बिहार में जहरीली शराब से हाहाकार
जब देश में बिहार की शराबबंदी की प्रासंगिकता पर बहस हो रही है तो किसी शायर की चंद लाइनें याद आती हैं – तबसरा कर रहे हैं दुनिया पर/चंद बच्चे शराबखाने में। सच्चाई यही है कि शराबबंदी के बावजूद बिहार शराबखाना बन चुका है और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जिद या निष्कर्ष है कि ‘पियोगे तो मरोगे।’ काश! यह बात शराब पीकर मरने वालों को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मौत से पहले बताई होती। अभियान चलाया होता पूरे बिहार में कि शराबबंदी जरूरी है। शराब से सेहत खराब होती है, परिवार बर्बाद होता है और ‘शराब पियोगे तो मरोगे’।
जहरीली शराब से मौत का आंकड़ा जब 70 से ज्यादा पहुंच गया हो और घर-परिवार में मातम मचा हो, तो क्या कोई उपदेश किसी तरह का संदेश हो सकता है? बिहार ऐसा प्रदेश है जहां शराबबंदी पर राजनीतिक दलों के सुर एक रहे हैं। सभी पार्टियों ने शराबबंदी का समर्थन किया है। मगर, जहरीली शराब पीने से मौत की घटना का समर्थन कोई कैसे कर सकता है?
शराबबंदी के बावजूद शराब की धड़ल्ले से बिक्री भी बिहार का कड़वा सच है। हर राजनीतिक दल ने इस सच की कड़वाहट को महसूस किया है। बिहार में आज जो विपक्ष में हैं, कल सत्ता में थे और जो आज सत्ता में हैं, कल विपक्ष में थे। लेकिन, एक बात जो बहुमूल्य है वह यह कि नीतीश कुमार पिछले 17 साल से लगातार सत्ता में हैं। इसलिए जहरीली शराब और इससे हुई मौत से जुड़ी जिम्मेदारी से वे खुद को बरी नहीं कर सकते।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने न सिर्फ ‘पियोगे तो मरोगे’ का बयान दिया है बल्कि उन्होंने कहा है कि “शराब पीकर मरने वालों को कोई मुआवजा नहीं दिया जाएगा।” नीतीश कुमार की जिद सैद्धांतिक आग्रह से ज्यादा दुराग्रह लगती है। बिहार गौतम बुद्ध की धरती है जहां अपराध से नफरत की सीख दी जाती है, अपराधियों से नहीं। अपराधी के मरने या उन्हें मारने से अपराध खत्म नहीं होता। अपराधियों को सुधरने और सुधारने की सीख दी जाती है।
शराब पीना गलत है, शराबी भी इसलिए गलत हैं कि वे शराब पीते हैं। मगर, इन शराबियों ने किसी की हत्या नहीं की है। अपनी जान दी है। ‘जान दी है’ बोलना शायद गलत हो। इन शराबियों की हत्या की गई है। इन्हें जहरीली शराब पिलाई गई है। कौन हैं हत्यारे?
• क्या सिर्फ वही हत्यारे हैं जिन्होंने जहरीली शराब बेची है?
• क्या वे हत्यारे नहीं हैं जिन्होंने जहरीली शराब बेचने दिया है?
• क्या 17 साल से मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार और उनकी सरकार दोषी नहीं है?
• क्या नीतीश के साथ सरकार में रहे एनडीए और महागठबंधन के सहयोगी दल दोषी नहीं हैं?
मृतक के परिजनों को मुआवजा देने से शराब पीने-पिलाने को बढ़ावा मिलेगा- यह सोच का दिवालियापन है। मुआवजा अनुकंपा नहीं, अधिकार होता है मृतक के परिवार का। मृतक के लिए नहीं होता कोई मुआवजा। मुआवजा लोकतांत्रिक सरकार का कर्त्तव्य होता है, गलतियों का प्रायश्चित भी। जनता के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी का प्रमाण भी होता है मुआवजा।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को यह समझना होगा कि बिहार सरकार कोई बीमा कंपनी नहीं है कि शराब पीने से मौत पर मुआवजे से वह इसलिए इनकार कर दे कि शर्त में यह उल्लिखित नहीं है। सरकार सुशासन के लिए जिम्मेदार है। शराबबंदी टूटी है तो इसके लिए बिहार सरकार और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जिम्मेदारी लेनी होगी। इस जिम्मेदारी का अगर अहसास हुआ तो मुआवजा भी तार्किक लगेगा और मुआवजे की राशि भी इतनी होनी चाहिए जितनी कभी इससे पहले ना दी गई हो। ऐसा करके ही शराबबंदी के प्रति गंभीरता नीतीश सरकार दिखा सकती है।
यह सवाल उठाया जा रहा है कि जब नीतीश सरकार शराबबंदी सही तरीके से लागू नहीं कर पा रही है तो इस नीति पर पुनर्विचार क्यों न किया जाए? पुनर्विचार का मतलब शराबबंदी खत्म करने से ही है। देश में बिहार समेत पांच राज्यों में ही शराबबंदी लागू है। इनमें गुजरात भी है। मगर, एक नैतिक सवाल यह भी उठता है कि जहरीली शराब पीकर मौत की इस घटना का सबक क्या लिया जाए- शराबबंदी को खत्म करना या शराबबंदी को मजबूत करना?
नेशनल फैमिली सैम्पल सर्वे 5 के मुताबिक शराबबंदी के बावजूद बिहार में कई बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र के मुकाबले शराब का सेवन अधिक होता है। बिहार में जहां 15.4 फीसदी लोग शराब पी रहे हैं, वहीं उपरोक्त तीनों राज्यों में शराब का सेवन क्रमश: 11, 13.9 और 14.5 प्रतिशत हो रहा है। लेकिन, यह भी उल्लेखनीय है कि शराबबंदी के बाद शराब पीने वालों की प्रतिशत हिस्सेदारी घटती गई है।
बिहार में शराबबंदी से पहले के 10 साल और बाद के पांच साल के आंकड़ों की बात की जाए तो शराब सेवन घटने के तथ्य की पुष्टि हो जाती है। इसमें सबसे ज्यादा फर्क 20 से 34 साल के आयुवर्ग में देखा गया है। इस वर्ग में जहां शराबबंदी से पहले 10 साल में 3.7 फीसदी शराब पीने वाले घटे थे, वहीं शराबबंदी के बाद के 5 साल में 15.6 फीसदी की गिरावट आई।
बिहार में शराबबंदी के बाद 2016 से अक्टूबर 2021 तक 3.5 लाख मामले दर्ज किए गए हैं और चार लाख से ज्यादा गिरफ्तारियां हुई हैं। इस दौरान ऐसा दावा किया जाता है कि हर साल 10 हजार करोड़ रुपये के हिसाब से 50 हजार करोड़ रुपये के राजस्व का घाटा बिहार सरकार को हुआ है।
इस बात की समीक्षा जरूरी है कि शराबबंदी के कारण गरीब तबके के लोगों पर कानूनी शिकंजा, सरकार को राजस्व घाटा और इस दौरान शराब के सेवन में आ रही कमी में से किस तथ्य को गंभीर माना जाना चाहिए। यह भी सच है कि भ्रष्टाचार की समानांतर काली व्यवस्था शराबबंदी ने खड़ी की है। लेकिन, सवाल यह है कि नकारात्मक पहलुओं के बीच भी अगर शराब का सेवन घट रहा है तो क्यों नहीं शराबबंदी के दुष्परिणामों को खत्म करने पर जोर दिया जाए न कि शराबबंदी को खत्म करने पर?
जिन प्रदेशों में शराबबंदी नहीं है क्या वहां जहरीली शराब नहीं बन रही है? क्या वहां जहरीली शराब बेची नहीं जा रही है या फिर इससे मौत नहीं हो रही है? जाहिर है कि जहरीली शराब बेचने और पीने या पीकर मरने की घटनाओं का इस बात से कोई संबंध नहीं है कि किसी प्रदेश में शराबबंदी लागू है या नहीं। ऐसा भी कहा जा सकता है कि जिन प्रदेशों में शराबबंदी नहीं है और जहरीली शराब पीने से मौत हो रही है, वहां क्यों नहीं शराबबंदी आजमाई जाए? शायद उससे स्थिति में बदलाव हो।
बिहार की घटना को देश सबक के तौर पर ले सकता है। शराबबंदी को लागू करना जितना जरूरी है, उससे अधिक जरूरी है इसे बेहतर तरीके से लागू करना। ऐसी नीति अगर जहरीली शराब बनाने, बेचने और पीने की स्थिति पैदा करे, तो उस पर पुनर्विचार जरूरी हो जाता है। मगर, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि शराब समाज का ऐसा व्यसन है जो युवाओं को बर्बादी की ओर ले जा रहा है। देश में हर साल 2.6 लाख लोगों की मौत शराब के कारण हो रही है और इसे रोकने के तरीकों पर भी सोचना जरूरी है।