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इजरायल-हमास जंग: भारत क्यों रहे सावधान?

इजरायल-हमास के नाम पर संघर्ष आगे बढ़ने पर यह तय दिखता है कि भारत या तो तटस्थ रहेगा या फिर इजरायल के खिलाफ खड़ा नहीं होगा।

November 5, 2023
israel hamas war

इजरायल हमास युद्ध

मध्य पूर्व में कई दशकों के संघर्ष और तनाव को खत्म कर शांति की स्थापना के प्रयासों को 7 अक्टूबर के दिन गहरा आघात पहुंचा। फिलिस्तीनी संगठन हमास ने इजरायल पर हमला कर एक ऐसी ज्वाला भड़का दी है जिसकी आंच अरब देशों से होते हुए भारत तक पहुंचने की आशंका है। इजरायल पर हमास के बर्बर हमले के बाद पीएम मोदी ने हमास के हमले को आतंकी हमला करार देते हुए कहा कि मुश्किल की इस घड़ी में भारत इजरायल के साथ खड़ा है। हमास के हमले को आतंकी हमला कहना और इजरायल का खुलकर पक्ष लेना भारत की बदली हुई नीति के तौर पर देखा जा रहा है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिलिस्तीन प्राधिकरण के राष्ट्रपति महमूद अब्बास से भी बात की और फिलिस्तीन को मानवीय सहायता जारी रखने का संकल्प दोहराया। स्पष्ट है कि भारत फिलिस्तीनियों के साथ आज भी खड़ा है लेकिन हमास का समर्थन नहीं करता।

लेकिन इजरायल के साथ भारत की बढ़ती निकटता किसी से छिपी नहीं है जिसके कारण भी हैं। आर्थिक, तकनीक और विज्ञान के साथ-साथ रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के बीच बढ़ता सहयोग तो बड़ा कारण है ही लेकिन इस्लामिक आतंकवाद से पीड़ित दोनों देशों की बढ़ती नजदीकी एक व्यावहारिक परिणति मानी जा सकती है।

दरअसल इजरायल-हमास संघर्ष दो राष्ट्र नहीं, राष्ट्रीयताओं की लड़ाई है। इस लड़ाई का व्यापक धार्मिक आधार भी है। दुनिया भर के यहूदी इजरायल के लिए तन-मन-धन से जुटे हुए हैं। वहीं, अलग-अलग राष्ट्र से जुड़े होने के बावजूद धार्मिक आधार पर मुसलमानों का समर्थन फिलिस्तीन के लिए है जिसकी खातिर हमास ने सशस्त्र संघर्ष का रास्ता चुना है। फिलिस्तीन के लिए मुसलमानों के समर्थन में उतार-चढ़ाव का आधार शिया-सुन्नी और विभिन्न सरकारों के अपने-अपने राष्ट्रीय हित जरूर होते हैं लेकिन आम मुसलमानों में फिलिस्तीन के लिए गहरी सहानुभूति है।

मुसलमानों की दूसरी सबसे बड़ी आबादी भारत में निवास करती है। फिलिस्तीन के लिए भारतीय मुसलमानों के साथ-साथ शेष आबादी भी खड़ी रही है। हिन्दू और मुसलमान या फिर इसी तरह यहूदी और मुसलमान के लिए दो राष्ट्र का सिद्धांत हमेशा चर्चा में रहा है। इसी सिद्धांत के तहत फिलिस्तीन के भीतर यहूदी राष्ट्र इजरायल को अंग्रेजों ने बनाया और यहूदियों को बसाया। भारत का राजनीतिक नेतृत्व दो राष्ट्र के सिद्धांत के खिलाफ था फिर भी पाकिस्तान बनने देने की परिस्थिति को इसने आखिरकार कबूल किया। विभाजित भारत में हिन्दू और मुसलमान दोनों सद्भावपूर्ण तरीके से रहने लगे तो इसके पीछे भी दो राष्ट्र के सिद्धांत को अस्वीकार कर देने का फैसला रहा है।

इजरायल-हमास युद्ध का भारत पर असर पड़ने के पीछे उपरोक्त ऐतिहासिक कारण स्पष्ट रूप से हैं। बाद की परिस्थितियों ने भी हमें किसी न किसी तरह इजरायल और फिलिस्तान से जोड़े रखा है। लेकिन, थोड़ा और स्पष्ट रूप से समझें तो इन दिनों भारत में हिन्दू राष्ट्र के शोर के पीछे दो राष्ट्र के सिद्धांत को भारत-पाकिस्तान के रूप में पूर्ण मान लेने की जिद है। इसका एक और मतलब यह है कि आधुनिक भारत में दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं मानने की राजनीतिक सोच में अब बदलाव आ चुका है। हालांकि संवैधानिक रूप से यह सोच बदली नहीं है। विचारों का यह द्वंद्व भारत में वही माहौल बनाता है जो इजरायल-फिलिस्तीन की धरती पर विद्रूप रूप में दिख रहा है।

केरल में बीते दिनों सीरियल ब्लास्ट ने देश को चौंका दिया था। एकबारगी ऐसा लगा जैसे हमास या उसके समर्थकों ने इस कार्रवाई को अंजाम दिया हो। इस ब्लास्ट के लिए जिस सहजता से देश ने हमास को जिम्मेदार मान लिया, इसी सहजता में उस खतरे का अंदेशा भी है कि आने वाले समय में भारत की धरती इजरायल-हमास संघर्ष की तपिश झेल सकती है। हालांकि खतरे का अंदेशा निराधार नहीं है। ब्लास्ट से ठीक पहले मल्लपुरम में हमास कमांडर की वर्चुअल रैली चिंताजनक है। फिलिस्तीन समर्थक भारतीय कब इजरायल और हमास के बर्बर हमलों पर दो पक्ष बन जाएं, कहना मुश्किल है।

भारतीय हिन्दू और मुसलमान लंबे समय से साथ रहने के आदी हैं। छोटे-बड़े दंगों और तनाव की चंद घटनाओं के बीच अगर निरंतरता किसी बात की है तो वह सौहार्दपूर्ण शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की है। मगर, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस्लामोफोबिया या हिन्दूफोबिया फैक्टर का इस्तेमाल कभी भी किया जा सकता है। भारत से बाहर की शक्तियां इसके लिए अधिक सक्रिय रही हैं। भारत के उत्तर में जम्मू-कश्मीर के लंबे समय तक अशांत रहने का कारण भारत विरोधी शक्तियों की सक्रियता ही रही थी। अब दक्षिण के सुदूरवर्ती प्रदेश केरल में भी ऐसी ही शक्तियां पैर पसारने की कोशिश में हैं। हमास समेत तमाम अतिवादी इस्लामी संगठन ‘मुस्लिम खतरे में हैं’ का नारा बुलंद कर सकते हैं और इससे वे भारतीय मुसलमानों को भी जोड़ सकते हैं।

भारत में कोई भी आतंकी हमला हिन्दू-मुस्लिम एकता पर भारी पड़ सकता है। ऐसे हमलों से इस्लामोफोबिया की भावना को मजबूत बनाने वाली राजनीतिक शक्तियां सक्रिय हो जाएंगी। इससे प्रतिक्रिया पैदा करना ही विघटनकारी तत्वों का मकसद है। वे हिन्दुओं का भय दिखाकर अपनी सक्रियता बढ़ाने का अवसर ढूंढ़ेंगे।

दुनिया की भू-राजनीतिक परिस्थिति में हाल के दिनों में जो बदलाव हुआ है वह भी भारत पर इजरायल-हमास संघर्ष के दुष्प्रभाव की आशंका को मजबूत करता है। चीन अब महाशक्ति है और भारत के लिए खतरा भी है। वहीं, चीन भी भारत की बढ़ती ताकत को नजरंदाज नहीं करता। चीन ने वन बेल्ट वन रोड की पहल करते हुए जो व्यापारिक बढ़त हासिल की है उसके जवाब में भारत ने भी इंडिया मिडिल ईस्ट यूरोप कॉरिडोर की पहल की है। चीन के साथ रूस, ईरान, पाकिस्तान जैसे देश हैं तो भारत बदली परिस्थितियों में अमेरिका, यूरोप, जापान, ऑस्ट्रेलिया वाले खेमे में खड़ा दिखा है। हालांकि भारत ने हमेशा खेमे से तटस्थ रहने का भाव ही दिखाया है। रूस-यूक्रेन के बीच जारी युद्ध में भारत का रुख इसका सबूत है। मगर, हमास के बर्बर आक्रमण के विरोध में इजरायल के साथ खड़े होने की बात करते हुए भारत ने उस परंपरा को भी तोड़ा है जिसमें वह हमेशा से फिलिस्तीन के साथ खड़ा रहा है।

इजरायल-हमास के नाम पर संघर्ष आगे बढ़ने पर यह तय दिखता है कि भारत या तो तटस्थ रहेगा या फिर इजरायल के खिलाफ खड़ा नहीं होगा। संयुक्त राष्ट्र में गाजा विवाद पर जॉर्डन के लाए प्रस्ताव पर हुई वोटिंग में हिस्सा न लेकर भारत ने ये तटस्थता दिखाने की कोशिश भी की है।

भारत के इस रुख का इस्तेमाल चीन-रूस-ईरान के नेतृत्व वाला समूह कर सकता है। इजरायल हमास युद्ध को लेकर भारत में दो धड़े उभर आए हैं, एक इजरायल समर्थक और दूसरा इजरायल विरोधी। जाहिर है भारत विरोधी ताकतें इजरायल विरोधी ताकतों को हवा देकर आतंकियों का मुंह भारत की ओर मोड़ सकते हैं। इससे आतंकी संगठनों को भारत के भीतर जो फिलिस्तीन के समर्थन वाली भावनाएं हैं, उसका खुलकर इस्तेमाल करने का अवसर मिलेगा जो देश की शांति के लिए बड़ा खतरा हो सकता है।

ऐसी परिस्थितयों में भारतीय सुरक्षा एजेंसियां चौकस रह सकती हैं। ऐसी घटनाओं को वक्त रहते भांप भी सकती हैं। लेकिन, आतंकी घटना के लिए जब जमीन ही उर्वर हो जाएगी तो सुरक्षा एजेंसियों के लिए मुश्किलें बढ़ सकती हैं क्योंकि उनकी भी एक सीमा है। ये सच है कि आतंकवाद किसी राष्ट्र के समर्थन के बिना पनपता ही नहीं है। इसलिए सिर्फ सुरक्षा एजेंसियों पर निर्भर रहकर हम आतंकवाद से लड़ाई में जीत हासिल नहीं कर सकते। भू-राजनीतिक स्थिति में खुद को मजबूत करना और आतंकवाद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ नहीं होने देने की कूटनीतिक गारंटी करना ही ऐसे में सही रास्ता हो सकता है।

लोकतांत्रिक देश में चुनाव का बहुत महत्व होता है। चुनाव जीतना हर राजनीतिक दलों के लिए ध्येय रहता है। इसके लिए नीतियों से समझौता तक कर लिए जाते हैं। यही कारण है कि चुनाव के दौरान आतंकी गतिविधियों के बढ़ जाने की आशंका रहती है। आतंकवाद, ड्रग्स की तस्करी, काले नोटों का धंधा तब तक फल-फूल नहीं सकता जब तक कि राजनीति अपने स्वार्थ में आंखें न मूंद ले। चुनाव के दौरान भारतीय राजनीति में आंखें बंद कर लेने की यह बीमारी संक्रामक होती रही है।

आतंकवाद के लिए भारत में इजरायल-हमास संघर्ष ही इकलौती वजह नहीं है। सीमावर्ती प्रदेशों में यह दूसरे रूपों में भी मौजूद है। खालिस्तानी तत्व पंजाब की सीमा पर सक्रिय हैं तो पूर्वोत्तर की सीमा पर भी विदेशी शक्तियां सक्रिय हैं। जम्मू-कश्मीर का जिक्र करने की जरूरत ही नहीं है। जहां कहीं भी आतंकवाद का खतरा है वहां नशे का कारोबार पहले पहुंच चुका होता है। फिर हथियार पहुंचते हैं। आत्मघाती दस्ते तक तैयार कर लिए जाते हैं। इस दौर से भारत 2014 तक निकल चुका था। इसके बावजूद पुलवामा, पठानकोट जैसी घटनाएं हो जाती हैं। पूर्वोत्तर में जातीय संघर्ष के रूप में भी आतंकवाद के पैर फैलते दिख रहे हैं। ऐसे में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हमास-इजरायल संघर्ष के बाद भारत की भूमि पर आतंकवादियों की नजर है।

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