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स्त्रीवाद के असल मायने क्या ​हैं

महिलाओं के अधिकारों की वकालत करना सभी का कर्तव्य है, चाहे वह स्त्रीवादी हो या नहीं. साथ ही यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि पुरुषों को उनके पूर्वजों के गलत कार्यों के लिए प्रताड़ित न किया जाए.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Pixabay)

Feminism यानी ​स्त्रीवाद का अर्थ सभी लिंगों की समानता के आधार पर महिलाओं के अधिकारों की वकालत करना है. मुझे यकीन है कि हम सभी ने इसे लाखों बार पढ़ा है. हालांकि, एंटी-फेमिनिज्म (Anti-Feminism) एक नई अवधारणा है, जो स्त्रीवाद के कुछ पहलुओं के विपरीत है.

20वीं सदी में हमने देखा कि कैसे ढेर सारी अनुकूल परिस्थितियों ने दुनिया भर में स्त्रीवादी आंदोलन को जन्म दिया. 21वीं सदी में अब हम इस आंदोलन की जीर्ण-शीर्ण और पतनशील प्रकृति तथा एक नए आंदोलन के उदय को देख रहे हैं, जिसका बहुत व्यापक पुरुषवादी (Masculine) आधार है और स्त्रीवाद के किसी भी रूप का मुकाबला करने के संबंध में एक निश्चित दृष्टिकोण है – स्त्रीवाद विरोधी आंदोलन.

एक अवधारणा के रूप में ​स्त्रीवाद ने जो विकासवादी मार्ग अपनाया है, उसे देखना काफी दिलचस्प है. हम सभी ने डार्विनवाद का अध्ययन किया है. यह विकास का एक सिद्धांत है, जो बताता है कि जीवों की जो प्रजातियां अपने गतिशील परिवेश के लिए सबसे अच्छी तरह अनुकूलित होती हैं, वे अस्तित्व के संघर्ष में जीवित रहती हैं, जबकि अन्य नष्ट हो जाती हैं.

हम सभी ने संभवत: बिस्टन बेतुलरिया (Biston Betularia – रात में उड़ने वाला एक कीट) के उसी उदाहरण का बार-बार अध्ययन किया है. हालांकि, आपने कभी सोचा है कि क्या मानव मनोविज्ञान (Human Psychology) अन्य मापदंडों जैसे कि मॉर्फोलॉजी (जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के रूप और संरचना या बनावट का वैज्ञानिक अध्ययन), बाहरी उत्तेजनाओं के प्रति हमारी तीव्र प्रतिक्रिया, प्रौद्योगिकी और जीवन स्तर के समान ही विकसित हुआ है?

मुझे गलत मत समझिए, हमारा दिमाग अभी भी तेजी से विकास के दौर से गुजर रहा है, लेकिन क्या हम मानसिक और भावनात्मक रूप से उन बदलावों को समझने और इतनी तेजी से विकसित होने के लिए तैयार हैं?

तब हम ‘युद्ध कैसे रोकें?’, ‘समाज के सभी वर्गों को कैसे सशक्त बनाया जाए?’ जैसे प्रश्न पूछते थे और अब हम पूछते हैं, ‘महिला क्या है?’ या यू कहें कि ‘उसके साथ एक पुरुष से अलग व्यवहार क्यों किया जाना चाहिए?’

समाज का यह तथाकथित छद्म-बौद्धिक ‘जागृत’ वर्ग बार-बार यह समझने में विफल रहा है कि स्त्रीवाद न तो यह साबित करने की लड़ाई है कि महिलाएं, पुरुषों से श्रेष्ठ हैं और न ही यह पुरुषों की स्थिति को खराब करने की लड़ाई है. स्त्रीवाद यह सोचने के बारे में नहीं है कि इसे ‘इतिहास’ क्यों कहा जाता है और ‘Her Story’ क्यों नहीं.

स्त्रीवाद, महिलाओं को विशेषाधिकार सौंपने की मांग करने के बारे में नहीं है. यह कभी भी पुरुषों की तुलना में एग्जाम में लिखने के अधिक समय की मांग करने के बारे में नहीं था.

स्त्रीवाद शुरुआत में दिमागी समानता और पर्याप्त अवसर की लड़ाई थी. महिलाएं कभी नहीं चाहती थीं कि उनके साथ विशेष व्यवहार किया जाए, वे कभी भी जान-बूझकर पुरुषों को नीचा नहीं दिखाना चाहती थीं और उनके साथ अपने हीन समकक्षों के रूप में व्यवहार नहीं करना चाहती थीं.

महिलाओं को वोट देने की अनुमति नहीं थी, उन्हें कारखानों में काम करने की अनुमति नहीं थी, उन्हें अपनी इच्छानुसार कपड़े पहनने की अनुमति नहीं थी और वे उन्हें दिए गए हर आदेश का पालन करने के लिए बाध्य थीं. जब किसी के अधिकारों को इतने लंबे समय तक दबाया जाता है, तो वे पलटवार करना शुरू कर देते हैं और जो उनका असली अधिकार है उसके लिए लड़ना शुरू कर देते हैं.

हम सभी ने ऐसे ट्वीट पढ़े हैं जैसे ‘जब महिलाएं काम पर जाती हैं और उच्च पद पर तैनात होती हैं, तो यह समाचार चैनलों के लिए कवर करने के लिए एक बड़ा विषय बन जाता है. हालांकि, जब कोई आदमी घर का काम करता है, तो उसकी ओर कोई ध्यान भी नहीं देता.’

इस तरह के बयान के साथ असंख्य मुद्दे हैं, सबसे बड़ा उस मूल कारण को गलत समझना है कि क्यों न्यूज चैनल ऐसी घटनाओं को दिखाना चाहते हैं? जरूरी मुद्दा यह है कि पहले महिलाओं को काम करने की अनुमति नहीं थी. उनसे कुछ कार्यों की अपेक्षा की जाती थी और उनका जीवन उनके परिवारों के इर्द-गिर्द घूमता था.

उन्होंने कभी बाहर कदम रखने और ‘डॉली की मां’ या ‘दीपक की पत्नी’ के अलावा किसी और के रूप में पहचाने जाने का सपना भी नहीं देखा था. हालांकि, क्या आपने कभी पढ़ा है कि ऐतिहासिक रूप से पुरुषों को घरेलू कामों में मदद करने से रोक दिया गया था?

यह अक्सर गूढ़ है कि पुरुषों को हमेशा मदद के लिए हाथ बढ़ाने की अनुमति थी और यह कई यूरोपीय देशों में एक आम बात थी. यही कारण है कि जब महिलाएं राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सीईओ और सरकारी अधिकारी बनीं, तो उनकी पूरी जाति के लिए इन उपलब्धियों को उजागर करना अनिवार्य हो गया.

इशाना शर्मा.

स्त्रीवादी आंदोलन 1848 में शुरू हुआ, जब (अमेरिकी लेखक और एक्टिविस्ट) एलिजाबेथ कैडी स्टैंटन के साथ महिलाओं के एक समूह ने सेनेका फॉल्स कन्वेंशन (न्यूयॉर्क के सेनेका फॉल्स में हुआ था) का आयोजन किया, जहां पहली बार महिलाओं के अधिकारों के लिए खुली मांग की गई. उस समय उनका प्रारंभिक उद्देश्य सही ढंग से वोट देने का अधिकार पाना था. इस प्रकार ‘स्त्रीवादी समूह’ शुरू हुआ और यह सम्मेलन अन्य लोगों के अनुकरण के लिए उदाहरण बन गया.

निस्संदेह 1920 में अमेरिका में महिलाओं को वोट देने की अनुमति देने का एकमात्र कारण यह नहीं था कि लोग वास्तव में समान अधिकारों की परवाह करते थे, बल्कि इसलिए कि पुरुष प्रथम विश्व युद्ध लड़ रहे थे. इसलिए, सरकार ने अर्थव्यवस्था को क्रियाशील बनाए रखने के उनके प्रयासों की ईमानदारी से ‘सराहना’ की और महिलाओं को वयस्क मताधिकार देकर उन्हें ‘पुरस्कृत’ किया. उन्हें उस चीज के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी जो पुरुषों को एक पल में मिल जाती थी.

अंतत: जब महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया गया, तो इसने दुनिया भर में महिलाओं के लिए एक उत्साहजनक प्रेरणा स्थापित की और विश्व स्तर पर बढ़ते स्त्रीवादी आंदोलन के लिए उत्प्रेरक बन गई.

महिलाओं को अंतत: इस तथ्य का सचेत रूप से एहसास हुआ कि उन पर अत्याचार किया गया है, उन्हें गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया है, उपेक्षित किया गया है, तुच्छ बनाया गया है और उन निरंतर बाधाओं से जकड़ा गया है, जो कठोर समाज ने उनके और उनके आत्म-मूल्य की प्राप्ति के बीच रखी थी.

अब, हम वास्तव में इसके लिए किसी एक व्यक्ति या समाज के एक वर्ग या यहां तक कि पुरुषों को भी बड़े पैमाने पर जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. सत्तावादी और कठोर विचारधाराओं के बीच पले-बढ़े लोगों के कारण, उस समय स्वीकृति एक लोकप्रिय प्रवृत्ति नहीं थी.

हालांकि, स्त्रीवादी आंदोलन कायम रहा और विभिन्न पहलुओं में बहुआयामी प्रगति की. अपने नाम पर संपत्ति रखने का अधिकार प्राप्त करने से लेकर कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में प्रवेश और नौकरियों के लिए योग्यता को आधार बनाना, बस में गोरे व्यक्ति (White Man) के समान सीट की मांग से लेकर समान वेतन को अनिवार्य बनाने तक, शिक्षा में समानता से लेकर अपने पुरुष समकक्षों के समान अवसर प्राप्त करने तक, हमने निश्चित रूप से जबरदस्त प्रगति की है.

स्त्रीवादी आंदोलन में जो सर्वोपरि मुद्दा उठा है वह प्रतिक्रिया और विचारों में मतभेद नहीं है, बल्कि छद्म स्त्रीवादियों का अस्तित्व है. छद्म-स्त्रीवाद (Pseudo-Feminism) का अर्थ ‘अन्य लिंगों से आगे बढ़कर महिलाओं की उन्नति का समर्थन करना और अतीत की गलतियों को सुधारने के लिए पुरुषों को सक्रिय रूप से लक्षित करना’ है.

इसके विपरीत, आंशिक-स्त्रीवाद (Quasi-Feminism) का अर्थ ‘किसी ऐसे व्यक्ति से है जो मानता है कि पुरुषों और महिलाओं के साथ उनके जीवन के अधिकांश, लेकिन सभी नहीं, पहलुओं में समान व्यवहार किया जाना चाहिए.’ और अंत में समतावादी स्त्रीवाद (Egalitarian Feminism) का अर्थ पृथ्वी पर सभी व्यक्तियों को समान मानना है, चाहे वह शारीरिक रूप से हो या मानसिक. हमारी पीढ़ी के लिए छद्म-स्त्रीवादियों और आंशिक-स्त्रीवादियों के बीच अंतर करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है.

एक छद्म-स्त्रीवादी महिला, पुरुषों को अपने से कमतर समझेगी, एक आंशिक-स्त्रीवादी ऐसा नहीं समझेगी. एक आंशिक-स्त्रीवादी इस बात से सहमत होगा कि पुरुष शारीरिक रूप से महिलाओं की तुलना में अधिक मजबूत होते हैं, यह भी कि महिलाएं और पुरुष दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में श्रेष्ठ हैं और अपने मतभेदों के बावजूद, वे अभी भी इंसान हैं.

हालांकि, महिलाओं के अधिकारों की वकालत करना हर पुरुष और महिला का कर्तव्य है, चाहे वह स्त्रीवादी हो या नहीं. साथ ही यह सुनिश्चित करना भी जरूरी है कि पुरुषों को उनके पूर्वजों के गलत कार्यों के लिए प्रताड़ित न किया जाए. इस संबंध में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 18-29 आयु वर्ग के 45 प्रतिशत पुरुषों को लगता है कि उन्हें अवांछित भेदभाव का सामना करना पड़ा है.

तो स्त्रीवादी या स्त्रीवाद-विरोधी? मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करती हूं कि हालांकि हर किसी को अपनी राय रखने का अधिकार है, लेकिन लोगों को ऐसी श्रेणियों में वर्गीकृत करने वाली कठोर चेतावनी की कोई जरूरत नहीं है. आखिरकार, हम सभी मनुष्य हैं और अन्य मनुष्यों के अधिकारों की वकालत करना और अपनी क्षमता से उनके प्रयासों का समर्थन करना हमारा अंतिम उद्देश्य होना चाहिए, चाहे वह स्त्रीवादी आंदोलन जैसा आंदोलन हो या नहीं.

मानवतावाद वह है जो हमें एक साथ जोड़ता है और साथ ही हमें विविधता प्रदान करता है. किसी के जीवन में या अपनी मानसिकता में किया गया कोई भी छोटा सा बदलाव एक कदम आगे की बढ़ने की बात है. वह और अन्य सभी मनुष्यों के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना, अपने आप में, जिस दुनिया में हम रह रहे हैं उसे एक असीम रूप से बेहतर जगह बनाएगी.

(युवा लेखिका इशाना शर्मा 11वीं की छात्रा हैं. यह लेख मूल रूप से Business World वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ है.)

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