प्रतीकात्मक तस्वीर: भाजपा, आप और कांग्रेस
जैसे ही देश का दिल माने जाने वाले दिल्ली में विधान सभा चुनावों का माहौल बनता है तो सभी की नज़र इस चुनाव पर लग जाती है. क्योंकि जब बात केंद्र और दिल्ली की सरकार पर क़ाबिज़ होने की हो तो यह लड़ाई और भी रोचक बन जाती है. ऐसा नहीं कि दिल्ली विधान सभा का चुनाव अन्य राज्यों से अलग है. परंतु यह चुनाव अन्य राज्यों के जैसा होते हुए भी हमेशा से ही अलग ही रहता है. परंतु इस बार के चुनावों की घोषणा से पहले राजनैतिक दलों में जो खींच-तान बनी हुई है वह काफ़ी रोचक है क्योंकि लुभावने चुनावी वादों के बीच मतदाता अपने आप को फँसा हुआ पा रहा है.
दिल्ली के दंगल में सभी राजनैतिक दल अभी से उतर चुके हैं, बस देर है तो चुनावों की तारीख़ों के ऐलान की. परंतु तारीख़ों के ऐलान से पहले ही सभी राजनैतिक दल मतदाताओं को लुभाने में जुटे गये हैं. दिल्ली की मौजूदा सरकार के नेताओं ने दिल्ली की महिलाओं को लुभाने के लिए हर महिला को प्रति माह 2100 रुपए देने का वादा किया है. इसके साथ ही 60 वर्ष की आयु पूरी कर चुके दिल्ली के सभी बुजुर्गों को मुफ़्त इलाज देने की घोषणा भी कर दी गई है.
ग़ौरतलब है कि दिल्ली की सत्ता पर क़ाबिज़ आम आदमी पार्टी द्वारा किए गए यह वो चुनावी वादे हैं जो वे सत्ता में आने के बाद ही पूरे करेंगे. परंतु न जाने क्यों मौजूदा दिल्ली सरकारके ही दो विभागों ने इन घोषणाओं की हवा निकाल दी है. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल कल्याण विभाग और स्वास्थ्य विभाग ने एक विज्ञापन जारी किया, जिसमें यह बात स्पष्ट कर दी, कि इन दो घोषणाओं से संबंधित ऐसी कोई भी योजना वर्तमान में मौजूद नहीं है. इस विज्ञापन के जारी होते ही दिल्ली की जनता में संदेह पैदा हो गया.
परंतु जैसे ही इस विज्ञापन के चर्चे होने लगे तो दिल्ली की मुख्य मंत्री आतिशी ने एक बयान जारी कर इस बात को स्पष्ट कर दिया कि इस विज्ञापन की पूरी जाँच की जाएगी और ऐसा विज्ञापन जिस भी अधिकारी ने जारी किया है उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही की जाएगी. लेकिन सोचने वाली बात यह है कि विज्ञापन में ऐसा क्या ग़लत लिखा गया, जिससे कि आम आदमी पार्टी इतना उत्तेजित हुई? वादा तो चुनावी है जो कि वर्तमान में लागू नहीं है. तो इस विज्ञापन को लेकर इतना बवाल क्यों? क्या वास्तव में ऐसे विज्ञापन को इसलिए जारी किया गया कि जनता के मन में भ्रम पैदा किया जा सके?
इसी बीच, जब आम आदमी पार्टी द्वारा ऐसी घोषणाएँ की जा रही थी, तो दिल्ली में भाजपा नेता प्रवेश वर्मा के घर के बाहर महिलाओं की क़तार दिखाई दी गई जिसमें वे दिल्ली की ‘ज़रूरतमंद’ महिलाओं को ‘मदद’ बाँटे रहे थे. उल्लेखनीय है कि जो-जो महिलाएँ प्रवेश वर्मा के घर से निकल रहीं थीं उन्होंने बताया कि बाँटे गए लिफ़ाफ़े में रुपये थे और उन सभी महिलाओं को भाजपा को वोट देने के लिए कहा गया. जैसे ही मामले ने तूल पकड़ी तो प्रवेश वर्मा और भाजपा के कई नेताओं ने अपनी सफ़ाई में यह कहा कि प्रवेश वर्मा ज़रूरतमंदों की मदद अपनी एक एनजीओ की ओर से कई सालों से कर रहे हैं और यह उसी धर्मार्थ कार्य का हिस्सा है. यदि भाजपा के इस धर्मार्थ कार्य को सच मान लिया जाए तो इसमें कोई बुराई नहीं है कि कोई संस्था ज़रूरतमंदों की मदद करे.
परंतु यदि कोई संस्था जिसका मुखिया किसी राजनैतिक दल का हिस्सा हो और ऐन चुनावों की घोषणा से पहले ही ऐसी ‘मदद’ करे, जिसमें उसकी पार्टी व उसके वरिष्ठ नेताओं से संबंधित प्रचार सामग्री भी हो और बदले में अपनी पार्टी के लिए वोट माँगे तो क्या वो ‘धर्मार्थ’ कार्य की श्रेणी में आएगा? क्या ऐसा ‘धर्मार्थ’ कार्य वह संस्था पूरे साल करती है? क्या इस संस्था ने अपने प्रबंधक सदस्यों की बैठक में ऐसे किसी प्रस्ताव को मंज़ूरी दी थी जिसके तहत किसी एक राजनैतिक दल के समर्थन में वोट जुटाए जाएँ?
दिल्ली में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच हो रहे ऐसे वार पर गौर किया जाए तो इसकी पृष्ठभूमि में वह महत्वपूर्ण पहलू है जिसके तहत दिल्ली की अफ़सरशाही दिल्ली के उपराज्यपाल के अधीन है न कि दिल्ली के चुने हुए मुख्य मंत्री के. उल्लेखनीय है कि दिल्ली की अफ़सरशाही पर हक़ को लेकर एक लंबी क़ानूनी लड़ाई भी लड़ी गई थी जिसका फ़ैसला देश की सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली की चुनी हुई सरकार के हक़ में ही दिया था. परंतु चूँकि मौजूदा माहौल में केंद्र और दिल्ली की सरकार को अलग-अलग राजनैतिक दल चला रहे हैं, इसलिए 2023 में संसद में एक बिल पेश कर एक क़ानून बनाया गया जिसके तहत दिल्ली की अफ़सरशाही को उपराज्यपाल के अधीन कर दिया गया. ऐसे में चुनावी घोषणा के बाद यदि कोई सरकारी विभाग या मंत्रालय ऐसी घोषणा के खंडन में विज्ञापन देता है तो दिल्ली की जनता को ख़ुद ही समझ लेना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है?
बहरहाल चुनाव चाहे किसी राज्य की सरकार का हो या केंद्र की सरकार का, हर राजनैतिक दल मतदाताओं को लुभाने की मंशा से ऐसे कई वादे करते हैं जो वास्तव में सच नहीं किए जाते. यदि जनता को चुनावों में किए गए वादों और उन्हें पूरा किए जाने के अंतर की देखा जाए तो यह अंतर काफ़ी बड़ी संख्या में पाया जाएगा. चुनावों से पहले ऐसे वादे हर राजनैतिक दल द्वारा किए जाते हैं. परंतु मतदाताओं यह सोचना होगा कि वादों की सूची और उन्हें पूरा करने में जिस भी दल का अंतर सबसे कम हो वही दल जनता के हित की सोचता है और उसे ही चुनना चाहिए. यदि सभी दल एक समान हैं तो जनता को चुनावी वादों से भ्रमित होकर इनमें फँसना नहीं चाहिए.
*लेखक दिल्ली स्थित कालचक्र समाचार ब्यूरो के संपादक हैं.
इस तरह की अन्य खबरें पढ़ने के लिए भारत एक्सप्रेस न्यूज़ ऐप डाउनलोड करें.