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कोचर और धूत ही गिरफ्तार क्यों?

देश की शीर्ष जांच एजेंसियों का सिद्धांत यह होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। फिर वो चाहे किसी भी विचारधारा या राजनैतिक पार्टी का समर्थक ही क्यों न हो।

chanda kochar

चंदा कोचर

पिछले दिनों सीबीआई द्वारा आईसीआईसीआई बैंक की पूर्व एमडी व सीईओ चंदा कोचर और उनके पति दीपक कोचर की गिरफ्तारी की खबर सुर्ख़ियों में थी। उसके बाद हाल ही में वीडियोकॉन के अध्यक्ष वेणुगोपाल धूत को भी सीबीआई ने बैंक फ्रॉड मामले में गिरफ़्तार किया। तमाम सबूतों के बावजूद सीबीआई ने 2019 में एफ़आईआर दर्ज की और जाँच करने लगी। आश्चर्य है कि आरोपियों की गिरफ़्तारी तीन बरस बाद दिसंबर 2022 में ही की गई। सीबीआई के इस ढुलमुल रवैये से सवाल उठता है कि देश में ऐसे कितने और मामले हैं जिन पर सीबीआई और अन्य जाँच एजेंसियां इसी तरह ढुलमुल रवैया अपना रही हैं?

कोचर दंपत्ति की ज़मानत के लिए बहस करते हुए उनके वकीलों ने कोर्ट में कहा कि, “जनवरी 2019 से अब तक कोचर दंपत्ति उपलब्ध थी, तो फिर इतने सालों में उन्हें जांच के लिए क्यों नहीं बुलाया गया?” वकील के अनुसार, जुलाई 2022 तक सीबीआई को जांच के लिए उनकी जरूरत तक नहीं थी और अब सीबीआई हिरासत में पूछताछ की मांग कर रही है। क़ानून के जानकार इसे सीबीआई की कार्यशैली की कमी बताते हैं। बैंक फ्रॉड का ऐसा चर्चित मामला सीबीआई के आलस्य के कारण अगर इस कदर खिंचता है तो जाँच एजेंसियों पर सवाल तो उठेंगे ही। ऐसा क्या कारण था कि 2019 में दर्ज एफ़आईआर पर गिरफ़्तारी और पूछताछ इतनी देर से हुई? जिन मामलों में सीबीआई या अन्य जाँच एजेंसियों को तत्पर्ता दिखानी होती है वहाँ तो रातों-रात गिरफ़्तारी भी हो जाती है और कार्यवाही भी गति पकड़ती है। जहां ढील देने का मन होता है या ऊपर से ढील देने के ‘निर्देश’ होते हैं, वहाँ विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहूल चौकसी जैसे आर्थिक अपराधियों को देश छोड़ कर भाग जाने का मौक़ा भी दे दिया जाता है।

बैंक फ्रॉड के मामलों में, बिना बैंक के अधिकारियों की साँठ-गाँठ के कोई भी बैंक को धोखा नहीं दे सकता। आरबीआई के आँकड़े बताते हैं कि देश के ‘टॉप 50 विल्फुल लोन डिफ़ॉल्टरों’ की ऋण की राशि जोड़ी जाए तो वो 92,570 करोड़ रुपये बैठती है। ये रक़म इतनी ज़्यादा कैसे हो गई? क्या बैंक के अधिकारी सो रहे थे? यदि कोई आम आदमी अपनी नई गाड़ी या नये घर के लिये बैंक से छोटा सा ऋण लेता है तो तमाम दस्तावेज़ों पर साइन कराए जाते हैं। गारंटी के तौर पर उसकी चल-अचल संपत्ति के दस्तावेज़ों को भी बैंक अपने पास गिरवी रख लेता है। परंतु देश के नामी बैंक लुटेरों के लिए सभी नियम और क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ा दी जाती हैं। ऐसा केवल इसीलिए होता है कि क़र्ज़ लेने वाला बैंक अधिकारियों को क़र्ज़ लेने की एवज़ में मोटी रिश्वत देता है। क़र्ज़ और ब्याज की राशि जब बहुत बड़ी हो जाती है और बैंक अधिकारी की नौकरी पर बन आती है तो शिकायत और जाँच का नाटक शुरू हो जाता है।

विजय माल्या और नीरव मोदी पर इतना हल्ला मचने के बाद जबसे भारत सरकार इस मामले पर गंभीर हुई तो इन दोनों को देश में वापस लाने की प्रक्रिया भी तेज़ हुई। हमारी सरकार को इन मामलों में कुछ सफलता भी मिल रही है। परंतु जो बैंक लोन का फ्रॉड करने वाले इसी देश में हैं उनका क्या हो रहा है? मिसाल के तौर पर देश के ‘टॉप 50 विल्फुल लोन डिफ़ॉल्टरों’ की सूची में एक नाम फ्रॉस्ट इंटरनेशनल लिमिटेड का भी है। इनकी बैंक फ्रॉड की रक़म 3500 करोड़ से अधिक है। इस कंपनी पर 14 बैंकों के एक समूह के साथ धोखाधड़ी का आरोप है।

इस कंपनी के निर्देशकों में उदय देसाई, सुजय देसाई, सुनील वर्मा, अनूप कुमार, बलदेव राज वढ़ेरा और अन्य हैं। ग़ौरतलब है कि बैंक ऑफ़ इंडिया और इण्डियन ओवरसीज़ बैंक ने 2020 में उदय देसाई और 13 अन्य लोगों के ख़िलाफ़ धोखाधड़ी के मामलों की एफ़आईआर लिखवाई थी। इतना ही नहीं बैंकों द्वारा इस समूह के निर्देशकों के ख़िलाफ़ ‘लुक आउट नोटिस’ भी जारी करवाया गया था। परंतु इस मामले की जाँच कर रही एजेंसियाँ किन्हीं कारणों से इस गंभीर मामले पर फुर्ती नहीं दिखा रही हैं। आँकड़ों के अनुसार, 2020 में जब इस मामले की एफ़आईआर दर्ज हुई थी तब यह मामला नीरव मोदी और मेहूल चौकसी के 13000 करोड़ के बैंक फ्रॉड मामले के बाद दूसरा बड़ा मामला था।

बैंक की एफ़आईआर में उदय देसाई और उनके सहयोगियों पर आरोप है कि बैंक से लोन लेने के लिये इन्होंने फ़र्ज़ी दस्तावेज जमा कराए। देसाई बंधुओं के खाते में तनाव के संकेत तब दिखाई देने लगे जब निर्यात आय प्राप्त नहीं होने के कारण बैंकों के साथ साख पत्र हस्तांतरित होना शुरू हो गए। देसाई की कंपनी के खाते को अंततः बैंक कंसोर्टियम द्वारा गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) के रूप में वर्गीकृत किया गया। बैंक द्वारा कंपनी के खातों का ‘फॉरेंसिक ऑडिट’ भी करवाया गया, जिसमें यह पाया गया कि किसी भी माल का कोई वास्तविक निर्यात हुआ ही नहीं था। लोडिंग और डिस्चार्ज पोर्ट की तुलना में जहाज की आवाजाही के आँकड़े भी बेमेल थे। फॉरेंसिक जाँच में यह भी पता चला कि देसाई समूह ने अपने ही चिर-परिचित लोगों को असुरक्षित ऋण प्रदान कर धन शोधन किया है। इस जाँच से यह भी पता चला कि देसाई ने अपने जानकारों के साथ ही लगभग दस हज़ार करोड़ की ख़रीद फ़रोख़्त भी की है।

बैंक फ्रॉड जैसे बड़े घोटालों की जाँच कर रही एजेंसियों का ढीला रवैया ही ऐसे अपराधियों को देश छोड़ने का मौका देते हैं। अगर एजेंसियों द्वारा कड़ी कार्यवाही की जाती है तो जनता के बीच ऐसा संदेश जाता है कि जाँच एजेंसियाँ अपना काम स्वायत्तता और निष्पक्ष रूप से कर रहीं हैं। देश की शीर्ष जाँच एजेंसियों का सिद्धांत यह होना चाहिये कि किसी भी दोषी को बख्शा नहीं जाएगा। फिर वो चाहे किसी भी विचारधारा या राजनैतिक पार्टी का समर्थक ही क्यों न हो। एजेंसियाँ ऐसे किसी भी अपराधी को नहीं बख्शेंगी, ऐसा करने से अपराधियों के बीच भी ख़ौफ का संदेश जाएगा और लोगों का इन एजेंसियों पर विश्वास भी बढ़ेगा।

*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के प्रबंधकीय संपादक हैं।

-भारत एक्सप्रेस

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