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धर्म सृष्टि का आधार, लोगों के दिल में इसका भाव समाज को एकजुट रखता है: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत

Sanatan Dharma Importance: मोहन भागवत ने वलसाड में कहा, “धर्म सृष्टि का आधार है, मतांतरण अनावश्यक. सनातन संस्कृति से ही विश्व कल्याण संभव है. मंदिर न केवल पूजा केंद्र, बल्कि प्रेरणा स्थल हैं.”

RSS chief Mohan Bhagwat

RSS प्रमुख मोहन भागवत.

Vijay Ram Edited by Vijay Ram

Indian Culture: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने आज गुजरात के वलसाड में एक धर्म-संस्कृति केंद्र के कार्यक्रम में समाज, धर्म और सनातन संस्कृति को लेकर कई महत्वपूर्ण विचार रखे. उन्होंने स्पष्ट किया कि धर्म सृष्टि का आधार है और मतांतरण की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि सभी पूजा पद्धतियों का लक्ष्य एक ही है — सत्य की ओर बढ़ना.

ऐसा है धर्म का सार्वभौमिक स्वरूप

भागवत ने कहा कि धर्म केवल हिंदू समाज या किसी विशेष समूह तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक सार्वभौमिक नियम है, जिस पर पूरी सृष्टि का निर्माण, संचालन और संहार आधारित है. उन्होंने कहा कि सत्य ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है और हमारे ऋषि-मुनियों ने सबसे पहले इस सत्य को जाना और समझा. यही एकता का भाव संपूर्ण विश्व में आवश्यक है.

सनातन का संदेश- विविधता में एकता

उनका कहना था कि यद्यपि पूजा पद्धतियाँ भिन्न हो सकती हैं, परन्तु सभी की मूल भावना एक ही होती है. कोई भी व्यक्ति किसी भी रूप में ईश्वर की आराधना करे, उसका उद्देश्य उसी एक परम सत्य की प्राप्ति होता है. इसलिए मतांतरण अनावश्यक है. उन्होंने संत गुलाबराव महाराज का उदाहरण देते हुए कहा, “यदि सभी धर्म समान हैं, तो फिर हिंदू ही क्यों न बने रहें?”

मतांतरण: सत्ता और प्रभाव की इच्छा

भागवत ने मतांतरण के पीछे की प्रवृत्तियों की आलोचना की और कहा कि यह प्रायः सत्ता, प्रभाव और विस्तार की आकांक्षा से प्रेरित होता है. जब लोग आत्मिक मूल्यों को छोड़कर भौतिक सत्ता की ओर आकर्षित होते हैं, तब इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं. यह दूसरों पर जबरदस्ती, लालच या मजबूरी का प्रयोग करके धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश होती है, जो धर्म के विरुद्ध है.

धर्म के मार्ग पर अडिग रहने का आह्वान

उन्होंने समाज से आह्वान किया कि वे धर्म के मार्ग पर अडिग रहें. धर्म का पालन करने से न केवल व्यक्ति का कल्याण होता है, बल्कि समाज और राष्ट्र का भी उत्थान होता है. उन्होंने महाभारत का उदाहरण देते हुए कहा कि दुर्योधन ने लालच में आकर अधर्म का मार्ग अपनाया और परिणामस्वरूप पूरा समाज प्रभावित हुआ. आज भी लोभ, मोह और भय से यदि हम धर्म से डिगे तो सामाजिक अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है.

मंदिरों और धार्मिक केंद्रों की भूमिका

भागवत ने धर्म प्रचार और प्रसार के लिए मंदिरों और धार्मिक केंद्रों की भूमिका को महत्वपूर्ण बताया. उन्होंने कहा कि पहले संत स्वयं गांव-गांव जाकर लोगों को धर्म का मार्ग दिखाते थे, लेकिन अब जनसंख्या बढ़ने के कारण ऐसे केंद्रों की आवश्यकता बढ़ गई है. मंदिर न केवल पूजा का स्थान हैं, बल्कि वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – चारों पुरुषार्थों की प्रेरणा के केंद्र भी हैं.

आयोजनों का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव

मंदिरों और धार्मिक आयोजनों, जैसे कुंभ मेले का उल्लेख करते हुए भागवत ने कहा कि ये न केवल श्रद्धा और अध्यात्म का केंद्र हैं, बल्कि इनके माध्यम से अर्थव्यवस्था और सामाजिक समरसता भी सशक्त होती है. हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि धर्म के लिए आर्थिक लाभ प्राथमिकता नहीं है, लेकिन आज के संदर्भ में इसे समझाना आवश्यक हो जाता है.

भारत बने धर्म-अध्यात्म का प्रकाश स्तंभ

भागवत ने कहा कि आज दुनिया भारत की ओर देख रही है क्योंकि उसे यहीं से धर्म का मार्ग मिलेगा. भारत को अपने धार्मिक मूल्यों पर अडिग रहकर पूरी दुनिया के लिए एक आदर्श प्रस्तुत करना होगा. इसके लिए मंदिरों और धार्मिक संस्थानों की संख्या बढ़ानी होगी. उन्होंने स्वामी जी के 25 वर्षों के सेवा कार्य का उल्लेख करते हुए कहा कि ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहित करना चाहिए.

सनातन धर्म की विशेषता और प्रासंगिकता

उन्होंने कहा कि सनातन धर्म किसी के अकल्याण की कामना नहीं करता. यह सत्य, ज्योति और अमृत की ओर ले जाता है. यह धर्म दूसरों को बदलने की बजाय स्वयं के आचरण द्वारा प्रेरणा देता है. आज की आवश्यकता है कि हम अपने धर्म में दृढ़ रहें और इसे दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनाएं.

धर्म-समाज की रक्षा का संकल्प लेना होगा

भागवत ने अंत में समाज को चेताया कि यदि धर्म की उपेक्षा हुई, तो सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था चरमरा जाएगी. नशा, शराब और अन्य बुराइयों का फैलाव होगा. उन्होंने धर्म को केवल व्यक्तिगत नहीं, बल्कि राष्ट्रीय और सामाजिक उत्थान का आधार बताया.

भागवत का यह संबोधन स्पष्ट संकेत देता है कि आज के समय में धर्म केवल एक आस्था का विषय नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना, आध्यात्मिक चेतना और सांस्कृतिक एकता का मूल आधार है. उन्होंने कहा कि भारत को अपनी धार्मिक और आध्यात्मिक विरासत पर गर्व होना चाहिए और उसी को आधार बनाकर वह पूरे विश्व का मार्गदर्शन कर सकता है.



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