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Oscar Awards 2023: भारतीय फिल्मों को क्यों नहीं मिलता ऑस्कर अवार्ड?

भारत जैसे देशों के लिए जो न तो ओलंपिक में कुछ कमाल कर पाते हैं और न ही यहां से किसी को नोबेल पुरस्कार ही मिल पाता है, ऑस्कर अवार्ड जीतना विश्व मंच पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने का सहज माध्यम बन सकता है.

Oscar Awards 2023

प्रतीकात्मक तस्वीर

Oscar Awards 2023: भारत के लिए ऑस्कर अवार्ड हमेशा से एक सपना रहा है जो सच्चे अर्थों में इस साल पूरा हुआ है, जिसके कारण समूचे भारतीय फिल्म उद्योग में खुशी का माहौल है. 95 वें एकेडमी अवार्ड समारोह में इसी 12 मार्च की रात लास एंजिल्स के डोल्बी थियेटर में जब कार्तिकी गोंजाल्विस और प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा की फिल्म ‘एलिफैंट ह्वीस्पर्स’ को शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री श्रेणी में और एसएस राजामौली की तेलुगू फिल्म ‘आरआरआर’ के गीत ‘नाटू-नाटू’ (नाचो-नाचो) को बेस्ट ओरिजनल गीत की श्रेणी में ऑस्कर अवार्ड प्रदान किया गया तो भारत में खुशी की लहर दौड़ गई.

चंद्रबोस लिखित और एमएम किरवानी द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को कुछ ही दिनों पहले प्रतिष्ठित गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड से भी नवाजा जा चुका है. हालांकि दिल्ली के युवा फिल्मकार सौनक सेन की चर्चित फिल्म ‘ऑल दैट ब्रीद’ को बेस्ट डॉक्यूमेंट्री श्रेणी में अंतिम दौर की पांच में नामांकित किया गया था जो अपने आप में बड़ी बात थी. पर इस फिल्म को अवार्ड नहीं मिला.

यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी कई भारतीय फिल्मों के बारे में उनके निर्माताओं-निर्देशकों ने झूठी खबरें प्रचारित की कि उनकी फिल्में ऑस्कर अवार्ड के लिए शार्टलिस्ट हो गई है. चूंकि भारतीय मीडिया में सिनेमा के अंतरराष्ट्रीय समारोहों को लेकर भयानक अज्ञानता और लापरवाही का माहौल है इसलिए अनुपम खेर और विवेक अग्निहोत्री जैसे लोगों की प्रेस कॉन्फ्रेंस की खबरें हिंदी और भाषाई ही नहीं, अंग्रेजी मीडिया में भी प्रमुखता से छपी. जबकि यह सच नहीं था.

यह बात वैसे ही हैं कि कोई भारतीय नागरिक पद्म अवार्ड के लिए आवेदन करे और उसका आवेदन स्वीकृत हो जाए तो वह कहने लगे कि उसका नाम शॉर्टलिस्ट हो गया है. सच यह है कि ऑस्कर अवार्ड के अंतिम दौर में हर श्रेणी में प्रायः पांच फिल्मों को शॉर्टलिस्ट किया जाता है जिन्हें अंतिम मुकाबले के लिए नामांकित किया जाता है. दूसरे, विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में हर देश अपने यहां से एक फिल्म को शॉर्टलिस्ट करके ऑस्कर अवार्ड के लिए भेजता है. अब इस श्रेणी को बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म कैटेगरी कहा जाता है. इस बार इसी श्रेणी में पेरिस में बसे भारतीय फिल्मकार पैन नलिन की गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’ को भारत से भेजा गया था. अभी भी भारत को इसी श्रेणी में ऑस्कर अवार्ड का इंतजार है. इससे पहले हालांकि भारत में बनी डैनी बायल की फिल्म ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ और रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ को कई ऑस्कर अवार्ड मिल चुके हैं, पर ये दोनों फिल्में तकनीकी रूप से ब्रिटिश फिल्में थी. यह बात अलग है कि इन्हीं फिल्मों के कारण भानु अथैया, रसूल पोकुट्टी, ए आर रहमान और गुलजार को ऑस्कर अवार्ड मिल सका था.

बेस्ट इंटरनेशनल फिल्म कैटेगरी में इस बार जिन पांच फिल्मों को शार्टलिस्ट करके नामांकित किया गया था, वे थीं- बेल्जियम के लूकास धोंट की’ क्लोज ‘, पोलैंड के जेर्जी स्कोलीमोवस्की की ‘ईओ’ , आयरलैंड के कोम बेयरिड की ‘द क्वाएट गर्ल’, जर्मनी के एडवर्ड बर्गर की ‘ऑल क्वाएट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ और अर्जेंटीना के सेंटियागो मित्रे की ‘अर्जेंटीना 1985.’ ऑस्कर अवार्ड मिला जर्मन फिल्म ‘आल क्वाएट ऑन दि वेस्टर्न फ्रंट’ को जो एक युद्ध विरोधी फिल्म है.

जर्मनी के एडवर्ड बर्गर की ‘ऑल क्वाएट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट’ प्रथम विश्व युद्ध में एक जर्मन सैनिक की सच्ची आत्म स्वीकृतियां है. यह फिल्म इसी नाम से 1929 में प्रकाशित एरिक मारिया रेमार्क के विश्वप्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित है. जिसे हिटलर के समय में प्रतिबंधित कर दिया गया था और नाजी फौज ने चौराहों पर इसकी होली जलाई थी. फिल्म का नायक पाउल प्रथम विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद युद्ध में जर्मन सैनिकों की दिशाहीनता का वर्णन करता है. दिल दहलाने वाली कहानी और वृत्तांत में युद्ध की निरर्थकता पर काफी प्रकाश डाला गया है.

95 वें एकेडमी अवार्ड समारोह में इस बार दो भारतीय फिल्मों को बेस्ट शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री और बेस्ट ओरिजनल सांग कैटेगरी में ऑस्कर अवार्ड मिलने के बाद एक पुरानी बहस फिर से ताजा हो गईं हैं कि अब तक किसी भारतीय फीचर फिल्म को ऑस्कर अवार्ड क्यों नहीं मिला और अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारतीय फिल्मों की उपस्थिति नगण्य क्यों है. अमेरिकी ब्राडकास्टिंग कंपनी एकेडमी ऑफ मोशन पिक्चर्स आर्ट्स एंड साइंस पिछले 90 सालों से हर साल ऑस्कर अवार्ड देती आ रही है. 1957 में जब विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म का ऑस्कर अवार्ड शुरू किया गया, तब से हर साल भारतीय फिल्में प्रतियोगिता में भाग लेती रही है.

दुनिया भर से आई सैकड़ों फिल्मों में से अंतिम दौर में केवल पांच फिल्में पहुंचती है जिन्हें फाइनल अवार्ड के लिए नामांकित किया जाता है. दुर्भाग्य से पिछले साठ सालों में केवल तीन भारतीय फिल्में ही अंतिम दौर तक पहुंच पाई – महबूब खान की “मदर इंडिया” (1958), मीरा नायर की “सलाम बांबे’ ( 1989) और आशुतोष गोवारिकर- आमिर खान की “लगान (2002).”

मदर इंडिया के बारे में तो कहा जाता है कि केवल एक वोट से यह फिल्म इटली के मशहूर फिल्मकार फेदेरिको फेलिनी की “नाइट्स ऑफ कैबीरिया” से पिछड़ गई. यह भी कहा जाता है कि मदर इंडिया के टिपीकल भारतीय जीवन मूल्यों और मां द्वारा अपने ही बेटे को गोली मारने की बात अमेरिकी दर्शकों को समझ नहीं आई. सलाम बांबे को डेनमार्क के विले अगस्त की “पेले द कंक्वेरर” ने शिकस्त दी जबकि इसमें गरीबी और सेक्स का अच्छा खासा कंटेंट था जो ऑस्कर के वोटरों को लुभाने के लिए काफी था. लगान को सर्बिया के डेनिस तैनोविक्क की “नो मैन्स लैंड” ने पछाड़ दिया.

जिन भारतीयों को ऑस्कर अवार्ड मिले भी हैं तो इसलिए कि उन्होंने विदेशी फिल्मकारों के साथ काम किया है. रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी में बेस्ट कास्ट्रयूम डिजाइन के लिए भानु अथैया को 1983 में और डैनी बॉयल की फिल्म “स्लम डाग मिलिनेयर” में बेस्ट साउंड के लिए ए आर रहमान, बेस्ट सांग के लिए गुलजार और बेस्ट साउंड मिक्सिंग के लिए रसूल पोकुट्टी को जरूर आस्कर अवार्ड से नवाजा गया है. भारत और ऑस्कर अवार्ड का किस्सा यहीं खत्म हो जाता है.

हिंदी फिल्मों के लिए भी एकेडमी अवार्ड्स के दरवाजे खुल सकते हैं बशर्ते सही और श्रेष्ठ फिल्मों को भेजा जाए और अमरीका में उनके प्रचार प्रसार के लिए सरकार प्रर्याप्त धन उपलब्ध कराए. भारत में फिल्म निर्माताओं की संस्था फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया अलग से एक चयन समिति बनाकर ऑस्कर अवार्ड में भेजने के लिए फिल्म का चुनाव करती है जो कई बार आत्मघाती होता है और हमारी फिल्में पहले दौर में ही प्रतियोगिता से बाहर हो जाती है.

1974 में तो एम एस सत्थ्यू की फिल्म “गरम हवा” ग्यारह महीने तक सेंसर बोर्ड में अटकी रही. जब पेरिस में इसका प्रीमीयर हुआ तो वहीं से कान फिल्म समारोह में चुन ली गई और फिर ऑस्कर अवार्ड के लिए चली गई. जब एकेडमी से सत्थ्यू साहब को आमंत्रण आया तो उनके पास खुद अमरीका जाने के पैसे नहीं थे तो फिल्म का प्रोमोशन क्या करते. अधिकतर भारतीय फिल्मकारों की यही कहानी है कि जितने पैसे में वे फिल्म बनाते हैं उससे दोगुना पैसा ऑस्कर अवार्ड के लिए अमरीका में उनकी फिल्मों के प्रोमोशन के लिए चाहिए जो उनके पास नहीं होते. इसकी वजह यह है कि ऑस्कर अवार्ड की कोई जूरी नहीं होती. सिनेमा से जुड़े करीब सात हजार लोगों के वोट से ऑस्कर पुरस्कारों का फैसला होता है. उन सात हजार लोगों में से जितने लोगों को आप अपनी फिल्म दिखाने में सफल होते हैं उतनी ही संभावना अवार्ड की बढ़ जाती है. इसके लिए बड़ी-बड़ी नाइट पार्टियां स्पेशल स्क्रीनिंग आयोजित करनी पड़ती है जिसका भारी खर्चा आता है.

विदेशी भाषा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में दुनिया भर से आई जो फिल्में अंतिम दौर में पहुंचती है और नामांकन हासिल करती है, वे आमतौर पर वे फिल्में हैं जो कान, बर्लिन और वेनिस जैसे दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित फिल्म समारोहों में धूम मचा चुकी होती है. इसलिए अमरीका में इन फिल्मों के प्रोमोशन की कोई खास जरूरत नहीं होती क्योंकि अधिकतर वोटर इन फिल्म समारोहों में इन फिल्मों को पहले से ही देख चुके होते हैं. इन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में भारतीय फिल्मों की कोई खास उपस्थिति दर्ज नहीं होती इसलिए इनके प्रोमोशन की जरूरत होती है. उदाहरण के लिए 2018 में मैक्सिको की फिल्म “रोमा” वेनिस फिल्म समारोह में और जापान की फिल्म “शाप लिफ्टर” कान फिल्म समारोह में बेस्ट फिल्म का पुरस्कार पा चुकी थी, इसलिए उनके निर्माता आश्वस्त थे कि उन्हें अंतिम दौर में नामांकन हासिल हो जाएगा और ऐसा हुआ भी. दक्षिण कोरिया के बोंग जून हो की फिल्म “पारा साइट” को भी 2019 के कान फिल्म समारोह में बेस्ट फिल्म का पुरस्कार मिल चुका था.

आस्ट्रिया के माइकल हेनेके की “आमोर” को भी पहले कान फिल्म समारोह में बेस्ट फिल्म का पाम डि ओर मिला और बाद में इस फिल्म ने ऑस्कर अवार्ड भी जीता. सिनेमा के इतिहास में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि जिन फिल्मों ने कान, बर्लिन और वेनिस फिल्म समारोहों में बेस्ट फिल्म का अवार्ड जीतकर धूम मचाया, अगले साल उन फिल्मों ने ऑस्कर अवार्ड भी जीता. इसलिए भारत के लिए यह जरूरी है कि यहां की फिल्में बड़े पैमाने पर इन अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में शिरकत करें.

ये भी पढ़ें: बेल्जियम का सिनेमा

भारत जैसे देशों के लिए जो न तो ओलंपिक में कुछ कमाल कर पाते हैं और न ही यहां से किसी को नोबेल पुरस्कार ही मिल पाता है, ऑस्कर अवार्ड जीतना विश्व मंच पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने का सहज माध्यम बन सकता है. पिछले सालों में जार्डन (थीब) कोलंबिया (ऐंब्रेंसआफ द सरपेंट) , ईरान (अ सेपरेशन) जैसे देशों ने ऐसा कर दिखाया. अपने देश की संस्कृति को वैश्विक दर्शकों तक ले जाने का यह सबसे सशक्त माध्यम है जिससे दुनिया भर में देश गौरवान्वित होता है. यह शर्मनाक है कि हर साल करीब दो हजार फिल्में बनाने वाला भारत आज तक एक भी आस्कर अवार्ड नहीं जीत पाया. चीन की स्थिति तो हमसे भी ज्यादा खराब है जहां से केवल दो फिल्में ही ऑस्कर अवार्ड के अंतिम दौर में पहुंच पाई हैं जबकि जापान (12), इजरायल (10), मैक्सिको , ताईवान और हांगकांग से आठ-आठ फिल्में अंतिम दौर तक पहुंच कर नामांकन हासिल कर चुकी हैं.

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