉयर्ड ने किया जो आधुनिक हथियार और गोला बारूद से परिपूर्ण थे। इस मुठभेड़ में महेश लाल एवं प्रताप नारायण नामक दरोगा की हत्या कर दी गई, जिससे अंग्रेजों में भय का माहौल बन गया। शासन पर विजय से उत्साहित एक दिन 50,000 संथाल वीर अंग्रेजों को मारते-काटते कोलकाता की ओर चल दिये। यह देखकर शासन ने मेजर बूरी के नेतृत्व में सेना भेज दी। पांच घंटे के खूनी संघर्ष में शासन की पराजय हुई और संथाल वीरों ने पाकुड़ किले पर कब्जा कर लिया। संथालों के भय से अंग्रेजों ने बचने के लिए पाकुड़ में मार्टिलो टावर का निर्माण कराया था जो आज भी झारखंड के पाकुड़ जिले में स्थित हैं। इस युद्ध में सैकड़ों अंग्रेज सैनिक मारे गये जिससे कम्पनी के अधिकारी घबरा गये। अतः पूरे क्षेत्र में ‘मार्शल लॉ’ लगाकर उसे सेना के हवाले कर दिया गया।

अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने भी किया है अपनी पुस्तक में जिक्र

अंग्रेज सेना के पास अत्य आधुनिक हथियार थे, जबकि संथाल वीरों के पास तीर-कमान जैसे परम्परागत हथियार। अतः बाजी पलट गयी और चारों ओर खून की नदी बहने लगी। विद्रोहियों पर नियंत्रण पाने के लिए क्रूरतापूर्वक कार्रवाई की जा रही थी और तभी बहराइच में चांद और भैरव को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दिया, तो दुसरी तरफ अंग्रेजों ने फूट डालो राज करो नीति का अनुसरण करते हुए सिद्धो और कान्हू को पकड़ कर भोगनाडीह गांव में ही पेङ से लटका कर 26 जुलाई 1855 फांसी दे दी गई। इस युद्ध में लगभग 20 हजार वनवासी/आदिवासी वीरों ने प्राणाहुति दी। संथाल हूल के महानायक सिदो – कान्हू संताल परगना की मिट्टी में सदा के लिए सो गए परंतु विरोध और स्वतंत्रता की अंतहीन कृति छोड़ गए। आज भी पंचकठिया का वह बरगद का पेड़ अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सिदो – कान्हू का गौरवा गाथा सुनाता है । भले ही सशरीर सिदो – कान्हू मौजूद न हो लेकिन उनकी यश और कीर्ति आज भी जिंद है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी को स्वाधीनता के संघर्ष से परिचय करवाती है। प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासकार हंटर ने हूल युद्ध के बारे में अपनी पुस्तक ‘एनल्स ऑफ रूरल बंगाल’ में लिखा है, ‘‘संथालों को आत्मसमर्पण जैसे किसी शब्द का ज्ञान नहीं था। जब तक उनका ड्रम बजता रहता था, वे लड़ते रहते थे. जब तक उनमें से एक भी शेष रहा, वह लड़ता रहा। ब्रिटिश सेना में एक भी ऐसा सैनिक नहीं था, जो इस साहसपूर्ण बलिदान पर शर्मिन्दा न हुआ हो।’

संथाल परगना में 1855 में हुए विद्रोह को कार्ल मार्क्स ने भी अपनी किताब ‘नोट्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री’ में ‘जनक्रांति’ माना है। संथाल हूल का इतना व्यापक असर था कि ब्रिटिश के अखबारों ने भी इस विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के लिए आंख खोलने वाला बताया। 1856 के इलस्ट्रेटेड लंदन न्यूज अखबार में एक स्केच छपा था, जिसमें अंग्रेजों से संथालों का संघर्ष दर्शाया गया था। इस विद्रोह को कुचलने वालों में शामिल ब्रिटिश सेना के मेजर जर्विस ने उस समय लिखा था कि उन विद्रोहियों को जैसे समर्पण का अर्थ ही नहीं पता था। जब तक उनके नगाड़े बजते रहते, वे हमारी गोलियों के भी सामने खड़े रहते। नगाड़े बंद होते तो वे कुछ पीछे हटते। नगाड़े फिर शुरू होते ही फिर लड़ाई शुरू हो जाती।
प्रसिद्ध इतिहासकार बीपी केशरी कहते हैं कि संथाल हूल ऐसी घटना थी, जिसने 1857 के संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार की थी। इस आंदोलन के बाद ही अंग्रेजों ने संथाल क्षेत्र को वीरभूम और भागलपुर से हटा दिया। 1855 में ही संथाल परगना को ‘नॉन रेगुलेशन जिला’ बनाया गया। क्षेत्र भागलपुर कमिश्नरी के अंतर्गत था, जिसका मुख्यालय दुमका था। 1856 में पुलिस रूल लागू हुआ। 1860-75 तक सरदारी लड़ाई, 1895-1900 ई. तक बिरसा आंदोलन इसकी अगली कड़िया थीं। दुर्भाग्य की बात है कि जिस हूल में दस हजार से अधिक सेनानी बलिदान हुए उसे किस प्रकार षड़यंत्रपूर्वक संथाल विद्रोह तक सीमित कर दिया गया, जबकि यह विद्रोह देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध लड़ी गई।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं जनजातीय मामलों के जानकार हैं।)

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