
सांकेतिक तस्वीर
दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि शिक्षित वादी को अपने मुकदमेबाजी पर नजर रखनी चाहिए और वकील के फीस चेक पर हस्ताक्षर करने मात्र से उसका कर्तव्य समाप्त नहीं हो जाता. अदालत ने एक मामले में अपील दायर करने में 562 दिनों की देरी को मारी करने की मांग याचिका खारिज करते हुए यह टिप्पणी की. दरअसल याची ने तर्क रखा था कि उनके वकील की गलती की सजा उनको नहीं दी जा सकती.
न्यायमूर्ति गिरीश कठपालिया ने कहा कि न्यायालय को वादी की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक स्थिति को ध्यान में रखना चाहिए. शिक्षित शहरी वादी इस नियम के समान संरक्षण का दावा नहीं कर सकता, जैसा कि अशिक्षित देहाती वादी को दिया जाता है, क्योंकि जहां अशिक्षित वादी पूरी तरह से अपने वकील पर निर्भर रहता है और अपने मुकदमेबाजी पर नजर रखने में विफल रहता है तो यह समझ में आता है, लेकिन जहां शिक्षित वादी ऐसा करता है, वहां यह समझ में नहीं आता.
न्यायमूर्ति कठपालिया ने एक गैर सरकारी संगठन- जन चेतना जागृति एवं शैक्षिक विकास मंच, इसके अध्यक्ष और सचिव द्वारा दायर आवेदन को खारिज कर दिया जिसमें धन वसूली के फैसले और डिक्री को चुनौती देने वाली अपील दायर करने में एक वर्ष से अधिक की देरी के लिए माफी मांगी गई थी. अपीलकर्ताओं के अनुसार संबंधित देरी 562 दिनों की थी, जबकि रजिस्ट्री का कहना था कि देरी 565 दिनों की थी.
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आवेदन को खारिज करते हुए न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्ताओं द्वारा अपील दायर करने में 565 दिनों की भारी देरी के बारे में दिया गया एकमात्र स्पष्टीकरण यह था कि उनके पूर्व वकील ने उन्हें अंधेरे में रखा. कोर्ट ने कहा कि वकील की गलती के कारण वादी को परेशानी नहीं उठानी चाहिए, लेकिन यह कोई व्यापक नियम नहीं हो सकता. न्यायालय ने कहा कि उक्त नियम का संरक्षण जो एक अशिक्षित आम व्यक्ति को दिया जा सकता है, उसे एक शिक्षित वादी या कॉर्पोरेट इकाई या सरकारी निकायों को नहीं दिया जा सकता.
-भारत एक्सप्रेस
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