
दिल्ली में पहली बार विधानसभा चुनाव वर्ष 1952 में हुआ था. तब से राष्ट्रीय राजधानी में केवल आठ मुख्यमंत्री रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि 1956 से 1993 तक 37 वर्षों तक, दिल्ली की विधानसभा को समाप्त कर दिया गया था और इसे केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था. फिर भी राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण दिल्ली में राजनीतिक उठापटक का पुराना इतिहास रहा है, जिसमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और आम आदमी पार्टी अलग-अलग समय पर हावी रही हैं.
कैसे हुआ था पहला चुनाव
26 जनवरी 1950 को जब संविधान को अपनाया गया था, तब दिल्ली को केंद्र शासित पार्ट-C राज्य के रूप में चुना गया था. यह उन सात राज्यों में से एक था जिसमें भोपाल, अजमेर, कुर्ग, बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश और विंध्य प्रदेश शामिल थे. इन सात राज्यों की अपनी विधानसभा तो थी, लेकिन इनकी शक्तियां सीमित थीं.
1951-52 के चुनावों में, दिल्ली में 42 विधानसभा क्षेत्र थे लेकिन विधानसभा में कुल सीटों की संख्या 48 थीं. छह निर्वाचन क्षेत्रों से दो सदस्य सदन में भेजे गए थे जिससे इन 6 विधानसभा क्षेत्रों से विधायकों की संख्या 12 हो गई. बाकी के बचे 36 क्षेत्रों से एक-एक विधायकों को चुना गया जिससे दिल्ली विधानसभा में विधायकों की कुल संख्या 48 हो गई. कांग्रेस को 39 सीटें मिलीं, भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) ने पांच सीटें जीतीं, जबकि सोशलिस्ट पार्टी ने दो सीटें जीतीं.
ब्रह्म प्रकाश बनें पहले मुख्यमंत्री
तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 34 वर्षीय यादव किसान और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष ब्रह्म प्रकाश को दिल्ली का पहला मुख्यमंत्री चुना. प्रकाश ने 17 मार्च, 1952 को सीएम पद की शपथ ली. हालांकि, युवा सीएम ब्रह्म प्रकाश का चीफ कमिश्नर ए. डी. पंडित से विवाद हो गया. ठीक वैसे ही जैसे हाल के वर्षों में दिल्ली के सीएम केंद्र द्वारा नियुक्त लेफ्टिनेंट गवर्नर (LG) से भिड़ते रहे हैं. यह टकराव 12 फरवरी, 1955 को प्रकाश के अंतिम इस्तीफे के साथ समाप्त हुआ. एक इंटरव्यू में प्रकाश ने बताया कि जब ए डी पंडित चीफ कमिश्नर बने, वो हर मामले में दखल देना चाहते थे. उन्हें कोई भी चुना हुआ प्रतिनिधि पसंद नहीं था.
प्रकाश के इस्तीफे के बाद दरियागंज से विधायक गुरुमुख निहाल सिंह ने 13 फरवरी को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन उनका कार्यकाल भी ज्यादा दिन नहीं चला.
निहाल सिंह के पदभार ग्रहण करने के कुछ ही महीनों बाद जस्टिस फजल अली की अध्यक्षता में राज्य पुनर्गठन आयोग का गठन हुआ. आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि दिल्ली के लिए एक अलग राज्य सरकार की अब आवश्यकता नहीं है. 1 नवंबर, 1956 को निहाल सिंह ने इस्तीफा दे दिया, दिल्ली विधानसभा को समाप्त कर दिया गया और दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश (Union Territory) बन गया.
37 साल तक राष्ट्रपति शासन
फजल अली आयोग ने यह भी सिफारिश की थी कि दिल्ली की गवर्नेंस को वहीं के लोकल लोगों के हाथों में सौंप दिया जाए. इस प्रकार 1957 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम पारित किया गया और पूरी दिल्ली के लिए एक नगर निगम का गठन किया गया.
लेकिन अभी भी दिल्ली को राज्य का दर्जा दिलाने की मांग खत्म नहीं हुई. जब यह केंद्र शासित प्रदेश बना रहा, तब राजधानी के लगभग हर राजनेता ने राज्य का दर्जा पाने के लिए लड़ाई लड़ी. आखिरकार, 1991 में, प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव की सरकार ने दिल्ली सरकार को कुछ अधिकार दे दिए. दिल्ली में 70 सीटों वाली विधानसभा बनी, लेकिन भूमि (जमीन) पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण नहीं था. यह अधिकार दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) के पास रहा, जो केंद्र सरकार के आवास और शहरी कार्य मंत्रालय के अधीन आता है. कानून-व्यवस्था (लॉ एंड ऑर्डर) की जिम्मेदारी भी केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय को सौंप दी गई. यह व्यवस्था आज भी जारी है.
1993-98 तक भाजपा का शासन
करीब 37 साल बाद, नवंबर 1993 में दिल्ली में फिर से विधानसभा चुनाव हुए. इसमें भारतीय जनता पार्टी (BJP) को बड़ी जीत मिली. मदन लाल खुराना, ओ. पी. कोहली और वी. के. मल्होत्रा जैसे नेता आगे रहे. भाजपा ने 49 सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस को सिर्फ 14 सीटें मिलीं. कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण 1984 के सिख विरोधी दंगों में उसकी भूमिका को माना जाता है. चुनाव जीतने के बाद, मदन लाल खुराना 2 दिसंबर 1993 को दिल्ली के तीसरे मुख्यमंत्री बने.
लेकिन 1995 में उनका नाम एक हवाला घोटाले में आया. बढ़ते दबाव के कारण उन्हें एक साल के अंदर ही इस्तीफा देना पड़ा. इसके बाद 27 फरवरी को साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के चौथे मुख्यमंत्री बने. मगर भाजपा की स्थिति धीरे-धीरे कमजोर होती गई. पार्टी में आंतरिक विवाद और नेतृत्व की समस्याएं बढ़ने लगीं.
1998 के चुनाव से कुछ महीने पहले, पार्टी ने सुषमा स्वराज को मुख्यमंत्री बनाया. वे उस समय दक्षिण दिल्ली से सांसद थीं. उन्होंने 13 अक्टूबर को उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. लेकिन इससे भाजपा की भाजपा की डूबती नैया को नहीं बचाया जा सका. कांग्रेस ने 52 सीटें जीतकर सरकार बना ली और अगले 15 साल तक दिल्ली में शासन किया.
शीला दीक्षित का दौर
1998 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी ने शीला दीक्षित को दिल्ली कांग्रेस की कमान सौंपी. शीला दीक्षित प्रसिद्ध कांग्रेस नेता उमा शंकर दीक्षित की बहू थीं. उन्होंने 1980 के दशक में राजनीति में कदम रखा. उस समय वे राजीव गांधी की सरकार में मंत्री थीं. 1998 में जब कांग्रेस ने दिल्ली में जबरदस्त जीत दर्ज की, तो शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री बनाया गया. उन्होंने 3 दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.
शीला दीक्षित ने दिल्ली में कांग्रेस को मजबूत किया. वे भारत की आजादी के बाद सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाली महिला बनीं. उनके कार्यकाल में दिल्ली में इंफ्रास्ट्रक्चर का तेजी से विकास हुआ. कई फ्लाईओवर बने, दिल्ली मेट्रो की शुरुआत हुई, और सार्वजनिक बसों को CNG में बदला गया. उन्होंने बिजली वितरण को निजी कंपनियों को सौंपा और दिल्ली नगर निगम को तीन हिस्सों में बांट दिया.
आम आदमी पार्टी का उदय
2013 के चुनावों तक आते-आते कांग्रेस की स्थिति कमजोर हो गई. केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. इसी दौर में भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ.
2010-11 के दौरान चला ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन देश की राजनीति पर गहरा असर छोड़ गया. इस आंदोलन ने कांग्रेस सरकार को 2014 में सत्ता से बाहर करने में बड़ी भूमिका निभाई. इसके साथ ही, दिल्ली की राजनीति में एक नई पार्टी की एंट्री हुई.
नवंबर 2012 में अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, प्रशांत भूषण जैसे नेताओं ने आम आदमी पार्टी (AAP) की नींव रखी. इस पार्टी ने भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की नई उम्मीद जगाई. AAP ने खुद को एक ईमानदार विकल्प के रूप में पेश किया और दिल्ली में बदलाव का वादा किया.
आम आदमी पार्टी पिछले 10 वर्षों से दिल्ली की सत्ता में है. कभी अन्ना आंदोलन के प्रमुख चेहरा रहे अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में AAP ने 2013 में पहली बार दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ा. हालांकि, किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, लेकिन आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, और केजरीवाल दिल्ली के 7वें मुख्यमंत्री बने. ध्यान देने वाली बात ये थी कि जिस कांग्रेस पार्टी पर वे भ्रष्टाचार के आरोप लगाते थे, उसी के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई.
करीब एक दशक तक दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद केजरीवाल खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में घिर गए. महीनों तक जेल में रहने के बाद उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और अपनी सरकार में शिक्षा मंत्री रहीं आतिशी मर्लेना को कार्यकारी मुख्यमंत्री बना दिया. तब उन्होंने कहा था कि अब विधानसभा चुनावों में जनता ही उनका फैसला करेगी.
-भारत एक्सप्रेस
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